आलोक तोमर पत्रकारिता के उन पात्रों में शुमार हैं, जिनका जिक्र वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार हरीश पाठक की संस्मरणों पर आधारित पुस्तक में है। पुस्तक शीघ्र प्रकाशित होने वाली है। इसे हम धारावाहिक प्रकाशित कर रहे हैं। आपको यह कैसा लगा, इस बारे में वाट्सऐप नंबर 9431370023 पर अपनी प्रतिक्रया दें।
- हरीश पाठक
उस रात आलोक तोमर और हम दोनों ही करवट बदलते रहे। बेचैनी यह थी कि अब क्या होगा? सुबह उग आयी थी, पर लग रहा था जैसे एक और तकलीफ दरवाजे पर खड़ी है। तैयार हो कर आलोक निकल गया। उसके जाते ही हरीश आहूजा हाथ में एक कागज लिए बेहद गमगीन मुद्रा में मेरे पास आये। आते ही बोले, ‘किसी ने मेरी शिकायत कर दी है कि मैंने अपना घर सब लेटिंग पर दिया है। यह पत्र मुझे मिला है, जिसमें आपका नाम, नौकरी की जगह तक लिखी है। लग रहा है शिकायत करनेवाला आपका करीबी है। पहले जांच होगी। यदि उन्होंने सही पाया तो पहले निलम्बन, फिर बर्खास्तगी। तब मैं कहीं का भी नहीं रहूँगा’। दरवाजे पर उनकी पत्नी खड़ी थीं, रोते हुए बच्चे को सम्भालती।
मैं सन्नाटे में आ गया। मैंने पत्र पढ़ा। पीडब्लूडी विभाग का वह पत्र था। मैंने कहा, ‘आप चिंता न करें। सब ठीक होगा। मैं आज, अभी ही अपना सामान कहीं और रख देता हूँ। दस दिन तक हम दोनों कहीं और रह लेंगे। यदि सब कुछ सामान्य हुआ तो हम वापस आ जाएंगे, नहीं तो जैसा आप कहेंगे वैसा ही होगा। मैं आपके साथ हूँ, पूरी मदद करूँगा।’ वे छूटते ही बोले ‘यदि वापसी हुई तो मैं आपको अकेले रखूंगा। आपके भाई को नहीं। वैसे भी तीन महीने क्या, एक साल से ऊपर हो गया। कहीं उसने तो शिकायत नहीं कर दी? माफ करें, आप और आपके भाई में बहुत अंतर है।’ वह क्यों शिकायत करेगा? तकलीफ तो उसे भी होगी।’ मैंने कहा।
मैं तत्काल पड़ोस में रह रहे अपने मित्र दिनेश तिवारी के पास गया। वह ‘मुक्ता’ में मेरा सहयोगी था। मेरे घर उसका सतत आना था। पता चला दुखी आहूजा साहब मेरे उठने के पहले ही उससे मिल आये थे। मैं पहुँचा तो उसने बताया, ‘आहूजा साहब सब बता गये। उन्हें आलोक पर संदेह है क्योंकि पत्र में आपका नाम, आपकी उम्र, नौकरी की जगह तक लिखी है, जबकि सामान्य तौर पर एक लाइन रहती है कि आपने घर किराये से दिया है, जांच होगी। वह बोला- आप जब तक जांच होगी मेरे साथ, आलोक सहित रहिए। भाई साहब तो कानपुर गये हैं।’
शाम में आलोक (आलोक तोमर) आया। मैं उसी घर में उदास बैठा था। पहले सोचा, इसे क्या बताऊँ, वैसे ही परेशान है। पर अंत में बता ही दिया। कहा कि आज से कुछ दिन हम दिनेश तिवारी के साथ 239, सत्य निकेतन में रहेंगे।
आलोक (आलोक तोमर) छूटते ही बोला, ‘जांच वाली चिट्ठी आ गयी क्या?’ मैं चौंका। मैंने कहा, ‘कौन-सी चिट्ठी? लगता है किसी ने शिकायत कर दी है कि आहूजा साहब ने घर किराये पर दिया है। उनकी नौकरी पर बन आयी। यदि दोषी पाये गये तो सीधे बर्खास्त।’
