रामविलास पासवान आज पंचतत्व में विलीन हो गये, लेकिन कई लोगों के लिए कई यादें छोड़ गये हैं। कोई उनकी सज्जनता तो कई लोग उनकी कार्य प्रणाली की चर्चा करते हैं। इसी क्रम में पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर की राम विलास पासवान के बारे में कुछ यादेंः
- सुरेंद्र किशोर
पहली बार मैंने सन 1969 में रामविलास पासवान का नाम सुना था। सिर्फ इसलिए नहीं कि वे संसोपा के विधायक बनकर पटना आए थे। बल्कि इसलिए कि आते-आते वे संसोपा विधायक दल के नेता पद के उम्मीदवार बन गए थे। 1969 में बिहार विधानसभा का मध्यावधि चुनाव हुआ था। उसमें संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के 50 से अधिक विधायक चुन कर आए थे।
संसोपा विधायक दल के नेता पद का चुनाव हो रहा था। रामानंद तिवारी और धनिकलाल मंडल के अलावा राम विलास पासवान भी उम्मीदवार थे। आश्चर्य हुआ। उस दल में तब नेताओं के वरीयता व कृतित्व पर अधिक ध्यान दिया जाता था। स्वाभाविक ही था, पासवान जी बुरी तरह हारे। तिवारी जी जीत गए। पर पासवान जी लोगों की नजरों में जरूर आ गए। 1977 में लोकसभा में शून्य काल का बेहतर इस्तेमाल करके जिस तरह देश भर की नजरों में पासवान जी आ गए, उससे पहले 1969 में नेता पद का चुनाव लड़कर बिहार संसोपा की नजरों में आ गए थे।
1972 में उनके विधानसभा चुनाव हारने तक मैं उनसे नहीं मिला था। पर 1972 में वे खुद मेरे पास आए। तब मैं एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था। मैं कर्पूरी जी के पटना के वीरचंद पटेल पथ स्थित बंगले में ही रहता भी था। वहां मेरा एक छोटा कमरा था। राम विलास जी अक्सर मेरे पास आकर घंटों बैठते थे। उनकी दो बातें मुझे याद हैं। एक तो वे गीत गाते थे। दूसरी बात अधिक महत्वपूर्ण थी।
दक्षिण भारत के दलित नेता रामास्वामी नायकर की बातें खूब बताते थे। वे नायकर से प्रभावित लगे। शालीन व्यवहार के धनी रामविलास जी दोस्तपरस्त व्यक्ति थे। वे चाहते थे कि मैं अपने खास दोस्तों को क्या दे दूं! जब वे सांसद व केंद्र में मंत्री होने लगे तो उनसे मेरा संपर्क नहीं रहा। तब तक यानी 1977 में मैं मुख्य धारा की पत्रकारिता में आ चुका था।
वी.पी. सिंह मंत्रिमंडल के श्रम मंत्री के रूप में उनसे मुझे अपना एक काम कराना था। दैनिक ‘आज’ से जब मैं जनसत्ता में गया तो पी.एफ. का मेरा पैसा नए खाते में लाख कोशिश के बावजूद ट्रांसफर नहीं हो रहा था। पहले के श्रम मंत्री ने तो मुझे घास तक नहीं डाली। जबकि मैं देश के एक ‘‘बोखार छोड़ाऊ’’ अखबार ‘जनसत्ता’ का बिहार संवाददाता था। वह मंत्री भी बिहार से ही थे।
नए श्रम मंत्री राम विलास पासवान को मैंने अपने पी.एफ. के संबंध में एक पत्र मामूली डाक से भेज दिया। मैं इस दुविधा में था कि शायद पत्र उन तक पहुंचे या नहीं पहुंचे! पर कमाल देखिए। पत्र के पहुंचते ही पासवान जी ने मुझे तीन चिट्ठियां लिखीं। सिर्फ यह सूचित करने के लिए कि आपका काम जल्द ही हो जाएगा। एक पत्र मेरे पटना आफिस के पते पर। दूसरा पत्र मेरे पटना आवास के पते पर। तीसरा पत्र हमारे संपादक प्रभाष जोशी के केअर आफ में। काम तुरंत हो गया।
उसकी खबर व संदर्भ देते हुए फिर तीन पतों पर तीन चिट्ठियां उन्होंने भेजीं। उसी तरह पी.एफ. कार्यालय से भी मुझे उन्हीं तीन पतों पर अलग-अलग पत्र भिजवाए। ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि मैं जनसत्ता में था। श्रम मंत्री आमतौर अखबार वालों को बहुत भाव नहीं देते। क्योंकि अनेक अखबार मालिक ही उनके कृपाकांक्षी होते हैं। मैंने तब ही सुना था कि इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक अरूण शौरी ने प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह से यह कहा था कि आपके श्रम मंत्री यानी पासवान जी तो मुझे एप्वांटमेंट ही नहीं दे रहे हैं।
पासवान जी जब रेल मंत्री बने तो उन्होंने मुझे मेरी पूर्व सहमति के बिना रेलवे की हिन्दी सलाहकार समिति का सदस्य बना दिया। मैंने भारी मन से उन्हें अपना इस्तीफा भेज दिया। आभार प्रकट करते हुए उन्हें मैंने लिखा कि 1977 में मुख्य धारा की पत्रकारिता में आने के बाद ही मैंने यह तय कर लिया कि जब तक पत्रकारिता में रहूंगा, कोई सरकारी समिति, पद या उपहार आदि स्वीकार नहीं करूंगा।
राम विलास पासवान की ‘राजनीति’ तथा उनकी उपलब्धियों-विफलताओं की चर्चा करने का अवसर बाद में आएगा। अभी इतना ही कहूंगा कि राजनीति में जो लोग हैं या आते रहते हैं, वे पासवान जी से शालीनता, विनम्रता सीखें, यदि उनमें इन गुणों की कमी है। वे ऐसी सामाजिक पृष्ठभूमि से आते थे, जिसके सदस्य में उत्पीड़क लोगों के लिए गुस्सा स्वाभाविक है। पर, मैंने देखा कि 1972 में जिसके मन में रामास्वामी नायकर के प्रति आदर का भाव था, उस पासवान जी में बाद के वर्षों में किसी अन्य समुदाय के प्रति जलन-गुस्सा का कोई भाव नहीं देखा गया। साथ ही, नए लोग सदस्य बनने पर वे संसद या विधान सभा के ‘जीरो आवर’ और ‘आधे घंटे के डिबेट’ की सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल करना सीखें।