मृणाल सेन पर कृपाशंकर चौबे की किताब- मृणाल सेन का छाया लोक

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मृणाल सेन पर कृपाशंकर चौबे की किताब- ‘मृणाल सेन का छाया लोक’ आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित है। लोकार्पण स्वयं मृणाल सेन ने किया था।
मृणाल सेन पर कृपाशंकर चौबे की किताब- ‘मृणाल सेन का छाया लोक’ आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित है। लोकार्पण स्वयं मृणाल सेन ने किया था।

मृणाल सेन पर कृपाशंकर चौबे की किताब- ‘मृणाल सेन का छाया लोक’ आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित है। लोकार्पण स्वयं मृणाल सेन ने किया था। फिल्मकार गौतम घोष और देश निर्मोही ने भी उस अवसर पर वक्तव्य दिए थे। जिनकी रुचि हो, वे आधार प्रकाशन से ‘मृणाल सेन का छाया लोक’ पुस्तक खरीद सकते हैं। 

  • कृपाशंकर चौबे
मृणाल सेन पर कृपाशंकर चौबे की किताब- ‘मृणाल सेन का छाया लोक’ आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित है। लोकार्पण स्वयं मृणाल सेन ने किया था।
मृणाल सेन पर कृपाशंकर चौबे की किताब- ‘मृणाल सेन का छाया लोक’ आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित है। लोकार्पण स्वयं मृणाल सेन ने किया था।

चालू सिनेमा से अलग भी सिनेमा की एक दुनिया है, जो सपनों के जाल में हमें भरमाती नहीं, बल्कि जीवन और समाज की जटिलताओं के यथार्थ का हमें साक्षात्कार कराती है। सिनेमा की इस दूसरी दुनिया के निर्माताओं में थे मृणाल सेन (14 मई 1923-30 दिसंबर 2018)। सत्यजित राय और ऋत्विक घटक के समानांतर और लगभग सहयात्री।

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मृणाल सेन की पहली फिल्म ‘रातभोर’ 1956 में आई थी और अंतिम फिल्म ‘आमार भुवन’ आज से ठीक सत्रह साल पहले 2003 में आई थी। मृणाल दा भाषा बंधन की अनूठी मिसाल पेश करनेवाले फिल्मकार थे। उन्होंने अपनी मातृ भाषा बांग्ला के अलावा उड़िया, तेलुगु और हिंदी में भी फिल्में बनाईं। मृणाल सेन ने महादेवी वर्मा की कहानी ‘चीनी फेरीवाला’ पर 1958 में बांग्ला में ‘नील आकाशेर नीचे’ शीर्षक से फिल्म बनाई थी तो 1966 में कालिंदीचरण पाणिग्रही के उपन्यास ‘माटीर मनीश’ पर इसी शीर्षक से उड़िया में फिल्म बनाई और 1977 में प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’पर तेलुगु में ‘ओका ओरि कथा’ बनाई थी।

मृणाल दा ने 1969 में ‘भुवन सोम’ बनाई थी, जिसे हिंदी में समानांतर सिनेमा को जन्म देने का श्रेय दिया जाता है। मृणाल दा के खाते में ‘एक अधूरी कहानी’, ‘मृगया’, ‘खंडहर’, ‘जेनेसिस’ और ‘एक दिन अचानक’ जैसी श्रेष्ठ हिंदी फिल्में भी हैं। दिलचस्प यह है कि मृणाल दा को हिंदी नहीं आती थी। फिर भी फिल्म निर्देशन में उनके समक्ष भाषा की समस्या कभी आड़े नहीं आई। जिस भाषा में उन्होंने फिल्म बनाई तो वहां की स्थानीय लोकोक्तियों को व्यवहृत किया। ‘ओका ओरि कथा’ बनाते समय मृणाल दा ने तेलंगाना के स्थानीय लोगों से पूछा था कि ‘तू डाल डाल, मैं पात पात’ के लिए कौन सी लोकोक्ति तेलुगु में चलती है तो वहां उन्हें जो बताया गया, उसका हिंदी अनुवाद होगा- ‘तू मेघ मेघ, मैं तारा तारा।’

जिस भाषा में मृणाल दा फिल्म बनाते थे तो सबसे पहले वहां के मुहावरे और लोक व्यवहार में ढल जाते थे। वैसे यदि एक भाषा की लोकोक्तियां दूसरी भाषा में आएं तो जाहिर है कि दूसरी भाषा को भी वे समृद्ध करेंगी। स्थानीय लोक व्यवहार पर जोर देने के अलावा मृणाल दा हमेशा अपनी हर फिल्म को तीन कसौटियों पर कसते थे। एक- टेक्स्ट, जिस पर फिल्म आधारित होती है। दूसरा- सिनेमा का फार्म, जिसमें कलाकारों के परमार्मेंस पर ध्यान दिया जाता है और तीसरा- समय। फिल्म जब अपने समय से जुड़ती है, तभी प्रासंगिक बनती है। कदाचित इन कसौटियों पर कसने के कारण ही मृणाल दा 28 श्रेष्ठ कला फिल्में, तीन गंभीर वृत्त चित्र और दो टेली फिल्में दे सके।