वह तपाक से बोला, ‘किसी ने क्या, यह धत कर्म मुझसे ही हो गया’। फिर उसने बताया वार्ता के दिनों में जब वह सब लेटिंग की प्रथा पर फीचर कर रहा था, तब पीडब्लूडी विभाग में कुछ आंकड़े लेने गया तो वहां के अधिकारियों ने कहा, कहीं कोई सब लेटिंग की प्रथा ही नहीं है, कानून सख्त है। जांच में पकड़े जाने पर नौकरी ही खत्म। फिर सबने मुझे घेर कर पूछा- कुछ प्रमाण दें तो जांच होगी। उस चक्कर में मैं आपका नाम, पता दे आया’। फिर उसने दाएं हाथ की हथेली से अपनी आंखें बंद कर लीं। यह उसकी खास आदत थी।
‘तुमने शिकायत कर दी, यह जानते हुए भी की हम दोनों बेघर हो जाएंगे। सब लेटिंग के अलावा इस जगह हम कैसे रह सकते हैं?’ मैं जोर से चीखा।’ कमाल है यार। पहले तुम्हारी नौकरी गयी, अब यह घर भी जाएगा। यह क्या हो रहा है? परेशानी में आज मैं दफ्तर तक नहीं गया।’
देर तक कमरे में सन्नाटा टहलता रहा। फिर वह इत्मीनान से उठा। मेरे कंधे पर हाथ रख बोला, ‘हरिज्जि, आपकी तकलीफ मेरी तकलीफ है। मैं आपके पीछे खड़ा रहूँगा, हमेशा चट्टान की तरह। जांच में कुछ नहीँ होगा। सब ठीकठाक करवा देंगे। हाँ, आहूजा साहब डरे हैं। दो दिन से उनका चेहरा उतरा है। डेढ़ साल संग साथ के गुजर गये। मैं भी सरकारी नहीँ, सत्य निकेतन में ही कहीं एक कमरा आज से ही तलाश लेता हूँ।’
कुछ दिन हम दोनों दिनेश तिवारी के घर रहे। जांच में आहूजा साहब बच गये। मैं वापस उनके पास आ गया और दिनेश तिवारी ने कुंदन एजेंट के मार्फत सत्य निकेतन में ही एक अलग एंट्री वाला घर आलोक को दिलवा दिया। हम अलग-अलग जगह रहने तो लगे, पर दोपहर और रात का खाना साथ ही खाते। कभी संगम टॉकीज के पास, तो कभी सत्य निकेतन में।
1983 के आते-आते राजधानी दिल्ली में हिंदी पत्रकारिता की आबोहवा बदलने लगी थी। एक्सप्रेस समूह अपना दैनिक ‘जनसत्ता’ ला रहा था। प्रभाष जोशी इसके संपादक थे और मंगलेश डबराल मैगजीन एडिटर। ये दो ही नाम थे, जो सबसे पहले तब की दिल्ली में खूब जोर शोर से प्रचारित थे। यह भी कि यह नयी तरह का अखबार होगा, मौजूदा फॉरमेट से एकदम अलग। बोलचाल की भाषा इसकी पहचान होगी। बेहतर लिखने और नया कर गुजरनेवाले पत्रकार ही इससे जुड़ पायेंगे। यह भी चमत्कार इसी साल हुआ था कि ‘नई दुनिया’ के संपादक रहे राजेंद्र माथुर ‘नवभारत टाइम्स’ के प्रधान संपादक बनकर दिल्ली आ चुके थे। खूब चर्चा में था कि टाइम्स प्रबंधन कई राज्यों की राजधानी से भी ‘नवभारत टाइम्स’ के संस्करण निकालेगा।
तब रोज रोज नयी नयी खबरें आतीं। बहादुर शाह जफर मार्ग की वह लंबी सड़क, जो एक्सप्रेस बिल्डिंग से प्यारेलाल भवन तक जाती है, पर देश के हिंदी पत्रकारों का मेला लगता। बीरबल की पान की दुकान से ले कर सेवाराम के समोसे के अड्डे तक सिर्फ ‘जनसत्ता’ की चर्चा होती। कौन आ रहा है, कहाँ से आ रहा है, सब नाम हवा में तैरते रहते।
