देहरादून। डॉ श्वेताभ सुमन ने CBI कोर्ट के आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि CBI कोर्ट का आदेश गलत है। यह पूर्वाग्रह से प्रेरित है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट के ही दिशानिर्देशों को नजरंदाज करता है।
चर्चित आयकर आयुक्त डॉ श्वेताभ सुमन ने नैनीताल हाईकोर्ट में दायर अपनी अपील (164/2019) में निचली अदालत द्वारा इनके पक्ष के अति महत्वपूर्ण दस्तावेजों की अनदेखी करने का आरोप लगाया है। डॉ श्वेताभ सुमन पर आय से अधिक सम्पति (यानी बेनामी सम्पति) का मामला CBI कोर्ट देहरादून में लंबित थाl।
उन्होंने अपनी अपील में यह बात स्पष्ट रूप से लिखा है कि निचले कोर्ट का आदेश गलत है, क्योंकि जब सीबीआई ने खुद ही कोर्ट में पारा नंबर 223 में यह स्वीकार कर लिया है कि उनका किसी अन्य व्यक्ति से पैसे का लेनदेन कभी हुआ ही नहीं, तो फिर माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अलोक में इन पर बेनामी सम्पति का कोई केस बन ही नही सकताl। यह साफ साबित करता है कि निचली अदालत का निर्णय गलत हैl
संबंधित सीबीआई अधिकारी ने अपने कुल 230 पारा के कोर्ट के समक्ष स्वीकारोक्ति में पारा नंबर 223 में यह स्पष्ट स्वीकार किया- यह सही है कि श्वेताभ सुमन का अपने किसी पारिवारिक सदस्य या किसी अभियुक्त से किसी पैसे के लेनदेन का कोई दस्तावेज या बैंक ट्रांजेक्शन (लेनदेन) का दस्तावेज इस पत्रावली में नहीं है, क्योंकि वह मुझे नही मिले थे।
इतना ही नहीं, पारा नंबर 200 में भी सीबीआई के अधिकारी ने कोई साक्ष्य नहीं मिलने को माना है। अधिकारी ने लिखा है- *”सर्च के दौरान मुलजिम श्वेताभ सुमन का दूसरे मुलजिमों से नगद पैसे का लेनदेन या पैसे के ट्रांसफर के बाबत कोई दस्तावेज नहीं मिला, जिससे यह साबित हो कि उसका लेनदेन अन्य मुलजिमो से हुआ है। यह ठीक है कि किसी प्रापर्टी के खरीद फरोख्त के डाक्युमेंट में श्वेताभ सुमन का नाम नहीं थाl।
CBI कोर्ट के समक्ष इन स्वीकारोक्तियों के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि श्वेताभ सुमन पर झूठा केस बनाया गया एवं साजिश के तहत उनको फंसाया गया। सीबीआई न्यायालय के इतिहास में शायद यह पहला केस होगा, जिसमें बिना किसी अकाट्य साक्ष्य के एक अधिकारी के साथ-साथ अन्य दो और लोगों को भी सजा दी गई। यह निर्णय न्यायालय के तौर तरीकों पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह उठाता हैl
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उन्होंने सलाह दी है कि उचित होगा कि न्यायालय में भी जुडिसियल ऑडिट की परंपरा बनायी जाये, जिसे सार्वजनिक किया जाये, ताकि निर्दोषों को सजा देने के पहले न्यायालय सौ बार सोचे। कोर्ट के दस्तावेज की न्यायालय अनदेखी नहीं कर सकता, यह माननीय सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है। पर, सीबीआई कोर्ट, देहरादून ने अभियुक्त के पक्ष के अति महत्वपूर्ण दस्तावेजों को ही नजरअंदाज कर दिया, जो पूरे निर्णय को ही सवाल के घेरे में खड़ा कर देता है।
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