साहित्यकारों में आपसी सौहार्द का प्रतीक है, अज्ञेय व रेणु का संबंध

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साहित्यकारों में आपसी सौहार्द का प्रतीक है, फणीश्वर नाथ रेणु व सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय का संबंध
साहित्यकारों में आपसी सौहार्द का प्रतीक है, फणीश्वर नाथ रेणु व सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय का संबंध
फणीश्वर नाथ रेणु
फणीश्वर नाथ रेणु

साहित्यकारों में आपसी सौहार्द्र का प्रतीक है, अज्ञेय और रेणु का यह संबंध। फणीश्वर नाथ रेणु के प्रति अज्ञेय के मन में काफी सम्मान था। एक बार जब दोनों मिले तो अज्ञेय को देखते ही उन्होंने बैठकर दोनों हाथों से उनका चरणस्पर्श किया। हाथ को अपने ललाट पर लगाया। एक परम पूज्य साहित्यिक व्यक्तित्व उनके सामने आकर साकार खड़ा था। यह पहली भेंट थी। फिर लगातार चलती रही। अज्ञेय और रेणु के संबंधों पर विस्तार से प्रकाश डाला है भारत यायवर ने।

  • भारत यायावर 
भारत यायावर
भारत यायावर

अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता है ‘असाध्य वीणा’। मैं प्रायः यह सोचता रहता हूँ कि यह असाध्य वीणा अपने-आप में अज्ञेय स्वयं थे। एक रहस्यमय मौन!  नीरवता का सतत स्पंदित छंद! एक विराट महीरूह! एक तिलस्मी व्यक्तित्व! एक दिव्य अवतरित बोधिसत्व!

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लेकिन अपने बारे में बताने के पहले यह बताना जरूरी समझता हूँ कि साहित्यकारों में अज्ञेय को यायावर के रूप में ही ठीक से  समझा जा सकता है। संन्यासी, परिव्राजक, मुनि होकर सतत् विचरण करने वाला  मनस्विनी ही यायावर हो सकता है। अज्ञेय यायावर थे और किसी छंद से बंधे न थे।

उनसे मैं कतराता रहता था। लेकिन 1985 में आक्टोवियो पाज के त्रिवेणी कला केन्द्र, मंडी हाउस, नई दिल्ली के कविता-पाठ के  एक कार्यक्रम में अगल-बगल में बैठने का सौभाग्य मिला। मैं उनको बस देखता था, लेकिन वे तो मुझे घूर ही रहे थे। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद उन्होंने मेरा नाम पूछा और मैंने जब अपना नाम बताया तो उछल पड़े। मितभाषी अज्ञेय मुस्कुरा पड़े।

उन्होंने बताया कि वे मुझे बहुत दिनों से खोज रहे थे। और मैं हैरान रह गया, जब उन्होंने कहा कि आपसे मिलने की बहुत इच्छा थी। हजारीबाग आपसे मिलने जाने की योजना ही बना रहा था। फिर उन्होंने अपने घर पर बुलाया।  लेकिन तब मैं जा नहीं सका। एक वर्ष बाद मैं 1986 में जब उनके घर गया तो सब काम छोड़कर मुझसे मिले और ‘एकांकी के दृश्य’ उनको समर्पित करने पर बेहद ख़ुशी जाहिर की। वे मुझसे खुश थे कि मैं फणीश्वरनाथ रेणु से इतना लगाव रखता हूँ। उन्होंने बताया कि वे रेणु की सभी हस्तलिखित रचनाओं और पत्रों को एक संदूक में संभाल कर रखे हुए हैं। उन्होंने मुझसे वायदा किया था कि रेणु की सभी हस्तलिखित रचनाओं और पत्रों को फोटोकापी करवा कर मुझे भेज देंगे। पर ऐसा संयोग नहीं बन पाया।