एक दोपहर खाना खाते आलोक बोला, ‘आप भृमर जी के घर कई दिनों से नहीं गये। एक दिन चलिए। मेरा लालच यह है कि उनके ही पास हरिशंकर व्यास रहते हैं। सहायक संपादक के तौर पर व्यास जी की नियुक्ति ‘जनसत्ता’ में हो गयी है। उनसे मिलना चाहता हूँ।’
दिल्ली आने के पहले मैं जब भी दिल्ली आता, रामकुमार भृमर के ही घर रुकता। तब वे रामजस रोड में तीसरे माले पर एक बड़े घर में रहते। बिल्डिंग की छत पर सारे कमरे थे। उसके एक कमरे में कभी संजय निरुपम, तो कभी हरिशंकर व्यास रहते।
मैंने कहा, ‘व्यास जी हर मंगलवार दिल्ली प्रेस परेश नाथ से मिलने आते हैं। तब वे दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं में कम्युनिस्ट विरोधी लेख खूब लिखते थे। मेरी रिसेप्शन पर उनसे अकसर मुलाकात होती है तो यहीं मिल लेना। वैसे भी व्यास जी की ‘संवाद परिक्रमा’ में तुम ग्वालियर से ही लिखते रहे हो। वे जानते ही हैं। मैं आलोक के साथ भृमर जी के यहां जाने से इसलिये बच रहा था, क्योंकि उसने भृमर जी के डाकू साहित्य के विरोध में कुछ लम्बे लम्बे पत्र ‘रविवार’ और ‘अवकाश’ में लिखे थे। भृमर जी उन पत्रों से बहुत नाखुश थे।
आलोक की व्यास जी से मुलाकात हो गयी। व्यास जी ने साफ कहा- सब लिखित परीक्षा पर तय होगा। वही चयन का आधार होगा। परचा बनाने से ले कर कॉपी जांचने तक सब प्रभाष जी के हाथ में है। चयन के बाद बाकायदा क्लास लगेगी, जिसमें प्रभाष जी बताएंगे- कैसा अखबार, किस तरह निकालना है। आप लिखित परीक्षा की तैयारी करो। खासकर अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद अविकल नहीं, बोलचाल की भाषा में। इससे इतर कुछ नहीं है। इसी बीच बनवारी और सतीश झा सहायक सम्पादक के तौर पर ‘जनसत्ता’ से जुड़ गए। सतीश जी फाइनेंशियल एक्सप्रेस से ट्रांसफर हो कर आये थे।
आलोक अब अपने घर पर ही रहता। जब तब मिलता और मिलते ही कहता, ‘हरिज्जि ‘जनसत्ता’ की लिखित परीक्षा में टॉप आना है। वैसे मैं बीएससी में थर्ड डिवीजन और एमए में टॉप हूँ।’
उसकी मेहनत रंग लायी। ‘जनसत्ता’ की लिखित परीक्षा में आलोक तोमर और जयप्रकाश शाही दोनों टॉप पर थे। बराबर नंबर। प्रभाष जी क्लास लेते। ‘जनसत्ता’ का खूब प्रचार होता। उसका स्लोगन ही धमाल मचाये था। वह था ‘सबकी खबर ले, सबको खबर दे’। यह स्लोगन कुमार आनन्द ने बनाया था।
16 नवम्बर,1983 को ‘जनसत्ता’ ने बेहद ताजगी, जोश और जज्बे के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज की। इसकी शुरुआती टीम में गोपाल मिश्र (समाचार संपादक), देवप्रिय अवस्थी, शम्भूनाथ शुक्ल, सत्यप्रकाश त्रिपाठी, जगदीश उपासने, सुधांशु मिश्र, राजीव शुक्ल, कुमार आनन्द, उमेश जोशी, अरविंद मोहन, अ ल प्रजापति, सुरेश शर्मा, सुरेश कौशिक, बृजेन्द्र पांडेय, मनोज चतुर्वेदी, सतीश पेडनेकर, परमानन्द पांडेय, अमित प्रकाश सिंह जैसे बेहतरीन पत्रकार थे, जिनके सामने खुला आसमान था, कुछ नयी इबारत गढ़ने के लिए। रिपोर्टिंग टीम में रामबहादुर राय, राकेश कोहरवाल, महादेव चौहान, दयाकृष्ण जोशी और आलोक तोमर थे।
