महामारी माने मरीज, मजदूर, मजबूरी, मौत,  मंदी और महंगाई

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महामारी माने मरीज, मजदूर, मजबूरी, मौत, मदी और महंगाई। महामारी कोरोनावायरस के असर को इन सात शब्दों के जरिये बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
महामारी माने मरीज, मजदूर, मजबूरी, मौत, मदी और महंगाई। महामारी कोरोनावायरस के असर को इन सात शब्दों के जरिये बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
  • दीपक कुमार

महामारी माने मरीज, मजदूर, मजबूरी, मौत, मदी और महंगाई। महामारी कोरोनावायरस के असर को इन सात शब्दों के जरिये बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। कोरोनावायरस जैसी वैश्विक बीमारी ने दुनिया के लगों को मरीज बनाया। मजदूरों पर शामत बन कर टूटी। मजदूरों को इस महामारी ने मजबूर कर दिया। मजदूरों की मजबूरी का आलम यह रहा वे रोजगार से बेदखल तो हुए ही, खाने के लाले पड़े तो भागने के साधन तक बंद। आखिरकार पैदल ही चल पड़े। रास्ते में मौत ने इनमें सौ से ज्यादा को अपना निवाला बना लिया। कारखानों में उत्पादन ठप होने से पैदा हुई मंदी ने सबसे बड़ा संकट रोजगार पर खड़ा किया। रोजी गयी, पर रोटी तो जरूरी है, लेकिन यहां महंगाई बिल्ली की तरह झपट पड़ी।

महामारी कोरोनावायरस ने दुनिया में तकरीबन 4200000 लोगों को बीमार बना दिया है। तकरीबन तीन लाख लोगों को मौत का निवाला बना दिया। समृद्धि के मामले जिस तरह अमेरिका दुनिया में अव्वल है, ठीक उसी तरह इस महामारी के असर में भी वह अव्वल है। दुनिया के टॉप टेन समृद्ध देशों में इस बीमारी का सर्वाधिक असर है। भारत में भी महामारी कोरोनावायरस 70000 लोगों को चपेट में लिया है। दो हजार से ज्यादा लोगों ने तो इसकी चपेट में आकर दम ही तोड़ दिया। आंकड़ों का यह खेल किसी एक स्तर पर स्थिर होता नहीं दिख रहा है। आंकड़े पल-पल बदल रहे हैं। रोज-रोज संख्या बढ़ती जा रही है। यानी इस महामारी का असर मरीज और मौत के रूप में साफ-साफ दिख रहा है।

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बीमारी से जो मौतें हुईं, वे अपनी जगह हैं, पर बीमारी के कारण उत्पन्न हुई स्थितियों के कारण 100 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। कहीं किसी की भूख से मौत हुई तो कहीं भागते-गिरते-पड़ते कुछ ने दम तोड़ दिया। कहीं रेल पटरियों पर कोई कटा, तो कुछ सड़क दुर्घटनाओं के शिकार हुए। यानी बीमारी ने तो जानें ली हीं, इससे उत्पन्न हालात ने भी लहू पीये। ऐसी मौतें उन लोगों की हुईं, जो मजदूर थे। पेट और परिवार पालने की मजबूरी में वे बाहर गए थे। महामारी कोरोनावायरस से हुए देशव्यापी लॉक डाउन में ये जहां-तहां फंस गए। रोजगार बंद हुआ तो रोटी पर संकट आ गया। जब हालात बेकाबू हुए तो ये पैदल ही घरों की ओर चल पड़े। लेकिन जिस मजबूरी के कारण इन्होंने घर से बाहर जाने और बाहर से घर लौटने का कदम उठाया, वह था रोटी का संकट और यही संकट उनके सामने मौत बनकर खड़ी हो गयी। जाहिर है मौत के बाद मातम होता है मर्सिया गाये जाते हैं। इसलिए सरकारों के साथ समाजसेवियों ने इनके लिए मर्सिया गान किया।

चलिए, मजदूर तो मजबूर होते ही हैं। चाकरी को हमारे पुरखों ने भी निकृष्ट माना था। तभी तो कहा- उत्तम खेती, मध्यम बान, निसिध चाकरी, भीख निदान। इन्होंने निसिद्ध मार्ग ही चुना तो इसके अच्छे अंजाम की उम्मीद ही बेमानी है। अब आते हैं मंदी की ओर। यह स्थिति इसलिए आई कि लॉक डाउन में सारे कल-कारखाने ठप्प पड़ गये। आमदनी के स्रोत भी सूख गए। जब ग्राहकी ही नहीं तो उत्पादन का कोई मतलब ही नहीं। ग्राहकी तो तभी आएगी, जब अंटी में दाम होंगे। दोनों ही स्थितियां नहीं हैं लॉक डाउन के कारण। इसलिए मंदी का दौर सिर चढ़कर बोलने लगा। यह सिद्ध सवाल है कि जब भी मंदी आती है, बेरोजगारी की बात शिद्दत से होती है। वेतन में कटौती, नौकरियों से छंटनी, नई नियुक्तियों पर रोक इसके प्रमुख लक्षण हैं।

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संयुक्त राष्ट्र संघ से संबद्ध विश्व पर्यटन संगठन की रिपोर्ट है कि सिर्फ पर्यटन क्षेत्र में ही दुनिया में 12 करोड़ नौकरियां खतरे में हैं। उड्डयन क्षेत्र (एविएशन सेक्टर) में भी तकरीबन आधे लोगों की छंटनी की बात चल रही है। सैन्य क्षेत्र में साढ़े छह हजार पद सरकार ने समाप्त कर दिये हैं। बाकी सेक्टर के भी इसी तरह के अनुमान आ रहे हैं। ऊपर से महंगाई कमर पर चोट का एहसास कराने लगी है। महामारी ने ऐसी विकट स्थिति पैदा की है कि रोजमर्रा की जरूरी चीजों के दाम बेतहाशा बढ़ गये। यानी महामारी की कोख से महंगाई ने जन्म ले चुकी है। डीजल-पेट्रोल के जो दाम बढ़े हैं, उसका असर अभी भले महसूस न हो, पर लॉक डाउन खत्म होते ही यह रंग दिखाने लगेगा। परिवहन महंगा होगा तो सामान के दाम स्वाभाविक रूप से बढ़ेंगे। तत्काल एक असर ट्रेनों के किराये में वृद्धि है। सामान्य से ड्योढ़ा किराया चुका कर लोग चलने लगे हैं।

(लेखक पश्चिम बंगाल में डीग्री कालेज के असिस्टैंट प्रोफेसर हैं)

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