- डा. संतोष मानव
कोरोना! अब तो जब तक जीना है, तेरी शमशीरें और हमारा सीना है। 42 घरों वाले इस कवर्ड कैंपस में वीरानगी है। सब अपने-अपने घरों में कैद हैं। कैंपस की वीरानगी तभी टूटती है, जब कैंपस की दीवार से सटी मस्जिद से अजान होती है- अल्लाह हू अकबर, अशहदू अल्लाह इलाहा इलल्लाह—–। कैंपस की नीरवता तब भी टूटती है, जब कोई सब्जी वाला आता है- आलू, प्याज, गिलकी, धनिया—- ले लो। इस कोरोना काल में इन दो अवसरों को छोड़ दें, तो कैंपस की वीरानगी, नीरवता डर का एहसास कराती है। लगता है कि यह एक सद्य: उजाड़ कैंपस है, जहाँ कोई नहीं रहता। कोई आता-जाता नहीं है। अगर दरवाजा डोले तो कैफ भोपाली की लिखी और जगजीत सिंह की गाई गजल याद आती है- कौन आएगा यहां, कोई न आया होगा, मेरा दरवाजा हवाओं ने हिलाया होगा—-। वीराने में एक घर हो जैसे! पिछले 35 दिनों में एक बार भी डोरबेल से आवाज नहीं आई, जैसे डोरबेल का अस्तित्व ही नहीं हो।
दरअसल, कोरोना काल सिर्फ डर का एहसास ही नहीं कराता, अनेक तरह के एहसास हैं अभी- प्रेम, समर्पण, त्याग, कर्तव्य, वसुधैव कुटुम्बकम, मानवता—-न पूछिए कि कैसे-कैसे एहसास। अनेक घटनाएं नजरिया ही बदल रहीं हैं। क्या पुलिस वालों के प्रति अनेक का नजरिया न बदला होगा? क्रोध, हैरत, घृणा के अवसर भी हैं, पर बहुत कम। दाल में नमक से भी कम। क्रोध तभी आया, जब पुलिसकर्मियों या डॉक्टरों पर हमले हुए। पर यहां तो हर रोज प्रेम, समर्पण, त्याग, मानवता की सरिता बह रही है। ऐसी-ऐसी सच्ची कहानियां कि आंखें बरबस बहती हैं। कहती है- हां, है न भाईचारा, प्रेम की पराकाष्ठा यही है, यहीं है।
लेटे-लेटे खुद से बातें करता हूं- डर, बरबादी के ऐसे मंजर पहले देखा है कभी? हां, देखा है। ऐसा नहीं, पर इससे मिलता-जुलता। उड़ीसा में। 1999 । उड़ीसा में साइक्लोन- चक्रवाती तूफान। तूफान के तीसरे ही दिन अपन कटक पहुंच गए थे। संपादकजी ने भेजा था। नागपुर से बस से रायपुर। फिर रायपुर से कटक। साधारण बस में लगातार सोलह घंटे। कटक को केंद्र बनाकर अनेक जिलों में गया था। बरबादी के दृश्य देखे। गढ्ढों में, नालियों में जानवरों के शव। बदबू, दुर्गंध। नाक फट जाए, वैसा। तूफान के पांच दिन बाद भी आदमी के शव। प्रकृति के कोप का प्रमाण! चारों ओर ब्लीचिंग पाउडर। रिलीफ कैंप में भीड़। टूटे, बहे, उड़े, उजाड़ घर। राहत सामाग्री के लिए लंबी लाइन। उदास चेहरे। बुझे मन। हे काली माई! ऐसा फिर न दिखाना। अकेले जगतसिंह पुर में आठ हजार लोग मारे गए थे। कुल कितने मरे? विवाद है, पर हर कोई मानता था तीस हजार से कम नहीं। तीन जिले, तीस हजार मौत!
