बिहार में नीतीश ने जितना काम किया है, उससे आगे भी बहुत काम बाकी है। ऐसा महसूस किया है वरिष्ठ पत्रकार गुंजन ज्ञानेंद्र सिन्हा ने। उन्होंने कई उदाहरणों के साथ अपने फेसबुक वाल पर लिखा है कि बिहार में काम के कौन-कौन से क्षेत्र अछूते रह गये हैं।
- गुंजन ज्ञानेंद्र सिन्हा
लालू राज की तुलना में नीतीश जी का काल बेशक बेहतर है। इसका ये अर्थ नहीं कि हम उनके शासन की कमियों, गलतियों और जनता की वर्तमान तकलीफों की चर्चा न करें। पहले चर्चा उनके अच्छे काम की- लोग (और शायद वे स्वयं भी) शराबबंदी को सबसे यादगार मानते हैं। लेकिन सामाजिक बदलाव की दिशा में उनका सबसे बड़ा काम है, स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50% आरक्षण।
नीतीश जी ने राजनेताओं की बातचीत की शैली सुधारी, जो कि लालू राज में एकदम फूहड़ थी।
सड़कें कुछ अच्छी बनीं, कुछ ओवरब्रिज और नए भवन बने, बिजली भी बेहतर हुई। लेकिन पन्द्रह साल के शासन की यही उपलब्धियां हैं? कुछ सड़कों और भवनों के आधार पर इसे बिहार का स्वर्णयुग मान लिया जाए? क्या विकास का मतलब कुछ बिल्डिंग और कुछ सड़कें ही होती हैं और एक सालाना मानव श्रृंखला?
नीतीश जी से मेरी पहली भेंट तब हुई थी, जब मैं वशिष्ठ जी (वशिष्ठ नारायण सिंह) से मिलने 32 / 34 mla फ्लैट जाया करता था। वशिष्ठ जी, विजय कृष्ण जी और नीतीश जी वहीं रहते थे। सादगी और मितव्ययिता के साथ। नीतीश जी से बस परिचय हुआ। उनसे निजी संपर्क कभी नहीं रहा। बातें वशिष्ठ जी से होती थीं- जेपी आन्दोलन, सम्पूर्ण क्रान्ति वगैरह के बारे में।
जब नीतीश जी ने लालू प्रसाद से अलग होकर समता पार्टी बनाई, तब नवभारत टाइम्स में एक ऐसे संपादक आ गए, जिन्होंने ऑफिस के बदले लालू प्रसाद के दरबार से ड्यूटी शुरू की।
विधानसभा चुनाव के प्रचार के समय उन्होंने निर्देश जारी कर दिया कि समता पार्टी की कोई खबर नहीं छपेगी। मैं सिटी पेज देखता था। समाचार संपादक महेश खरे ने यह निर्देश बताया। मैंने कहा- हम किसी पार्टी को चुनाव के समय ब्लैक आउट कैसे कर सकते हैं? खबर तो सबकी देनी होगी।
खरे जी बोले कि अखबार संपादक की मर्जी के अनुसार निकलता है। उनका निर्देश है कि समता पार्टी की खबर नहीं छापनी तो नही छापनी। मानना ही होगा। तब मैंने कहा कि यह निर्देश बहुत महत्वपूर्ण है। आप इसे लिख कर दें। जबानी मैं नहीं मानूँगा।
संक्षेप ये कि अगले कई दिनों तक चुनाव प्रचार चलता रहा और पेज 3 पर सम्पादक की मर्जी के खिलाफ समता पार्टी की खबर मैं रोज छापता रहा। इसके पीछे मेरा कोई नीतीश-प्रेम नहीं था। बस पत्रकारिता के एथिक्स थे। मजेदार किस्से हुए। वे कभी अलग से।
खैर, बाद में बतौर मुख्यमंत्री हैदराबाद आए तो वहां बसे बिहारियों ने उनका सम्मान समारोह किया। उसमें मैं अरुण अशेष जी के साथ मौजूद था। बिहार के विकास सम्बन्धी उनका भावपूर्ण भाषण सुन कर काफी उम्मीदें जगी थीं। उन्होंने बाहर बसे बिहारियों से अपील की कि वे बिहार के विकास में मदद करें। बिहारी मूल की एक अमेरिका-वासी लड़की ने तब अपनी डाक्यूमेंट्री में दिखाया कि कैसे 1988 में उसके पूर्वज जमुना राम गिरमिटिया मजदूर बना कर कीनिया ले जाए गए थे, कैसे यह लड़की अपने पूर्वजों की जड़ें तलाशती मुजफ्फरपुर के एक गाँव की दलित बस्ती में पहुंची, तो उसने पाया कि उसके खानदान के लोग किस बदहाली में थे।
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उस समय नीतीश जी की बातों से लगता था कि सदियों से जारी बिहारी मजदूरों का पलायन अब रुकेगा और उन्हें अपने गाँव या जिले में रोजगार मिल जाएगा। लेकिन वह पलायन नहीं रुका। बिहारी मजदूर कश्मीर, असम, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, पंजाब दिल्ली में गाली-मार खाते हैं। बस पेट पालते हैं। बिहारी खुश हैं कि रिन्किया के पापा दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष हैं और दिल्ली में इस बार जेडीयू को भी दो टिकट मिले हैं। इसलिए कि दिल्ली में बिहारी मजदूर भरे हुए हैं। लेकिन इसका काला पक्ष कोई नहीं देखता।
अपने गाँव, अपनी संस्कृति, परिवार और ज़मीन से उनकी जड़ें उखड़ रही हैं। रोटी के सिवा उनकी कोई अस्मिता नहीं। बिहारी शब्द एक गाली है। एक और निर्मम, अँधेरा पक्ष है, जिसकी रिपोर्ट हम कई बार कर चुके- यह है कीरतपुर और घनश्यामपुर प्रखंडों में दलित औरतों का साइलेंट जेनोसाइड। अन्य जिलों में भी होगा, लेकिन कोई सर्वे तो करे।
उन दो प्रखंडों में 2005 में किये गए एक सर्वे के अनुसार हज़ार पुरुषों पर दलित औरतों की आबादी तीन सौ से भी कम रह जाती है। वजह है- बाढ़ के समय डेलिवरी-डेथ और मजदूरों के प्रवास का कैलेण्डर। मजदूरों का पलायन नहीं रोक सके, इन औरतों का मरना तो रोकते। आपके पास उन गाँवों के आंकड़े मौजूद भी हैं क्या?
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छात्रों का अन्य राज्यों में पढ़ने जाना, चूँकि बिहार में अच्छे संस्थान नहीं, संस्थानों में शिक्षक नहीं, पन्द्रह साल में आप छात्रों का पलायन रोक सके क्या? हर छात्र के साथ हर साल कम से कम डेढ़ लाख रुपए बिहार से बाहर जाते हैं। बाहर जानेवाले छात्रों का कोई आंकड़ा है? जनसंख्या-नियंत्रण और भूमि सुधार ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें हाथ डालने की हिम्मत आप कभी नहीं कर सके।
संक्षेप में- शिक्षा, रोजगार, जनसंख्या नियंत्रण, भूमिसुधार, सांस्कृतिक जागरण, सफाई जैसे मूलभूत मुद्दों पर पन्द्रह वर्षों में आप क्रांतिकारी बदलाव ला सकते थे। लम्बा समय मिला आपको, लेकिन आप ख़ास नहीं, आम मुख्यमंत्री ही रह गए। अब भी कुछ समय शेष है।
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