महाराष्ट्र के औरंगाबाद की घटना और रवि, रणवीर व जमलो की याद

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कोरोना की पहुंच पेट के बाहर तक ही नहीं रही, पैठ अंदर तक हो गई है। कोरोना साथ लिए आ रहे हैं शिशु। ऐसे में सहज सवाल- कौन है कोरोना से सुरक्षित? पढ़िए, कोरोना डायरी की इक्कीसवीं किस्त वरिष्ठ पत्रकार डॉ. संतोष मानव की कलम से।
कोरोना की पहुंच पेट के बाहर तक ही नहीं रही, पैठ अंदर तक हो गई है। कोरोना साथ लिए आ रहे हैं शिशु। ऐसे में सहज सवाल- कौन है कोरोना से सुरक्षित? पढ़िए, कोरोना डायरी की इक्कीसवीं किस्त वरिष्ठ पत्रकार डॉ. संतोष मानव की कलम से।
महाराष्ट्र के औरंगाबाद से अल्लसुबह दिल दहला देने वाली खबर आई। मालगाड़ी ने 15 मजदूरों की जान ले ली। सभी रेल पटरी पर सोये हुए थे। महाराष्ट्र के किसी कोने से 40 किलोमीटर पैदल चल कर वहां तक पहुंचे थे। थके मादे वे रेल पटरी पर सो गये थे। इससे पहले लाक डाउन में फंसे कई ने पैदल चलते राह दम तोड़ दिया। यह है कोरोना काल की विभत्सता। पढ़ें इन्हीं प्रसंगों पर केंद्रित आज की कोरोना डायरी

कोरोना डायरी:  14

  • डा. संतोष मानव

मजदूरों का रेला रुक नहीं रहा। स्पेशल ट्रेन, बस के बावजूद पांव-पांव यात्रा जारी है। कोई साइकिल पर सौ वर्ष की मां को बैठाए, चला आ रहा। कोई  एक हाथ में थैला, एक हाथ में बच्चे को उठाए चल रही। दो-तीन बच्चे भी  आगे-पीछे चल रहे। सौ से हजार-दो हजार किलोमीटर पैदल। स्वर एक ही है- काम-धंधा बंद हो गया। पैसे थे नहीं। गाड़ी भी बंद। क्या करते, चल दिए पैदल। ऐसे ही अभागों में एक थे रवि मुंडा। जिला सरायकेला, राज्य झारखंड के निवासी। नागपुर में काम करते थे। काम-धंधा बंद। बस, ट्रेन बंद। कुछ दिन टिके रहे। फिर नागपुर से पैदल ही निकल पड़े। इस तेज धूप में दुखने लगे। पर, चलते रहे। टिकना चाहते भी तो टिकते कहाँ?  बिलासपुर के पास गिर पड़े। लोगों ने अस्पताल पहुंचा दिया। पर रवि बच नहीं पाए। चले गए।  अनंत यात्रा पर।

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सोचिए, पंद्रह सौ, दो हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा। साथ में बच्चे भी पांव-पांव।  कोई जत्था पंजाब से साइकिल पर बिहार के लिए निकला, कोई झारखंड, तो कोई कहीं और के लिए। बताते हैं कि बिहार के तीस लाख और झारखंड के पंद्रह लाख कामगार महानगरों को रौशन करते हैं। सच में कोरोना काल का लाक डाउन कामगारों के लिए सबसे ज्यादा कष्ट लेकर आया है। अपने घरों में कैद हम शहरी, प्रवासी मजदूरों की पीड़ा नहीं महसूस कर सकते- जाके पांव न फटे बिवाई, सो का जाने पीर पराई—–। जिस पर गुजरती है, वही बेहतर समझता है।

