‘चमारों की गली’ कविता में कवि अदम गोंडवी ने उनके हालात का वर्णन किया है। इसे साहित्यिक जमात अपने अपने नजरिए से देखता-आंकता है।
- डॉ दीपक कुमार
वर्तमान समय में हिन्दी साहित्य कई खेमों में विभाजित है। इस खेमेबंदी का असर साहित्य के सर्जन और मूल्यांकन पर भी स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। एक तरफ साहित्य के चिंतकों में निष्कर्ष देने की हड़बड़ाहट है तो दूसरी ओर उस निष्कर्ष पर अड़े रहने की गज़ब की दृढ़ता भी है। ये आलोचना के समकालीन मानक हैं। किसी रचना पर बात करते समय रचना से अधिक रचनाकार महत्वपूर्ण हो गया है, उसकी जाति महत्वपूर्ण हो गयी है। रचना से रचनाकार तक पहुंचने की अवधारणा लगभग खत्म हो चुकी है। कौन प्रगतिशील है? कौन जातिवादी? इसका मूल्यांकन रचना से नहीं, रचनाकार की जाति से होने लगा है। यह सही है कि व्यक्ति जिस संरचना से पलता है, वह परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उसके अवचेतन में विद्यमान रहती है। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि मनुष्य अपनी संरचना का अतिक्रमण भी करता है। गौतम बुद्ध, सरहपा, कबीर आदि अनेक उदाहरण हैं। अपनी मूल संरचना का अतिक्रमण ही मनुष्य को रचनाशील बनाता है। वही उसकी प्रेरणा होती है और वही उसका लक्ष्य।
हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील चेतना में जो सबसे चुटीली और मुखर आवाज रही है, उसमें अदम गोंडवी का नाम पहले सफे पर है। आज उनका जन्मदिन है और इस मौके पर उनकी एक कविता- ‘चमारों की गली’ चर्चा का विषय बनी हुई है। इस कविता के कथ्य पर बात करने से पहले इसके शीर्षक- ‘चमारों की गली’ पर बात कर लेना आवश्यक है। कई दलित चिंतकों को इस कविता के शीर्षक से परहेज है। उनका मानना है कि यह कविता चमारों को नीचा दिखाने और सवर्णों के मनोरंजन के लिए लिखी गयी है। लेकिन जैसा कि अदम गोंडवी ने कविता की शुरुआती पंक्तियों में कहा है- ‘आइये महसूस करिए जिंदगी के ताप को/ मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको’। इन पंक्तियों में जिन्हें ‘अदम’ जिंदगी का ताप महसूस करवाना चाहते हैं, वह और कोई नहीं, बल्कि सवर्ण समाज ही है। जो सदा ही मखमली फाहे में लिपटा रहा है। वे उन लोगों को उस गली तक ले जाना चाहते हैं, जिसे सवर्ण समाज ने हाशिये पर धकेल रखा है। ये पंक्तियाँ कोई अबूझ पहेली नहीं रचतीं। बल्कि शुतुरमुर्ग की तरह जमीन में सर धसाए सवर्णों को आईना दिखाती हैं। यह कविता सिर्फ जातीय संरचना को गौरवशाली शब्दों का लिबास नहीं पहनाती, बल्कि सवर्ण जमात के नंगेपन को और नंगा कर देती है।
‘चमार’ शब्द आर्यों की सामाजिक संरचना का अभिन्न हिस्सा है, जिससे भागने की जगह उसके यथार्थ को यह कविता प्रस्तुत करती है। ‘चमारों की गली’ यहाँ उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, जो सभ्यता के सीमांत पर खड़ा है। जिसे परिधि के केंद्र में जाने की मनाही है। जिसका शोषण वर्चस्ववादी संरचना करती आई है। समाज का वह वर्ग, जो चमारों की परछाई से भी खुद को बचाते रहने का आदी है, उसे अदम उस गली में ले जाना चाहते हैं, जहां चमार रहते हैं। अदम ने कविता में चमारों की जिस गली का चित्रण किया है, वह कोई कल्पित सत्य नहीं, बल्कि यथार्थ है। इस यथार्थ को नजरंदाज करना उसी संरचना को बल देता है, जिसके विरुद्ध एक प्रगतिशील रचनाकार सदैव युद्धरत रहता है।
