बांग्ला उपन्यास की यात्रा उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में आरंभ हुई

0
1561
बांग्ला उपन्यास की यात्रा उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में आरंभ हुई। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय से बांग्ला उपन्यास को जीवन मिला था।
बांग्ला उपन्यास की यात्रा उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में आरंभ हुई। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय से बांग्ला उपन्यास को जीवन मिला था।
  • कृपाशंकर चौबे

बांग्ला उपन्यास की यात्रा उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में आरंभ हुई। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय से बांग्ला उपन्यास को जीवन मिला था। उनके उपन्यास के पात्र ऊंचे वर्ग के थे। शरतचंद्र के उपन्यासों में निचले वर्ग की महिलाओं के जीवन का थोड़ा भाष्य मिलता है। शैलजानंद मुखोपाध्याय, प्रबोध कुमार सान्याल, नरेशचंद्र सेनगुप्त और जगदीशचंद्र के उपन्यासों में भी दलित पात्र उपस्थित हुए हैं। मानिक बंद्योपाध्याय, ताराशंकर बंद्योपाध्याय और विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के उपन्यासों में भी दलित पात्र आए हैं किंतु दलितों की वह खंडित उपस्थिति है। दलित जीवन की समग्र उपस्थिति तो बांग्ला उपन्यास में पहली बार ‘तितास एकटि नदीर नाम’ में ही दर्ज हुई। ‘तितास एकटि नदीर नाम’ बांग्ला का पहला दलित उपन्यास है। इसके लेखक अद्वैत खुद दलित मालो समुदाय से थे। 1956 में जब यह उपन्यास छपा था, तब तक अद्वैत मल्लबर्मन की मात्र सैंतीस साल की उम्र में अकाल मौत हो चुकी थी। वर्ण व्यवस्था और उसके भीतर से पैदा होनेवाली सामाजिक विकृतियों का मुखर प्रतिरोध इस उपन्यास को नया परिप्रेक्ष्य देता है।

बंगाली समाज में मौजूद ‘छुआछूत’ और ‘जातिप्रथा’ के तमाम मार्मिक प्रसंग इस उपन्यास को व्यापक फलक और व्यापक परिप्रेक्ष्य की कथाकृति बनाते हैं। पहली बार इतनी रचनात्मक अनिवार्यता के साथ किसी उपन्यास में दलित को शामिल किया गया है। दलित के साथ क्या कुछ घटित हो रहा है और वह कितना भयावह है, इसे लेखक ने गहरी चिंता और गहरी संलग्नता से चित्रित किया है। उपन्यासकार ने बड़ी नावों के साथ छोटी नावों की दुर्दशा को दिखाते हुए ब्राह्मण-संस्कृति के समानांतर दलित-संस्कृति का अत्यन्त सजीव और संगीतमय चित्रण किया है। मालोपाड़ा के दलित दु:ख और दरिद्रता के बीच भी अपने गीत-संगीत और लोक संस्कृति को नहीं भूलते। कभी जाल पर नजरें टिकाए मालो युवक तान छेड़ता है-

- Advertisement -

पहले थी ब्राह्मण की बेटी

करती थी शिवपूजा

पड़ी प्रेम में मछुआरे के

कैसे कटे पाट की डोरी

हाय रे क्या यही था मेरे नसीब में

इसी तरह औरतें गाती हैं-

सखी हे, बिछ गई है फूलों की सेज

काला चाँद तो अब तक नहीं लौटा।

उपन्यास में धनी दलितों द्वारा गरीब दलितों के शोषण का प्रसंग दिल दहला देनेवाला है। सुबल जब कालोबरन बैपारी के यहां नौकरी करने जाता है और उसकी नाव लेकर मछली पकड़ने जाता है तो नाव तूफान में फंस जाती है और कालोबरन सुबल को आदेश देता है, ‘लग्गी के सहारे कूदकर तीर पर पहुंच जाओ। फिर उसे धक्का देकर नाव को बचाओ। तुम्हारे साथ-साथ हम भी आ रहे हैं।’ सुबल उनके आदेशानुसार नाव से कूदकर किनारे पर उतर गया लेकिन डर के मारे और कोई नहीं उतरा। सुबल ने लग्गी के एक सिरे को नाव की तरफ बढ़ाया और अपने कंधे से धकेलना शुरू किया जिससे नाव की गति कुछ कम हो जाए लेकिन वह पूरी तरह रोक नहीं पाया। किनारे पर ढलान थी। नाव तेजी से आई और किनारे पर चढ़ गई। सुबल उसके नीचे दबकर इस तरह पिसा कि फिर उठने का सवाल ही नहीं बचा। उसकी बऊ बसंती सोचती कि मालिक के असंगत आदेश पर एक मजबूर नौकर ने उसका पालन करने के लिए खुद को मौत के मुंह में क्यों झोंक दिया? उपन्यास का एक अन्य मार्मिक प्रसंग है, दो दलित बूढ़ों-नित्यानंद और गौरांग द्वारा किशोर की माला-बदल बऊ को पुत्री मानकर अपने यहां आश्रय दिए जाने का। किशोर की माला-बदल बऊ जब दुर्दिन की एक रात बड़ी नदी में मरणासन्न पड़ी थी तो नित्यानंद और गौरांग ने उसे अपने यहां आश्रय दिया।

