- प्रेमकुमार मणि
एक नेता, जो न हिंदी जानता है, और न अंग्रेजी। जिसने बस छठी कक्षा तक की पढ़ाई की हुई है और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लगभग सर्वसम्मत रूप से प्रधानमंत्री मान लिया जाता है, लेकिन जो यह कह कर इनकार कर देता है कि मैं न हिंदी बोल सकता हूँ, न अंग्रेजी, इसलिए मुझे काम करने में असुविधा होगी। वह इस पद को ग्रहण करने से इनकार कर देता है। वह अपने होते दो प्रधानमंत्रियों- लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी- के चुनाव में निर्णायक भूमिका अदा करता है और जब मरता है, तब उसके पास बस तीन जोड़ी कपड़े और सौ रुपये मिलते हैं। मृत्यु के बाद उसे भारत रत्न से नवाजा जाता है।
आज अपने घरेलू किताबी-जमावड़े को ढूँढ़ते एक किताब मिली- “Kamraj : The Iron man”। एक आईसीएस अधिकारी आरपी कपूर की लिखी यह किताब कोई चालीस या पैंतालीस साल पहले पढ़ी थी, और अत्यंत जीर्ण अवस्था में इसे आज देखने पर थोड़ा दुःख भी हुआ। लेकिन कामराज एक दफा मेरी स्मृतियों में कौंध गए। उनका जमाना भी झिलमिल ही सही, याद आया।
कामराज उन नेताओं में एक हैं, जिन्हे अपने बचपन में देख सका हूँ। पिता जी कांग्रेस की राजनीति से जुड़े थे। उन्हीं के साथ होने के कारण कामराज को नजदीक से देख सका था, बल्कि उन्हें छू भी सका था। उसकी एक झीनी स्मृति है। लेकिन तब मैं उनका महत्व बिलकुल नहीं जानता था।
मैं नहीं जानता आज की पीढ़ी उन्हें कितना जानती है। लेकिन, वह कई रूपों में आज याद करने लायक हैं। खास कर कांग्रेस से जुड़े लोगों को उनसे सीख लेनी चाहिए। उन लोगों को भी सीख लेनी चाहिए, जो लगातार कई दफा मुख्यमंत्री बने, लेकिन यह नहीं जान सके कि मुख्यमंत्री बनना क्या होता है। कपडे बदलना और अपनी कोठी सजाना ही अधिकतर मुख्यमंत्रियों का व्यसन है। ऐसे लोगों के लिए कामराज को जानना ज्यादा जरूरी है।
कामराज दक्षिण भारत के नेता थे। तमिलनाडु, उन दिनों मद्रास कहा जाता था। जो लोग इस राज्य की राजनीति से परिचित होते हैं, वे वहाँ के ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन से भी परिचित होते हैं। लेकिन अभी मैं उस आंदोलन की कथा नहीं बतलाऊंगा। मुझे कामराज पर बात करनी है, जो वहाँ के कांग्रेस नेता थे। आज उस प्रान्त में कांग्रेस का कोई प्रभावी वजूद नहीं है, लेकिन कभी था। इसकी कहानी दिलचस्प है। लेकिन यह फिर कभी। अभी तो बस कामराज।
कामराज का जन्म 15 जुलाई 1903 को मद्रास के एक पिछड़े हुए गाँव में हुआ, जो विरूधनगर इलाके में था। नाडारों का परिवार। नाडार जाति हमारे उत्तर भारत में पासी कही जाती है। बचपन का नाम था कामची, जो बाद में कामराजार और अंततः कामराज हो गया। पिता कुमारसामी का नाम आरम्भ में जुड़ कर कुमारसामी कामराज हो गया। कोई दस किलोमीटर पैदल चल कर स्कूल जाना होता था। लेकिन दादा और पिता की अचानक मौत से दादी, माँ और एक बहन को सँभालने की जिम्मेदारी बालक कामराज पर आ गयी और नतीजतन स्कूल छोड़ना पड़ा। तब वह छठी जमात में थे। मुश्किलों का अनुमान बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन कामराज ने स्वाध्याय से घरेलू पढ़ाई जारी रखी। वह अखबार पढ़ते और देश-दुनिया की खबरों से वाकिफ होते। जालियांवाला बाग़ की घटना ने कामराज को बहुत परेशान किया। कुछ ही समय के बाद तय कर लिया कि आजादी की लड़ाई में शामिल होऊंगा। 