अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर यह निजी यह यात्रा प्रसंग बरबस याद आ गया। इसलिए कि इस कहानी में चार महिला पात्रों का जिक्र है। चारों की अपनी खासियत है। एक तरफ गरीब घर की महिला है और उस गरीब महिला की बेटी तो दूसरी तरफ झारखंड के एक जिले की उपायुक्त (डीसी) हैं और उनकी मां। संवेदनाएं चारों में अपने-अपने स्तर पर हिलोरें भर रही हैं। आप भी पढ़ कर रोमांचित हो उठेंगे।
- प्रकाश सहाय
पूस की ठंढी कंपकपाती नये साल की दूसरी रात। राजमहल की गंगा मइया के दर्शन के बाद साहेबगंज से लौटते देर हो गयी। रात के करीब 9 बज रहे थे। हल्की बूंदाबांदी हो रही थी, जो कभी-कभी अचानक तेज भी हो जाती थी। मुझे याद आया कि रांची के दोस्तों के लिए पेड़ा लेना है। ड्राइवर ने ही इस झोपड़ी का पता बताया। दुमका-देवघर सीमा के करीब यह छोटी-सी दुकाननुमा झोपड़ी है।
जब हम वहां रुके तो बारिश तेज हो चुकी थी। सर्द हवा भी तेज थी। झोपड़ी घर में तब्दील हो रही थी। चौकी पर चादर बिछा कर सोने की तैयारी हो रही थी। फिर भी उस गरीब ने हमें अंदर बुला लिया। झोपड़ी की टूटी छत से पानी टपक रहा था। मैंने 5 किलो पेड़ा खरीदने की बात की। दुकानदार ने कहा कि अभी तुरंत ताज़ा खोया बना है, आप 15 मिनट इंतज़ार करें, ताजा पेड़ा बना कर देते हैं।
टपकते पानी से बचने के लिए झोपड़ी वाले की पत्नी ने राजलक्ष्मी (मेरी अर्धांगिनी) को भीतर एक छोटे कमरे में बुला लिया, जहां मिट्टी का चूल्हा बुझ चुका था, लेकिन लकड़ी के अंगारे अब भी सुलग रहे थे। अपने बचपन की आदत को रोक नही पायी राजलक्ष्मी। चूल्हे के पास बैठ कर हाथ सेंकने लगी। मैंने पूछा- चाय बन सकती है क्या?
गरीब की बेटी ने कहा कि पहिले ही केतली चढ़ा दिए हैं। तब तक दूसरी गाड़ी से उतर कर बेटी भी झोपड़ी के अंदर आ गयी। (प्रसंगवश बेटी का परिचय देना जरूरी है। उसका नाम नैंसी सहाय है और वह फिलवक्त देवघर की जीसी है)। हथियार के साथ बॉडीगार्ड्स को देख कर झोपड़ी वाला चौंका। थोड़ा असहज भी हुआ। तब तक बेटी भी चूल्हे के पास जाकर जमीन पर बैठ गयी। जब उसे पता चला कि उसकी झोपड़ी के चूल्हे के पास बैठ कर जिले की डीसी आग ताप रही हैं तो वह अचंभित-सा हो गया।
उसकी बेटी और पत्नी वहां आकर झांकने लगे। फिर हल्की बारिश में उस टपकते हुई झोपड़ी के भीतर मिट्टी की प्याली में जो चाय हमने पी वह अद्भुत थी। वैसी चाय मैंने कभी नही पी थी। बेटी ने उससे कई बातें की। फिर कहा कि कभी कोई तकलीफ हो तो उससे आकर मिले। लाख बोलने पर भी झोपड़ी वाले ने चाय के पैसे नहीं लिए। फिर मैंने 5 किलो की जगह 7 किलो पेड़ा खरीदा।
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नये साल का आगाज रोमांचित करने वाला रहा। जब कभी राजलक्ष्मी को झोपड़ी की चाय याद आती है वह कहती है : ठंडे चूल्हे की राख को कुरेदकर थोड़ा-सा अंगारा निकाला उस झोपड़ी के मालिकिन ने। मैं आग तापते सोच रही थी उस सर्द मौसम में टपकती खपरैल में संवेदना का अक्षय खजाना भरा है। ऐसा लगा, मानो मिट्टी की दीवार में सोने की मुहरें छिपी हुई हैं। अनोखे अंदाज का आतिथ्य था वह! सचमुच आज भी संवेदना, प्रेम, आतिथ्य सिर्फ झोपड़ियों में ही बचा है। जहां गरीबी है, लेकिन मन की अमीरी के साथ खुशियों का खजाना भी है। सच्चा भारत झोपड़ियों में ही बसता है।
कोई घर को महल बना लेता है, कोई झोपड़ी को अपना महल/ खेल सिर्फ नसीब है गालिब/
कभी-कभी खुशियां महलों की ऊंची दीवारों को लांघ नही पातीं/ कभी झोपड़ी की टूटी छत से भी टपकती हैं..
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