उपन्यास में जाति चले जाने का प्रसंग बहुत रोचक है। अनजाने में एक व्यक्ति की जाति चली जाने की कथा सुनकर रमू दुःखी हो जाता है। यह कथा गीत के रूप में इस प्रकार है-

हाथ में लाठी

और कंधे पर छाता लेकर

बुरुज दीर्घ प्रवास पर चल पड़ा।

गीत के अनुसार बुरुज चलते-चलते थक गया। उसे भयंकर प्याल लग गई। वह पानी की तलाश में इधर-उधर देखने लगा। सहसा उसे एक घर दिखा। लिपा-पुता, द्वार पर चंदन के छींटे, जरूर किसी ब्राह्मण का होगा। खुद ब्राह्मण होने के कारण एक ब्राह्मण का घर पहचानने में बुरुज को देर नहीं लगी। उसने कदम आगे बढ़ाकर आवाज दी-अरे भाई गृहिणी घर में हो तो पानी ले आओ। बहुत प्यास लगी है। प्रवासी प्यास से मरा जा रहा है। गीत की आगे की पंक्तियां हैं-

दाहिने हाथ में जल की कलसी

बाएं में पान का बीड़ा

कन्या चली पानी पिलाने।

बुरुज पानी पीकर तृप्त हो गया। उसने कन्या से पूछा-तुम्हारी जाति क्या है? हम लोग गंध भुईं माली (निचली जाति की माली) हैं। इतना सुनते ही बुरुज पछाड़ खा-खाकर रोता है-मां-बाप तक मेरी खबर पहुंचा देना। भुंईमालियों के घर मेरी जाति चली गई। इस कथा से दुःखी होकर रमू ने बड़े मिस्त्री से पूछा-प्यास लगी, एक गिलास पानी पी लिया और जाति चली गई? जाति चली गई, इस बात को बुरुज ने कैसे जाना? यह सवाल उपन्यास में एक चीख बन जाता है। उपन्यासकार ने अपने मालो समुदाय की भाषा के प्रयोग, गीतों व मुहावरों के प्रयोग द्वारा कथा को अत्यन्त प्रवाही और प्रभावपूर्ण बनाने की सफल चेष्टा की है। नदी किनारे गांवों के जीवन संघर्ष और बोली-बानी पर लेखक की गहरी पकड़ है जो उसे दृश्यमान बनाए रखती है।

‘तितास एकटि नदीर नाम’ के बाद बांग्ला के उल्लेखनीय दलित उपन्यास हैं-‘पितृगण’ (समरेंद्र वैद्य), ‘कलार मंदास’ (ब्रजेन मल्लिक) और ‘मानुषेर रंग’ (ज्योतिप्रकाश चट्टोपाध्याय)। इसके साथ ही जो बांग्ला दलित उपन्यास मील का पत्थर साबित हुए हैं, वे हैं-‘उजानतलीर उप कथा’ (दो खंड), ‘बसत हारिए जाय’, ‘खोमा नेई’, ‘माटी एक माया जाने’ और ‘मुकुलेर गंध’। ‘उजानतलीर उप कथा’ के लेखक हैं कपिलकृष्ण ठाकुर, ‘बसत हारिए जाय’ के लेखक हैं श्यामल कुमार प्रामाणिक, ‘खोमा नेई’ के लेखक हैं- नकुल मल्लिक, ‘माटी एक माया जाने’ के लेखक हैं- महीतोष विश्वास और ‘मुकुलेर गंध’के लेखक हैं-अनिल घड़ाई।