यहीं से बदल गया सब कुछ। इसी मोड़ पर उभरता है वह आलोक, जिसे साथ रहते हुए भी मैं कभी नहीं जान पाया था। मन में विश्वास, लकदक सपनों से भरी पनीली आंखें, सच का पैरोकार। जान हथेली पर रखकर रिपोर्टिंग करनेवाला देश का वह अकेला पत्रकार बना, जो न दंगे से डरा, न आग से, न राजकरण से, न किसी हथियार से। देखते ही देखते वह ‘जनसत्ता’ का पर्याय बन गया।
क्राइम उसकी बीट थी और इस बीट पर रहते उसने अपराध की खबरों के उस परम्परागत साँचे को ही तोड़ दिया, जो हमारी नियति सी बन रही थी। आप कल्पना कर सकते हैं कि एक मामूली सी खबर जब चमकदार भाषा और सुंदर से शीर्षक के साथ पहले पन्ने पर छपे तो वह क्या माहौल रचेगी? डॉ धर्मवीर भारती का वह मुरीद था। उनके कई गीत उसे कंठस्थ थे। वह बार बार गाता: अगर मैंने किसी के होंठ के पाटल कभी चूमे/ अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे/ महज इससे किसी का प्यार मुझको पाप कैसे हो/
ओम प्रभाकर के नवगीत, सुरेश नीरव की कविता, जहीर कुरेशी की गजल और वरिष्ठ कवि भगवान स्वरूप चैतन्य की पंक्तियां ‘दर्द तिनके का यहां किससे कहें हम’ जब किसी अपराध कथा का शीर्षक बन कर आता था तो वह एक ऐसा संसार रच देता था, जो न अतीत में पहले कभी था, न भविष्य में कुछ दिखता था। उसकी साफ सुथरी कॉपी और आकर्षक शीर्षक पर डेस्क भी मुग्ध रहती। तब देवप्रिय अवस्थी, शम्भूनाथ शुक्ल डेस्क के मंजे पत्रकार थे। वे अच्छी खबरों को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करते।
31 अक्टूबर, 1984 की वह शाम मुझे अब तक खूब याद है जब श्रीमती गांधी की हत्या हो गयी थी और दिल्ली दंगों की चपेट में आ गयी थी। तब जब मैं ‘जनसत्ता’ पहुँचा तो रिपोर्टिंग डेस्क पर सब उदास बैठे थे। आलोक वहाँ नहीं था। लौटते वक्त मुझे वह प्यारेलाल भवन के पास मिला तेज तेज दौड़ता। तुरंत बोला, ‘दंगे भड़क रहे हैं, आप सँभलकर जाना। आज स्वर्गीय प्रधानमंत्री के स्ट्रेचर के नीचे बैठकर रिपोर्टिंग की है। यह भी देखा कि घबड़ाए सीताराम केसरी पानी के चक्कर में सोड़ा ही गटक गए। कल और लगातार देखना आपका यह दोस्त क्या कर जाएगा।’
उत्साह और हौसले से लबरेज उसकी वह आवाज आज भी जब तब मेरे कानों में बजती है क्योंकि भविष्य टोहती उसकी आँखों ने बहुत कुछ, बहुत पहले ही देख लिया था। बाद की घटनाएं, हादसे उनका चित्रण इतिहास का जरूरी हिस्सा बन गया। ऐसा हिस्सा, जिसका किस्सा आलोक तोमर से शुरू हो कर उसी पर खत्म भी होता है। (जारी)
(हरीश पाठक की शीघ्र प्रकाश्य संस्मरणों की पुस्तक- ‘मलहरा टू मेम्फिस वाया मुम्बई‘ का एक अंश)
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