जिस देश में 38-40 फीसद आबादी गरीबी रेखा के नीचे हो, वहां लाक डाउन, सोशल डिस्टेंसिंग, सेनीटाइजर जैसे शब्द बेमानी हैं। एक छोटी-सी याद सुनिए। मेरा संस्मरण-  नया-नया नागपुर गया था। नया ढूंढने, नया करने, बंधी-बंधाई लीक से हटकर लिखने की लहर थी। उन दिनों टेलीविजन की दुनिया के मशहूर हस्ताक्षर पुण्य प्रसून वाजपेयी भी वहीं थे। संयोग से हम लोगों का ठिकाना भी एक ही था- लोकमत बैचलर्स फ्लैट। नागपुर में एक इलाका है। नाम- मोमिनपुरा। यह इलाका कभी सोता नहीं। रात भर जागता है।  खानपान के ठिए भी खुले रहते हैं।  मान लीजिए- सुबह के दो-तीन बजे तक। प्रसून वाजपेयी यारबाज हैं। अच्छा बंदा। नेकी कर दरिया में डाल वाला अंदाज है। कभी वे कहते- चलो, तुमको बिरयानी खिलाते हैं। कई दफा गया था उनके साथ। एक दिन मन में आया- यार ये मोमिनपुरा रात भर जागता क्यों है? मुझे इसमें कथा का प्लाट दिखा। लोकमत समाचार के मोमिनपुरा संवाददाता थे सलीम जहिर। मैंने सलीम से कहा कि मुझे एक आवारा की तरह मोमिनपुरा की गलियों में रातभर भटकना है। वह सहर्ष तैयार हो गए। अपन रात ग्यारह बजे पहुंच गए। सुबह तीन बजे लौट आए। उस समय होटलों की लाइट जल ही रही थी। चार घंटे गलियों में भटकते रहे हम। देखना-महसूस करना। सलीम से कोई परीचित टकरा जाए, तो दुआ-सलाम। ओह! अब भी याद है। बड़ी-बड़ी नालियों के किनारे छोटी-छोटी झोपड़ी, छोटे-छोटे घर। नाली पर लकड़ी के पटरे रखकर आने-जाने का रास्ता। धर के बाहर भी बिस्तर। कोई खटिया ,कोई सतह पर। नालियों पर या  रास्ते पर महिलाएं कागज की रंग-बिरंगी झंडी बना रही हैं। और भी कुछ-कुछ काम कर रहे हैं। मैंने सलीम से पूछा- ये लोग रात में घर के बाहर क्यों हैं? सलीम ने बताया- एक कमरे का घर। तीन भाई। सबके बाल-बच्चे, बूढ़ी मां। दिन में तो ठीक है, पर रात एक कमरे में कैसे कटे? भाइयों में चार-चार घंटे की शिफ्ट होती है भाऊ। और महिलाएं बाहर बैठकर जो काम कर रही हैं, उससे कुछ कमाई भी हो जाती है। समय भी कट रहा। ऐसी ही है जिंदगी।

मैंने कुछ लिखा- साफ्ट स्टोरी कह सकते हैं। अगले दिन का कार्यालय। अरे! मानवजी सुबह-सुबह रुला दिया। यह एक सहकर्मी थी। नागपुर की महापौर थीं- डॉ. कल्पना पांडे। कार्यालय आईं थीं- मानवजी। देखता सब कोई है, महसूस करने के लिए आप जैसी आंखें चाहिए। बहुत बढ़िया लिखा। सुबह से शाम तक- अरे, मानव, मानवजी। ये  संस्मरण इसलिए कि जिस देश में एक कमरे में चौदह लोग रहते हो, वहाँ सोशल डिस्टेंसिंग, होम क्वारंटाइन और सेनीटाइजर? अरे भाई, रोटी पहले कि सेनीटाइजर? लोहे की रोटी चबाने वालों के लिए कोरोना?  रिसर्च कीजिए- कोरोना से मरने वालों में दिहाड़ी मजदूर कितने हैं? कई राज खुलेंगे। नहीं, गलत न समझिए। यह विरोध नहीं, सच से सामना है!