बहुत बाद में कृष्णदत्त पालीवाल ने रेणु की दो चिट्ठियों की फोटो प्रति मुझे उपलब्ध कराई, जिससे ज्ञात होता है कि फणीश्वरनाथ रेणु के मन में  अज्ञेय के प्रति कितना मान था। ‘शेखर : एक जीवनी’ उनकी प्रिय पुस्तक थी। 1942 के आन्दोलन के समय वे गिरफ्तार होकर भागलपुर जेल में बंद थे। वहीं पहली बार इसे पढ़ी थी और अपने गुरु रामदेनी तिवारी द्वजदेनी को सुनाई थी। अपने आत्म-संस्मरण में उन्होंने लिखा है कि तीन उपन्यास पढ़कर अपने गुरु तिवारी जी को सुनाए थे- रवीन्द्र का ‘योगायोग’, गोदान और  शेखर  : एक जीवनी।

बयालीस में ही भारत के श्रेष्ठ उपन्यास-त्रयी में शेखर को रखते थे। इनका वाचन कर रोज अपने गुरु को सुनाने से ये कृतियाँ उनके भीतर समाहित हो गई थीं। अज्ञेय के प्रति उनके मन में कितना आदर होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है! वे ‘प्रतीक’ निकलते ही उसके ग्राहक बन गए थे।

जब मैला आँचल प्रकाशित होकर चर्चित हो रहा था, उनके विरोधी साहित्यकारों की एक बड़ी फौज उनके अँचल में खड़ी हो रही थी । धीरे-धीरे पटना में भी उनका रहना और लिखना-पढ़ना दूभर होता गया। वे अपनी ससुराल हजारीबाग आकर रहने लगे। यहाँ रहकर परती : परिकथा का एक बड़ा हिस्सा लिखा। पर ससुराल में बहुत दिनों तक रहना उनको ठीक नहीं लगता था। उन्होंने ओमप्रकाश जी को पत्र लिखा। ओमप्रकाश जी ने लूकरगंज में किराए पर एक कमरा ठीक कर दिया।

साहित्यकारों में अज्ञेय जी नवीनता के खोजी थे। उस समय कृष्ण दत्त पालीवाल बीए की पढ़ाई कर रहे थे। उनको लेकर रेणु से मिलने उनकी कोठरी में गए। रेणु जी गुलाबी धोती और कुर्ता पहनकर परती  : परिकथा के शिवेन्द्र मिश्र बने हुए थे। अर्थात् उस चरित्र को जीते हुए अपनी मानसिक कथा-चरित्र को जी रहे थे और रच रहे थे।

अज्ञेय को देखते ही उन्होंने बैठकर दोनों हाथों से उनके चरणस्पर्श कर अपने ललाट पर लगाया।  एक परम पूज्य साहित्यिक व्यक्तित्व उनके सामने आकर साकार खड़ा था। यह पहली भेंट थी। फिर लगातार चलती रही। 1965 में  जब ‘दिनमान’ के वे सम्पादक हुए तो रेणु को बिहार प्रतिनिधि बनाया। रेणु दिनमान के हर अंक में लिखते। 1966 में बिहार के सूखा क्षेत्र का दौरा और रेणु की रचना ‘भूमि दर्शन की भूमिका’ का धारावाहिक रूप से छपना, जिसमें अज्ञेय के प्रति रेणु के लगाव को साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। बाद में अज्ञेय ने रघुवीर सहाय को दिनमान के संपादन का दायित्व सौंप दिया और उन्होंने भी साहित्यकार रेणु के व्यक्तित्व को ऊँचा मान दिया।

रेणु के निधन के बाद अज्ञेय ने उन पर ‘धरती का धनी’ नामक संस्मरण लिखा। साहित्यकारों में आपसी सौहार्द्र का प्रतीक है, अज्ञेय और रेणु का यह संबंध। आजकल लेखक समाज यह खोज करता है कि कौन किस दल में है और एक दूसरे की मिट्टी पलीद करने में लगा रहता है। इस तरह राजनीति के दल-दल के कीचड़ के कीटाणु उसके दिमाग में कुलबुलाते रहते हैं।

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