मृणाल दा की फिल्में आज के हिंसा-प्रतिहिंसा के भयावह परिवेश में मनुष्य को बचाने की चिन्ता पूरी शिद्दत से करती हैं। मृणाल सेन के यहाँ यह चिन्ता एक मूल्य बन जाती है। उदाहरण के लिए उनकी अंतिम फिल्म ‘आमार भुवन’ को ही लें तो उस फिल्म के आरम्भ में ही युद्ध, दंगे और असहाय बच्चे की तस्वीर आँखों के सामने तैर जाती है। यह दृश्य सिर्फ दो मिनट का होता है, किन्तु विचारणीय है कि क्या यह आज के समय की सबसे बड़ी ग्लोबल सच्चाई नहीं है? कहना न होगा कि यह ग्लोबल सच्चाई ही मनुष्य से उसकी पहचान छीन रही है, उसके बचे रहने की सम्भावना को क्षीण कर रही है, और तो और, उसे मानव बम बना रही है।

विध्वंस के दृश्यों के बीच परदे पर मोटे-मोटे अक्षरों में एक पंक्ति उभरती है- ‘पृथ्वी भांगछे, पुड़छे, छिन्न-भिन्न होच्छे। तबू मानुष बेंचे थाके ममत्वे, भालोबासाय, सहमर्मिताय।’ यानी ‘पृथ्वी टूट रही है, जल रही है, छिन्न-भिन्न हो रही है। तब भी मनुष्य बचा रहता है, ममत्व, प्यार और संवेदना के कारण।’ टूटती-जलती छिन्न-भिन्न होती पृथ्वी के दृश्य दिखाने के बाद फिल्म दर्शकों को उस लोक में ले जाती है, जहाँ हिंसा नहीं है, प्रतिहिंसा नहीं है, विद्वेष नहीं है, वातावरण विषाक्त नहीं है और यह सब गरीबी के बावजूद नहीं है। उस लोक में ममत्व है, प्यार है, संवेदना है और एक-दूसरे को समझने की इच्छा बची हुई है। वहां बड़े भाई के हाथों ‘मानुष’ हुएनूर अली हैं। चौदहवीं शताब्दी में चण्डीदास ने कहा था-

‘सुनो ह मानुष भाई

सबार ऊपोरे मानुष सत्य

ताहार ऊपोरे नाई।’

यानी मनुष्य से ऊपर कोई सत्य नहीं है। बंगाल में सदैव किसी माता-पिता के मुँह से सुना जा सकता है- ‘छेले-मे के मानुष कोरते होबे।’ यानी सिर्फ पढ़ाना-लिखाना पर्याप्त नहीं, मानुष बनाना जरूरी है।

फिल्म का नाम ‘अमार भुवन’ है जिसका हिन्दी भाषान्तर होगा- ‘मेरी पृथ्वी।’ इस पृथ्वी में एक ओर सम्पन्न लोगों (नूर) की दुनिया है, दूसरी ओर निर्धन मेहर का निरीह संसार। मेहर-सखीना के अभावग्रस्त संसार, उनकी व्यथा और यथार्थ को फिल्म मार्मिकता से दिखाती है। मेहर-सखीना के संसार को मृणाल सेन संकेतों, बिम्बों, प्रतीकों के जरिए समग्रता में और पूरी संवेदना के साथ इस तरह दिखाते हैं कि उसमें पूरा भारतीय जीवन ही दिखने लगता है। अभाव के भाव को और उसकी कथा को मृणाल सेन स्मरणीय सिनेमाई अनुभव बना देते हैं। नूर अपने यहाँ भोज देता है, जिसमें बूढ़े चटर्जी महाशय भी पहुँचते हैं और पूछते हैं- मुझे न्यौतना क्यों भूल गए? एक मुसलमान की पार्टी में हिन्दू को लाकर फिल्मकार ने साम्प्रदायिक सद्भाव की बात कहनी चाही है।

मृणाल सेन उस पृथ्वी की बात करते हैं या वैसी पृथ्वी चाहते हैं जहाँ सम्प्रदायों में सद्भाव है, जहाँ विलगाव के बावजूद प्रेम है। यदि ऐसी पृथ्वी हो जाए तो क्या कहने! इसलिए अविश्वास और विध्वंस के इस समय में मृणाल सेन यदि ‘आमार भुवन’ जैसी कथा फिल्म रचते हैं तो उनकी यह रचना (कल्पना) भी तात्पर्यपूर्ण है। यह फिल्म रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत से समृद्ध है। फिल्म में ‘ममचित्ते’ शीर्षक गीत बार-बार आया है और श्रीकान्त आचार्य की आवाज में जँचता भी है। इस तरह इस फिल्म की समृद्धि में स्थिर चित्रों का भी योगदान माना जाना चाहिए। शुरू में जो स्थिर चित्र दिए गए हैं, वे कलात्मकता के रचनात्मक तत्वों को पर्याप्त उभारते हैं और फिल्म के आशय को पुष्ट करते हैं। ‘रातभोर’ से लेकर ‘आमार भुवन’ तक मृणाल दा की हर फिल्म अपने समय और समय की चुनौतियों से जूझती है। हर फिल्म में मृणाल सेन को उनका समय गाइड करता है- हिंसा-प्रतिहिंसा-विद्वेष के विरुद्ध खड़ा होने के लिए, प्रेम के लिए, ममत्व के लिए, मनुष्य को बचाने के लिए। पुण्य तिथि पर मृणाल सेन को विनम्र श्रद्धांजलि।

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