- ओमप्रकाश अश्क
हेमंत सोरेन का नया राजनीतिक अवतार इस बार दिख रहा है। राष्ट्रीय फलक पर उभरते चेहरे के रूप में लोग हेमंत सोरेन को देखने लगे हैं। आपने पहले भी हेमंत को देखा होगा और आज भी देख रहे हैं, आपको बदलाव साफ नजर आ रहा होगा। वे दूसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने हैं। उनका मैच्योरिटी लेवल इतना बढ़ा है कि उन्हें अरसे से जानने वाले भी आश्चर्यचकित हैं। पहले हेमंत का चेहरा झारखंड की राजनीति के इर्द-गिर्द ही सीमित था, लेकिन इस बार उनकी पहचान राष्ट्रीय फलक पर बनी है। अपने आचरण-व्यवहार से उन्होंने इसे स्थापित करने की पूरी कोशिश की है।
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चुनाव पूर्व विपक्षी महागठबंधन की पहली कोशिश 2015 में बिहार में हुई और इसमें विपक्ष को कामयाबी भी मिली थी, लेकिन महागठबंधन का स्वरूप 19 महीने के भीतर ही बिखर गया। झारखंड में इस साल विधानसभा चुनाव से पहले ही, बल्कि यह कहें कि लोकसभा चुनाव के दौरान विपक्षी दलों के महागठबंधन की जो कवायद शुरू हुई थी, उसे बड़े धैर्य के साथ विधानसभा चुनाव में अंजाम तक पहुंचाने में हेमंत सोरेन की बड़ी भूमिका रही।
2014 में 9 सीटों पर सिमट चुकी कांग्रेस को अगर संजीवनी इस बार मिली और उसे 16 सीटें हासिल करने में कामयाबी मिली तो इसके पीछे हेमंत सोरेन की मेहनत और विपक्षी एकता बनाए रखने के ईमानदार प्रयास को ही स्वीकार करना पड़ेगा।
महज 44 साल की उम्र और तकरीबन 10 साल के राजनीतिक कैरियर में उन्होंने जो लकीर खींची है, उसे बड़े-बड़ों को अपनाने-सीखने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए। दूसरी बार झारखंड की बागडोर संभालने के बाद हेमंत का नया अवतार हुआ है। राष्ट्रीय फलक पर विपक्षी एकता के नमूने के तौर पर उन्हें देखा जा रहा है।
उनमें बदलाव 23 दिसंबर को चुनाव नतीजों की घोषणा के बाद से ही दिखने लगा था। आम कार्यकर्ता-समर्थक और शुभचिंतकों से मिलने में उन्हें तनिक भी झिझक नहीं थी और न कोई चेहरे पर किसी से मिलते वक्त विजयी होने का गुमान था। जब यह स्पष्ट हो गया कि हेमंत सोरेन के पास झारखंड मुक्ति मोर्चा के जीते हुए 30 और कांग्रेस के विजयी 16 उम्मीदवारों का समर्थन हासिल हो गया है और उन्हें अब किसी अन्य की जरूरत नहीं है, इसके बावजूद अंतिम समय में विपक्षी एकता में बाधक बने झारखंड विकास मोर्चा के सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी से सौजन्यमूलक मुलाकात उनके आवास पर जाकर उन्होंने की।
वे अपने पुरखों को भी नहीं भूले। बिरसा मुंडा, अल्बर्ट एक्का, महात्मा गांधी, विवेकानंद, भीमराव अंबेडकर जैसे वीर शहीदों और महान लोगों की प्रतिमाओं पर उन्होंने पुष्प अर्पित किए और संकल्प शक्ति ग्रहण की। वे झारखंड के शहीदों को भी नहीं भूले और खरसावां जाकर खरसावां कांड के शहीदों को उन्होंने नमन किया। उनके परिजनों के हाल जाने और उनके लिए सरकारी इमदाद की घोषणा की।
राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता की सशक्त बुनियाद उस दिन पड़ी, जब हेमंत सोरेन सीएम पद की शपथ ले रहे थे। कई गैर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और नेताओं की मौजूदगी इस बात की साक्षी थी कि हेमंत अब न सिर्फ झारखंड में विपक्षी एकता का प्रतीक बन गए हैं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी उन्हें प्रासंगिक माना जा रहा है। इसी क्रम में उन्होंने दिल्ली दौरे का कार्यक्रम बनाया और राष्ट्राध्यक्ष राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से, पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से और दिल्ली की मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिलकर उनको नववर्ष की शुभकामनाएं दीं और राजकाज के अपने अंदाज का परिचय दिया। हेमंत सोरेन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मिलने का समय मांगा, लेकिन उन्हें समय नहीं मिला। बकौल हेमंत सोरेन प्रधानमंत्री जी की व्यस्तता के कारण 2 बार आग्रह के बावजूद उन्हें समय नहीं मिल पाया। इशारों में केंद्र सरकार के साथ अपने मधुर संबंधों की बात भी उन्होंने कह दी।
हेमंत सोरेन में आये ये बदलाव उनकी मैच्योरिटी के प्रतीक हैं। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की लहर में झारखंड मुक्ति मोर्चा समेत समूचे विपक्ष को हार का सामना करना पड़ा। उससे घबराए बगैर हेमंत ने आम आदमी से अपना संपर्क-संबंध यथावत बनाए रखा। यही वजह थी कि 2014 में लोकसभा चुनाव के कुछ ही महीनों बाद जब झारखंड विधानसभा के चुनाव हुए तो अपने दम पर हेमंत सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा ने 19 सीटें जीतीं। उसके बाद उनका राजनीतिक अभियान लगातार जारी रहा। 5 साल की अथक मेहनत और अपने दम पर उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा की झोली में 2014 की 19 के मुकाबले 2019 में 30 सीटें डाल दीं। इतना ही नहीं, अपने साथ कांग्रेस का भी कल्याण किया। गठबंधन में कांग्रेस को शामिल कर 2014 में 9 सीटों पर सिमटी कांग्रेस को उन्होंने 16 सीटें दिलाने में मदद की।
हेमंत इस बार अपनी कामयाबी से तनिक भी इतराए नजर नहीं आते हैं। उन्होंने सौजन्यमूलक सर्वदलीय रिश्ते को तरजीह दी है। मौजूदा विपक्ष में बैठी भाजपा के साथ ही वह बेहतर संबंध रखना चाहते हैं। शायद यही वजह है कि मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में चुनाव हार चुके पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास भी शामिल हुए तो रघुवर को पराजित करने वाले निर्दलीय विधायक सरयू राय भी उपस्थित थे। सबसे समान रिश्ते बनाए रखना चाहते हैं। हेमंत का यह गुण अगर आगे भी बरकरार रहा तो यह उन्हें काफी ऊंचाई तक जा सकता है।
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