‘उजानतलीर उप कथा’ का पहला खंड 2000 में और दूसरा खंड 2011 में आया। बांग्ला समाज में शूद्रों के जीवन संग्राम पर केंद्रित यह उपन्यास बंगाल के विभाजन के बाद बदले हुए परिवेश और एक समूची जाति के सामने खड़े हुए संकट को पूरी मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त करता है। दलितों के दैनंदिन जीवन, उनके सुख-दुःख का इतिहास, उनकी पूजा-अर्चना, कुसंस्कार, सामाजिक-राजनीतिक जीवन का सांगोपांग विवरण इस उपन्यास में है। उपन्यास के आरंभ में ही लेखक ने बता दिया है कि उजानतली व उसके आस-पास प्रायः पचास गांव जिनके पसीने, खून, स्वप्न तथा प्रेम से बने थे, वे सभी शूद्र थे। अभिजात्य वर्ग इन्हें चांडाल कहकर बुलाता था। इनकी जो पुरोहिती करते थे, उन ब्राह्मणों को भी दया की दृष्टि से देखा जाता था। ऊंचे समाज में उनकी भी हेठी होती थी। शुरू में ही पाठक का परिचय काजल से हो जाता है। काजल के पहली बार स्कूल जाने का विवरण है। फिर किशोर से उसकी मित्रता, क्लास में पढ़नेवाले दूसरे लड़कों-लड़कियों का विवरण भी है। मेलों का वृत्तांत है तो गीत-संगीत का भी। लेकिन तभी उस जीवन को नजर लग जाती है। 1947 में देश विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल से भारी संख्या में लोगों का पलायन शुरू हुआ। सबका गंतव्य था पश्चिम बंगाल। बनगांव, बगुला, रानाघाट, कृष्णनगर से लेकर हिली स्टेशन तक तिल रखने की भी जगह नहीं। सारे रेलवे स्टेशन शरणार्थियों से अटे पड़े। बीच-बीच में लारी आती और लोगों को लादकर किसी अस्थाई कैंप में ले जाती। रेलवे स्टेशन से निकलकर कोलकाता के फुटपाथ भी लोगों से पटने लगे। सिर छुपाने की जगह छोड़िए, स्नान और शौच तक की सामान्य व्यवस्था तक नहीं। महिलाओं की दुरावस्था तो सोची भी नहीं जा सकती। शर्म को विसर्जन देने के अलावा उनके पास दूसरा कोई चारा न था। पीने के पानी के लिए भी लम्बी कतार लगानी पड़ती थी। धक्का-मुक्की और मारामारी के बाद एकाध बाल्टी पानी मिल जाता तो पूरे परिवार को उसी से पूरे दिन काम चलाना पड़ता। तीन-चार दिन बाद ही नहानेलायक पानी मिलता। चारों ओर मैल और कचरे की दुर्गंध। सब मिलाकर एक नरक का चेहरा। उन सबकी तुलना में बनगांव बहुत अच्छी जगह है। वहां स्टेशन के समीप ही खुले मैदान, जंगल और तीन-तीन जलाशय हैं। भोजन मयस्सर हो अथवा नहीं, सिर डुबोकर स्नान की सुविधा तो वहां है। बनगांव स्टेशन तक पहुंची उस पार की महिलाएं उन्हीं जलाशयों में स्नान कर आतीं। कुछ तो प्लेटफार्म पर ही चूल्हा जलाकर भात भी पका लेतीं। कब किसको कहां से बुलावा आएगा, किसी को नहीं पता। पता नहीं कि कब घोषणा होगी कि फलां नंबर से फलां नंबर तक के लोग फलां नंबर लारी पर चढ़ जाएं। कांकसा, धुबुलिया, कुपार्स अथवा बलागढ़ के ट्रांसिज कैंप में जाना होगा। उस पार से आनेवाले शरणार्थियों के लिए बनगांव स्टेशन को खाली करना होगा। कुल मिलाकर स्थितियां हर तरह से प्रतिकूल हैं। किंतु तब भी उनकी जिजीविषा द्रष्टव्य है। काजल ने सुरेन हाल्दार से कहा था, “स्थितियां प्रतिकूल हैं तो क्या हम हार मान लें? इस तरह मरनेवाली जाति से हम नहीं आते। यदि कहीं मिट्टी मिल गई तो वहीं ठिकाना बनाएंगे और नए ढंग से खड़े होंगे। पूरा उपन्यास इन दलितों के खड़े होने की गाथा ही कहता है। 1952 से पुनर्वासित सभी बंगाली शरणार्थियों को विदेशी घुसपैठिया करार दिये जाने पर बंगाल के भद्रलोक ने जब रहस्यमय चुप्पी ओढ़ रखी है तब कपिल कृष्ण ठाकुर ‘उजानतलीर उप कथा’ में विभाजनपीड़ित बंगाली दलित शरणार्थियों के कठिन जीवन संग्राम की कथा कहते हैं।