कविता में व्यक्त परिस्थितियों की बात की जाए तो भारतीय समाज की वर्चस्ववादी जातीय संरचना पर इतनी कठोरता से शायद ही हिन्दी के अन्य किसी रचनाकार ने प्रहार किया है। अदम गोंडवी की यह कविता मंटो की कहानियों की तरह ही समाज को उसका वास्तविक रूप दिखलाती है। इस रूप से भले ही लोगों को कोफ्त हो, लेकिन समाज का असल चेहरा वही है। यह कविता अपने समय या यूं कहें कि हमारे समय की राजनीतिक संरचना, अफसरशाही, जातीय संरचना आदि को एक साथ लेकर चलती है। वर्चस्व को बनाए रखने के लिए उनकी जुगलबंदी से रूबरू करवाती है। उसकी मानसिकता के तहों को एक एक कर खोलती है। फिर भी साहित्य के कुछ एक चिंतक इसे सवर्णों के मनोरंजन के लिए लिखी गयी कविता कहते हैं। लेकिन सवर्णों की वर्चस्ववादी संरचना पर इससे अधिक चोट शायद ही कोई और कविता करती हो।
कविता जब आगे बढ़ती है तो वे कहते हैं- जिस गली में भुखमरी की यातना से उबकर/ मर गयी फुलिया बिचारी एक कुएं में डूबकर’। ये पंक्तियाँ आज भी यथार्थ हैं। हम रोज ही अखबारों में इस तरह की खबरें पढ़ते रहते हैं। जिस संरचना ने सौंदर्य का यह प्रतिमान गढ़ा कि सुंदरता तो सिर्फ महलों और हवेलियों में ही शोभती है, वहाँ चमारों की गली में उसका प्रतिरूप देखकर किस तरह उनका दंभ टूटता है और वे वह करने पर उतारू हो जाते हैं, जो उनकी नैतिकता की परिभाषा के बाहर है। दलितों को अपने बाप की जागीर समझने वाली मानसिकता क्या नहीं रही है हमारे समाज में! कविता की ये पंक्तियाँ कि ‘देखिये न यह जों कृष्णा है चमारों के यहाँ/ पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ। इस पंक्ति में व्यक्त मानसिकता हमारे समय और समाज की सच्चाई है। आज भी रूप और गुण को जाति विशेष सूचक माना जाता है। फिर चमारों की गली में इस संरचना का मखौल उड़ाते हुये निर्भीक विचरने वाली कृष्णा को कैसे झेल सकता है वह वर्ग।
यह जानते हुये भी कि उनके बच्चों ने गलत किया है, फिर भी उन्हें बचाने के लिए, समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए किस तरह से अपने राजनीतिक रसूख, अफसरशाही की मदद ली जाती है, उसका उदाहरण है यह कविता। जातीय वर्चस्व को बनाए रखने के लिए पीड़ित को ही गुनहगार साबित करने की यह कोई पहली कोशिश तो है नहीं। आज भी हम इसकी बानगी देख सकते हैं। ‘कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है’- यह मौन कविता में बहुत कुछ बयान कर जाता है। इस मौन से पहले जो कुछ भी है, वह सवर्णवादी वर्चस्व की कारगुजारियाँ हैं।
पूरी कविता ‘आत्मभर्त्सना’ की कविता है। लेखक अपने ही समाज के लोगों को आईना दिखा रहा है कि देखो अपने वीभत्स चेहरे को, जिसे नैतिकता की चादर में छुपा के रखा है। पूरी कविता में एक भी शब्द ऐसा नहीं, जो यह दर्शाता हो कि यह किसी के मनोरंजन के लिए लिखी गयी है। बल्कि इस कविता को पढ़ने के क्रम में गुस्से का गुबार उठता है। मन में ग्लानि का भाव उत्पन्न होता है। शर्म आती है। वह इसलिए कि यह कविता हमें आईना दिखाती है। कविता के आखिर में कवि इस संरचना के पैरोकारों को लामबन्द कर निमंत्रण देता है कि आओ और देखो कि तुम क्या हो?