रिसर्च कीजिए- कितने कोरोना से मरे और कितने भय, भूख, राह की पीडा़ और दुर्घटना से। यह संख्या भी बहुत कम नहीं होगी। ये हमारे कामगार इसके लिए अभिशप्त हैं। योजनाओं और राहतों की तमाम संख्या और दावों के बावजूद। छत्तीसगढ़ के बीजापुर की बारह साल की बच्ची जमलो की याद है?  जमलो गांव के लोगों के साथ कमाने-खाने तेलंगाना गई थी। लाक डाउन के बाद सब पैदल ही गांव के लिए निकल पड़े, तो जमलो भी चली। सौ किलोमीटर चल ली। अपने गांव से 14  किलोमीटर पहले चक्कर खाकर गिर पडी, चली गई। ऐसे ही सैकड़ों लोग मर-खप गए। हत्यारा किसे कहें? किस्मत, कोरोना या व्यवस्था? या सब को? हम हत्यारे!

मध्यप्रदेश के मुरैना के रणवीर को याद कीजिए। दिल्ली के एक रेस्टोरेंट में काम करते थे। कोरोना के कारण रेस्टोरेंट बंद हुआ। बस, ट्रेन बंद, तो पैदल ही मुरैना के लिए निकल पड़े। आगरा के पास चक्कर खाकर गिर पड़े। उपचार मिलने से पहले ही रणवीर की मौत हो गई। रवि, रणवीर, जमलो तो चंद उदाहरण हैं। हजारों-हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा में सैकड़ों मर-खप गए। हजारो-हजार ने नारकीय पीड़ा भोगी। अभी-अभी दूध के टैंकर में यात्रा करते पकड़े गए हैं कुछ लोग। कल्पना कीजिए दूध के बंद टैंकर में कैसी होगी यात्रा!

यह कोरोना, कितना गुस्सा, कितना क्रोध भरा है इसके प्रति। कभी-कभी तो हंसी भी आती है। आज एक खबर ने चेहरे पर मुस्कान की रेखाएं ला दी। आप भी सुनिए- आनलाइन विवाह। लड़की भोपाल में। लड़का देहरादून में। और शादी होगी। स्काइप, झूम आदि एप की मदद से। पंडितजी मंत्र आनलाइन पढ़ेंगे। आशीर्वाद आनलाइन। एप से आशीर्वाद। कभी सुना था ऐसा। सगाई हो चुकी है। बाद में शादी का रजिस्ट्रेशन करवा लेंगे। यह है कोरोना या लाक डाउन इफेक्ट।

रात के बारह बजे हैं। आगरा से एक पूर्व सहकर्मी का वाट्सएप मैसेज है। मैसेज पढ़कर चेहरे का रंग उड़ गया- एक वरिष्ठ मीडियाकर्मी की कोरोना से मौत। अस्पताल में भर्ती थे। नहीं रहे। दो दिन पहले एक मीडियाकर्मी की आत्महत्या की खबर आई थी। कोरोना इफेक्ट से छंटनी की आशंका थी। इसी भय में छोड़ दी दुनिया। कैसे-कैसे रंग दिखा रहा कोरोना।

अब चर्चा आम आदमी पार्टी के दिल्ली से विधायक संजीव झा की। झा जी मूलतः दरभंगा, बिहार के हैं। अब दिल्लीवाला हैं। तीसरी बार लगातार जीते हैं। दिल्ली विधानसभा में सबसे ज्यादा वोटों से जीतने वाले विधायक। संजीव झा की एक तस्वीर वायरल हो रही है। अपने इलाके में स्वतः छिड़काव कर रहे हैं। छोटी-सी मशीन के साथ गली-गली। आवश्यक या अनावश्यक? आप सोचिए- है न कोरोना इफेक्ट?

(लेखक दैनिक भास्कर, हरिभूमि, राज एक्सप्रेस के संपादक रहे हैं)

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