‘उजानतलीर उप कथा’ में बीच-बीच में कई गीत हैं तो उपन्यास के प्रवाह को बनाए रखने में बहुत सहायक हुए हैं-

अबूझ मन आमार

आमि कैन बा छेड़े एलाम रे बाड़ी घर।

उरे बेनापालेर स्टेशने आमार केड़े निलो गलार हार।

अथवा यह गीत-

स्वाधीन देशे लोक पालाइल एमन खबर शोनेछो नि?

बाप दादार उई भिटा छाइड़ा चलेछो सब विदेशे की?

हिंदू मुसलमान एक जाति भाई एक देहे दुइडा हाथ

केउ कारु नय शत्रु रे भाई दुए दुए मित्तिर हय।

उ भाई परेर कथाय परेर भरसाय छाइड़ो ना देश माथा खाउ।

इस गीत का हिंदी भावार्थ है-स्वाधीन देश में लोग पलायन करें, ऐसा सुना है क्या? बाप-दादा की जगह छोड़कर सब विदेश जा रहे हो क्या? हिंदू व मुसलमान को शरीर के दो हाथ बताया गया है जो एक दूसरे के सहायक हैं, शत्रु नहीं। कदाचित इसीलिए यह गीत हिंदू-मुसलमान भीड़ लगाकर सुनते हैं। गीत के आगे, साहित्य-कला-संस्कृति के आगे धर्म इसी तरह हारता है।

‘उजानतलीर उप कथा’ की तरह श्यामल कुमार प्रामाणिक का उपन्यास ‘बसत हारए जाय’ भी अपने देश से निर्वासित दलितों की जिजीविषा की गाथा है। ‘बसत हारए जाय’ के आरंभ में नीलग्राम नामक गांव और उसके पास बहनेवाली गंगा का वर्णन आता है। उस वर्णन के समय उपन्यास की भाषा काव्यात्मक हो उठती है। यह उपन्यास प्रकारांतर से जल-जंगल-जमीन की समस्या तथा विस्थापन से जूझते दलित (और आदिवासी) जीवन की महागाथा है। उपन्यास बताता है कि बार-बार मनुष्य का ठिकाना खो जाता है। कभी प्राकृतिक आपदा में तो कभी धार्मिक कट्टरता के कारण उसे अपना घर-बार छोड़ना पड़ता है। कई बार तो सत्ता उसे बेघरबार कर देती है। सभ्यता के प्रारंभ से ही मनुष्य इसी तरह उजड़ता और बसता आ रहा है। बार-बार उजड़ने के बावजूद मनुष्य बचा रहता है। वह अपने सुख-दुःख, हँसी-रुदन युक्त घर-संसार के लिए देश से देशांतर चला जाता है।