1921 के सितम्बर महीने में गांधी मदुरै आये। 21 तारीख थी। कामराज ने उनसे मिलने की जिद की और मिले। इस तरह मिले कि उनके पूरे व्यक्तित्व को आत्मसात कर लिया। सादगीपूर्ण जीवन और समाज सेवा उनका हमेशा के लिए आदर्श बन गया।
उनका कोई आधार नहीं था। न धन, न शिक्षा-दीक्षा। राजाजी जैसे नेताओं के साथ काम करना आसान नहीं था। लेकिन कामराज लगे रहे। ब्राह्मण विरोधी आंदोलन का एक अलग पाखंड था। दरअसल यह खाते-पीते बिचौलिया जातियों का शगल था, जिसके नेता जस्टिस पार्टी के लोग थे। इन सब में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष का अभाव था। इसलिए कामराज इनसे अलग रहे। 1936 में वह मद्रास कांग्रेस कमिटी के सचिव बन गए और 1939 में प्रांतीय कांग्रेस के अध्यक्ष। राजगोपालाचारी के कांग्रेसी ब्राह्मणवाद से उनकी अंदरूनी लड़ाई चलती रही। इसकी एक झांकी उन्होंने 1950 में ही रखी थी, जब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में राजाजी के उम्मीदवार को 99 के विरुद्ध 150 वोटों से पराजित कर वह अध्यक्ष चुने गए। कामराज ने पार्टी पर पकड़ इतनी मजबूत कर ली कि 1954 में राजगोपालाचारी को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा और अप्रैल 1954 में कामराज मुख्यमंत्री चुने गए।
कामराज ने अपने मुख्यमंत्री काल के पल-पल का इस्तेमाल किया। राजाजी ने शिक्षा में गाँधीवादी अवयवों का खतरनाक इस्तेमाल किया था। बुनियादी शिक्षा के नाम पर जातिगत पेशों को बल दिया जा रहा था। जो छात्र जिस जाति का होता था, कौशल विकास के नाम पर उसे वैसी ही शिक्षा दी जाने की योजना थी। इसे ‘आनुवंशिक शिक्षा योजना’ कहा जाता था। अभी मोदी सरकार ने जो नई शिक्षा नीति बनाई है, इसमें भी कुछ ऐसी बातें हैं। कामराज ने आते-आते इस शिक्षा नीति को खत्म किया। वह बिना किसी पूर्व सूचना के दूरस्थ इलाकों का निरीक्षण करते रहते थे।
एक बार उन्होंने देखा कि कुछ बच्चे खेतों में काम कर रहे हैं। उन्हें अपना बचपन याद आया। उन बच्चों को बुला कर बात की। बच्चों ने कहा कि नहीं काम करेंगे, तब खाएंगे क्या। मुख्यमंत्री दफ्तर लौटे। कैबिनेट बुलाया और मिड डे मिल यानी मध्यान्न भोजन योजना को अपने प्रदेश में लागू किया। ब्रिटेन के बाद मद्रास प्रान्त मध्यान्न भोजन योजना को लागू करने वाला दुनिया में दूसरा इलाका बना। पूरे भारत में इस योजना को बहुत बाद में लागू किया गया। कामराज ने 1954 में ही इसे लागू कर दिया था। बाद में उन्होंने छात्रों के लिए पोशाक-योजना भी लागू किया। हर एक के लिए अधिकतम तीन किलोमीटर पर स्कूल और हर पंचायत में हाई स्कूल उन्होंने बहुत कम समय में संभव किया। कामराज ही थे, जिन्होंने सिंचाई और बिजली को पूरे प्रदेश में संभव कर दिया। इन सब कार्यों में उन्हें बस पांच से छह साल लगे।