आलू, प्याज, शिमला मिर्च—कटक से वापस हो गया मन। टूट गई तंद्रा। बरबादी का कटक वाला दृश्य नहीं है, पर डर वैसा ही है। हे ईश्वर, फिर दिखा दिया न! छोड़िए, बरबादी की कहानी। कोरोना काल का प्रेम-स्नेह देखिए। वीर दो साल का है। प्यारा-सा बच्चा। निकला कोरोना पाजिटिव। अस्पताल जाना है। मां ने कहा, वीर अकेले नहीं जाएगा, मैं भी जाऊंगी। मां भी गई। वह भी कोरोना से बीमार हो गई। पास-पास दोनों। दोनों बीमार। मां का प्यार जीत गया। वीर भी ठीक हो गया। ऐसी होती है मां। बेटे के लिए दांव पर जिंदगी। यह मां भी वारियर है- कोरोना वारियर।
पति को कोरोना वायरस। डॉक्टर ने कहा, बड़े शहर जाना पड़ेगा। हम ले जाते हैं। पत्नी न मानी-मैं भी जाऊंगी। —-जाऊंगी मैं। पति के साथ रही। पर हार गई। पति चले गए। अब क्या करती। घर दूर। संबंधी दूर। शहर में सगा कोई नहीं। एक सहेली को याद किया। श्मशानघाट गई। क्रियाकर्म के बाद ही लौटी। कोरोना की ऐसी-ऐसी कहानियां कि कलेजा कांप जाए। आंखें बह जाए।
अब तो कोरोना योद्धा मां, पत्नी, भाई। कुछ योद्धा सड़कों पर। ये पुलिस वाले हैं। क्या-क्या कर रहे हैं, समाज-देश की खातिर। कर्तव्य के नाम पर। खाना पकाना, खाना बांटना, मास्क बनाना-बांटना। हाथ जोड़ना, गाना गाना—- कहो न साधारण भाषा में कि जूता सिलने से चंडीपाठ तक। ये पत्थर, चाकू भी खा रहे। हाथ भी कटवा रहे। किसके लिए? जान भी गवां रहे। कोरोना के शिकार हो रहे हैं। कितने पुलिस वालों की जान गई। है गिनती? अठारह घंटे ड्यूटी। बीवी-बच्चों से दूर। होटल या किसी सेंटर में रात। ताकि बीवी-बच्चों पर न आए आफत। घर गए भी तो दूर से ही टाटा-बाय-बाय। पापा जल्दी लौट आना। आओगे न? पर गारंटी नहीं। पता नहीं, कब-कहां शरीर में समा जाए कमीना कोरोना?
ये डॉक्टर! धरती के भगवान। क्या नहीं कर रहे। दिन-रात मौत के बीच सेवा। लगातार काम। अस्पताल या होटलों में आराम। कोरोना से ग्रसित भी हो रहे। पत्थर भी खा रहे। जान भी गवां रहे। सिर भी फोड़वा रहे। नर्स, दूसरे अस्पतालकर्मी, सफाईकर्मी, पानी-बिजली वाले। तमाम जरूरी सेवा वाले लोग जुटे हैं मानव जाति को बचाने में। इनके लिए ताली हो या थाली, सब बजाना जायज है। ताली-थाली का विरोध सही नहीं। कहां-कहां से निकल रहे मानवता के सेवक। दुर्गा चली गई। सगा नहीं कोई। सामने आए रहमान। कंधा दिया। ले गए श्मशान।
अच्छा-अच्छा सोचो रे मन- बी पाजिटिव। कैसे पाजिटिव? रुक नहीं रहा कोरोना। अब तक दुनिया भर में सवा दो लाख लोगों को खा गया। एकतीस लाख से ज्यादा बीमार हैं। दुनिया भर के क्रबिस्तानों में जगह का अकाल। अपने देश में अब तक हजार से ज्यादा मर गए। बत्तीस हजार बीमार। संख्या थम नहीं रही। रोज आंकड़ा भाग रहा। कैसे टूटेगा यह क्रम? ऐसे में तो तालाबंदी टूटने से रही। ओह! पागल हो जाएंगे। चलो, दूध की दुकान तक चलते हैं। मन भी बहल जाएगा और दही भी ले आएंगे। दही संक्रमण से बचाता है। रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ाता है। दही के बारे में कदाचित चरक ने लिखा है- रोचनं दीपनं वृष्यं स्नेहनं बलवर्धनम् ——।.
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ठीक है, बाहर जाओगे, तो सावधान हो जाओ। किसी से सटना नहीं। कम से कम दो गज की दूरी। मास्क लगाओ। जितने का नोट, उतने का सामान। रुपए लौटना नहीं चाहिए। आते ही सेनेटाइजर मलो। दरवाजे की कुंडी पर भी। चप्पल बाहर। कपड़ा बदलना होगा। नहाना होगा। हमसे नहीं होगा इतना। ठीक है, न जाओ। महाभारत देखो। साली जिंदगी ही महाभारत हो गई है। मेरी-तेरी-उसकी-सबकी। बाहर-मन के अंदर और टेलीविजन पर भी महाभारत? ये कोरोना, तेरी बहन—- हां, कोरोना- अब तो जब तक जीना है, तेरी शमशीरें और हमारा सीना है। कोरोना पाबंदियों और सावधानियों के साथ जीना सिखा देगा। है न? (कोरोना डायरी -5)
(लेखक दैनिक भास्कर, हरिभूमि, राज एक्सप्रेस के संपादक रहे है)
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