बांग्ला उपन्यास ‘बसत हारए जाय’ में दलितों के इसी तरह उजड़ने के अभिशाप का हृदयविदारक चित्रण किया गया है। पुलिस अफसर आकर नीलग्राम के खांदू मंडल से कहता है, ‘सरकार ने एक महीना पहले ही नोटिस देकर आप लोगों को गांव छोड़ने के लिए कहा था। यहां विदेशी कंपनी प्रोजेक्ट बनाएगी। आप लोग गांव खाली कीजिए।’ खांदू मंडल पुलिस अफसर से कहता है, ‘लेकिन हम लोग कहां जाएंगे हुजूर? यह हमारे पुरखों की जगह है।’ पुलिस अफसर कठोर होते हुए कहता है, ‘तुमलोग कहां जाओगे, यह तुम लोग जानो। ऊपर का आदेश है, आज ही गांव खाली कर देना होगा।’ देखते-देखते नीलग्राम के ग्रामीण एकत्र हो गए। उन सबके सामने ही भारी बुलडोजर से खांदू मंडल के घर को तोड़ा जाने लगा। खांदू मंडल पछाड़ खाकर विलाप कर रहा था। कुछ ही दिनों में नीलग्राम के सभी घर तोड़ डाले गए। सिर्फ आदित्य के पिता चंद्रनाथ द्वारा निर्मित स्कूल को किन्हीं कारणों से नहीं तोड़ा गया। इसलिए गांव के सारे लोगों ने उस स्कूल में ही पनाह ली। किंतु सारे लोग उसमें कैसे अंटते। इसलिए बाकी लोग खुले आसमान के नीचे आ खड़े हुए। नीलग्राम को जिन्होंने बसाया था, उन दो कायस्थ परिवारों ने सबसे पहले गांव खाली किया। वे धनी लोग थे, कोलकाता में उनके अनेक आत्मीय लोग थे किंतु गांव के बाकी गरीब दलित कहां जाएं? गांव में पौंड्र संप्रदाय, कैवर्त और बागदी जाति के लोग बेघर होकर गहरे चिंता में पड़ गए तो आदित्य ने सुंदरवन में नया ठिकाना बनाने का प्रस्ताव दिया। गांव के सारे दलित नौका में बैठकर सुंदरवन की ओर रवाना हुए जहां पग-पग पर सांपों तथा बाघों का खतरा था किंतु विस्थापित दलितों के पास यह सोचने की भी फुर्सत कहां थी?  विकास के पूंजीवादी माडल ने औद्योगिकीकरण के नाम पर जंगल-जमीन का अधिग्रहण कर कहीं दलितों तो कहीं आदिवासियों के सामने विस्थापन की जो विकट समस्या खड़ी की है, श्यामल प्रामाणिक इसका प्रामाणिक चित्रण उपन्यास के आखिर में करते हैं। प्रसंगवश श्यामल कुमार प्रामाणिक के कहानी संग्रहों-‘निवारण मंडलेर उपाख्यान’, ‘रुपनारायनेर माझी’, ‘खिलिपानेर मेय’ और ‘अकालमेघेर कथा’ की कई कहानियां भी दलितों के संग्राम पर ही केंद्रित हैं। बांग्ला की अन्य दलित कहानियों की बात करें तो मनोहर मौलि विश्वास के कहानी संग्रह ‘कृष्ण मृत्तिकार मानुष’ की सभी कहानियां दलित संदर्भों पर लिखी गई हैं। कुमार राना के ‘गल्प संग्रह’ और ‘घरछाड़ादेर ग्रामे’, यतीन बाला के कहानी संग्रह ‘नेपो निधन पर्व’और ‘गंडीर बांधे भांगन’, गौतम अली का कहानी संग्रह ‘जतुगृहेर छाई’, राजू दास का ‘ब्रात्यजनेर गल्प’, नकुल मल्लिक का ‘महासिंधु’ और ‘निर्वाचित गल्प’ और कपिल कृष्ण ठाकुर का ‘अन्य यहूदी’ भी बांग्ला दलित कहानी के बदलते मिजाज के द्योतक हैं। ब्रजेंद्रनाथ मल्लिक, गौतम शौंड और अचिंत्य विश्वास की कहानियां भी दलितोद्धार की कामना में रची गई हैं। विमलेंदु हाल्दार के संग्रह ‘आकाश माटी मन’ और ‘लवनाक्त’ के लिए भी यही बात सही है। ‘लवनाक्त’ में कुल 11 कहानियां संकलित हैं –‘लवनाक्त’, ‘नतून आलो’, ‘जले कुमीर डांगाय कुमीर’, ‘काछारी घाटेर कड़चा’, ‘निबारन काहिनी उ स्वाधीनतार पंचास बछर’, ‘दामोदरेर हांड़ी कूंड़ी’, ‘नोला’, ‘आगुन’, ‘भुवनीकरण उ एकटि बुड़ो’, ‘भानुमतीर भयभावना’ और ‘चोख’। ये कहानियां पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना तथा सुंदरवन के दलितों के उत्पीड़न तथा शोषण का प्रामाणिक आख्यान हैं। पहली ही कहानी ‘लवनाक्त’ में बताया गया है कि किस तरह सुंदरवन में मछली मारने के लिए जो जाते हैं, वे कई बार बाघ के शिकार बन जाते हैं। मछली मारने गया चिंते का पति माधाई जब नहीं लौटता और चिंते जब शोषक घोष के आढ़त में आग लगा देती है तो कहानी प्रतिरोध के शिखर पर पहुंच जाती है।

- Advertisement -