1962 में उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू से मिल कर बता दिया कि मुख्यमंत्री के रूप में मेरा काम ख़त्म हो गया है। अब मैं पार्टी संगठन का काम करना चाहूँगा। 2 अक्टूबर 1963 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा कर दिया। उनके प्रभाव में छह मुख्यमंत्रियों और छह कैबिनेट मंत्रियों ने भी इस्तीफा किया। इसे कामराज योजना कहा गया। कामराज ने मद्रास (1969 से तमिलनाडु) कांग्रेस के अध्यक्ष रूप में ही काम करने की इच्छा जताई थी। लेकिन नेहरू के जोर पर उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। 9 अक्टूबर 1963 को उन्होंने कांग्रेस आलाकमान का कार्यभार संभाला। कांग्रेस तब काफी कमजोर हो गयी थी। पिछड़े और उपेक्षित सामाजिक समूहों से कांग्रेस को जोड़ने का आरम्भ उन्होंने ही किया। आदिवासी, दलित और दूसरे पिछड़े तबके के लोगों को कांग्रेस से जोड़ने की विशेष पहल की गयी।
मई 1964 में नेहरू की अचानक मृत्यु हो गयी। मोरारजी इस पद के लिए जोर लगाए हुए हुए थे और अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे। उनकी लॉबी भी मजबूत थी। कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री बनवाया। शास्त्री जी की मौत के बाद फिर एक बार उहापोह हुआ। इंदिरा गाँधी का चुनाव कामराज का था। वोटिंग की नौबत हुई, लेकिन मोरारजी को भान हो गया था। उन्होंने इंदिरा के नाम पर सहमति दे दी। आंतरिक चुनाव टल गया।
कामराज का मद्रास छोड़ना कांग्रेस के लिए महँगा पड़ा। कहा जाता है, उनके ही द्वारा हुए बिजलीकरण से कस्बों तक में सिनेमा हाल खुल गए थे। इन सिनेमा हालों से डीएमके के फ़िल्मी नेता काफी लोकप्रिय हो गए थे। 1965 में संविधान के पंद्रह साल पूरे हो रहे थे। राजभाषा के रूप में अंग्रेजी की मियाद पूरी हो रही थी। हिंदी को पूरे देश में राजभाषा के रूप में लागू किये जाने की चर्चा उठी। दक्षिण में इसे लेकर विरोध हुआ। इस विरोध ने आंदोलन का रूप ले लिया। अखिल भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कामराज ने दो कार्यकाल पूरे कर लिए थे। उनकी योजना प्रांतीय राजनीति में लौट जाने की थी। 1967 में उन्होंने अपने इलाके विरूधनगर से असेंबली चुनाव लड़ा और एक छात्र पी सिनिवास से पराजित हो गए। भाषा मामले पर हिंदी का पक्ष लेना उन्हें महँगा पड़ा। उन्होंने तुरंत कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा कर दिया। बाद में उपचुनाव में वह लोकसभा के लिए चुने गए। इंदिरा गाँधी की राजनीति से भी टकराव हुआ और वह संगठन कांग्रेस के साथ रहे। 1971 का लोकसभा चुनाव जीता। इंदिरा गाँधी ने उन्हें अपनी राजनीति से जुड़ने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। गांघी जयंती 2 अक्टूबर 1975 की सुबह वह उठे नहीं। सोये हुए ही उन्हें हृदयाघात हुआ और दिवंगत हो गए।
जानकारी यही है कि मृत्यु के बाद उनके पास संपत्ति के रूप में तीन जोड़ी कपडे और सौ रुपये नकद थे। भारत सरकार ने मृत्युपरांत उन्हें भारतरत्न का ख़िताब दिया।