गांव की संस्मरण कथा- बगुलघट्टा के बगुले उर्फ रामनरेश का घलुस्कू फार्मूला

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गांव की संस्मरण कथा की शृंखला शुरू की है वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार अरविंद चतुर्वेद ने। गांव की संस्मरण कथा की एक कड़ी आप पढ़ चुके हैं।
गांव की संस्मरण कथा की शृंखला शुरू की है वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार अरविंद चतुर्वेद ने। गांव की संस्मरण कथा की एक कड़ी आप पढ़ चुके हैं।

गांव की संस्मरण कथा की शृंखला शुरू की है वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार अरविंद चतुर्वेद ने। गांव की संस्मरण कथा की एक कड़ी आप पढ़ चुके हैं। पेश है दूसरी संस्मरण कथा।

  • अरविंद चतुर्वेद

कब किसको कहां से और कैसी प्रेरणा मिले, कुछ कहा नहीं जा सकता। अब जैसे आर्केमिडीज को नहाते समय अपने प्रसिद्ध घनत्व सिद्धांत का पता चला और उसके मुंह से यूरेका यूरेका निकल गया, वैसे ही पड़ोसी गांव रांकी के विश्वनाथ बाबा के छोटे लड़के रामनरेश के मुंह से एक फार्मूला निकला था- घलुस्कू। रामनरेश मेरे हमउम्र और मिडिल स्कूल के सहपाठी रहे। तीन-चार जगह लंबी-चौड़ी खेती के कारण विश्वनाथ बाबा यानी विश्वनाथ सुकुल सुबह घर से खाना खाकर कभी इस पाही तो कभी उस पाही पर खेतवैया करने निकल जाते तो उनके लौटते-लौटते शाम हो जाती। इधर रामनरेश भी सुबह खाना खाकर बस्ता लटकाए घर से धारागांव स्कूल के लिए चलते लेकिन जरूरी नहीं कि रोज-रोज स्कूल ही पहुंचते। बीच में वे कहां गायब हो जाते, यह न स्कूल को पता चलता न घरवालों को। शाम को वे ठीक समय पर बस्ता लिए घर पहुंच जाते थे। इसी तरह एक बार घर और स्कूल के बीच लगातार चार दिन की डुबकी के बाद रामनरेश से भेंट हुई तो उन्होंने अपने बस्ते से निकाल कर कुछ ऐसे गुप्त अंदाज में जिल्द चढ़ी एक मोटी-सी किताब मुझे दी कि मैंने भी उसे झटपट अपने बस्ते में रख लिया। मुस्कराते हुए बोले- बड़ी मजेदार किताब है, एक बार पढ़ना शुरू करोगे तो बिना खतम किए मन नहीं मानेगा। पढ़कर चुपके-से लौटा देना, बिरेंदर भइया से चुराकर मैंने पढ़ी है इसे। तुम पढ़ लोगे तो ले जाकर चुपके-से भइया के ताखे में रख दूंगा, उन्हें पता नहीं चलेगा। घर लौटकर मौका मिलते ही मैंने भी उतने ही गुप्त ढंग से किताब निकालकर देखी तो वह बाबू देवकीनंदन खत्री का उपन्यास था- चंद्रकांता। अब मुझे उस एकांत की तलाश थी जब सबसे छिप-छिपाकर मैं इस किताब को पढ़ सकूं।

उस समय हम सातवीं कक्षा में थे और किसी के बिना बताए भी यह अच्छी तरह पता था कि हनुमान चालीसा और महापुरुषों की जीवनी के अलावा स्कूली किताबों के बाहर कोई किताब पढ़ना बहुत बड़ा अपराध था। यहां तक कि शीत-बसंत और विक्रम-बेताल पढ़ने की भी मनाही थी। मेलाघूमनी और किस्सा तोता-मैना जैसी किताबों की ओर हम झांक नहीं सकते थे। ये किताबें बदनाम थीं और माना जाता था कि इनको पढ़ने वाले लड़के बिगड़ जाते हैं और आगे चलकर आवारा निकलते हैं। और, यहां तो चंद्रकांता नामक एक बड़ा वजनी अपराध मेरे बस्ते में पड़ा था। समस्या थी कि उसे कहां छिपाकर रख दूं, जहां से मौका मिलते ही निकाल कर पढ़ सकूं। आखिर मैंने बहुत सोच-विचार कर आंगन की ओर खुले कोठे के बड़े जंगले के ऊपर खपरैल से सटी दीवार पर चंद्रकांता को छिपाकर रख दिया। जंगले पर खूब अच्छी धूप आती थी, जहां छुट्टी के दिन बोरा बिछाकर जाड़े में मैं पढ़ता था। वहां एक सुविधा यह भी थी कि आंगन में कोई आए तो झटपट उपन्यास को बस्ते में छिपाकर दूसरी किताब खोल ली जाए।

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अगले दिन स्कूल की छुट्टी के बाद घर लौटते समय रामनरेश ने पूछा, कुछ पढ़ा क्या? मैंने बताया, अभी मौका नहीं मिला। तभी उन्होंने कहा- घलुस्कू। इस अबूझ को मैं समझ नहीं पाया। पूछा, घलुस्कू क्या है? उन्होंने बताया- घर से स्कूल के लिए निकलो, बीच में कहीं लुकाकर दिनभर किताब पढ़ो और शाम को ठीक समय पर घर पहुंच जाओ, किसी को पता नहीं चलेगा। अपने फार्मूले की इस व्याख्या के बाद एक बार फिर ठहरकर एक-एक अक्षर पर जोर देते हुए रामनरेश बोले- घ लु स्कू। अब समझ में आया कि रामनरेश कई-कई दिन स्कूल क्यों नहीं आते। अपने इसी घलुस्कू फार्मूले पर चलकर उन्होंने अबतक धारागांव और नौडीहा के बीच वाले निर्जन ताल के ऊंचे भीटे पर झुरमुट से घिरे बेल के पेड़ के नीचे लुकाकर चंद्रकांता ही नहीं, चंद्रकांता संतति और भूतनाथ उपन्यास भी पढ़ लिए थे और क्या कमाल कि उनके घर किसी को भनक तक नहीं लगी। लेकिन मेरे लिए इस फार्मूले पर चलकर कोई प्रतिबंधित किताब पढ़ पाना कतई संभव नहीं था- एक तो मेरे शिक्षक पिता की मेरी पढ़ाई पर चौकन्नी निगाह रहती थी, दूसरे मेरे गांव के ही एक टीचर मिडिल स्कूल में हमारे मास्टर थे।

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इन्हीं कश-म-कश भरे भयभीत दिनों में छुट्टी के रोज कोठे के जंगले पर कापी-किताब फैलाए, उनके बीच रखकर मैं चंद्रकांता उपन्यास पढ़ने लगा। मेरा मन कभी नौगढ़ के राजकुमार वीरेंद्र के विश्वस्त दोस्त और अय्यारी में उस्ताद तेज सिंह के साथ तो कभी विजयगढ़ की राजकुमारी चंद्रकांता की विश्वस्त चपला के साथ नौगढ़-विजयगढ़ के बीच कर्मनाशा के घनघोर दुर्गम जंगलों में विचरण करने लगा। एक बार लंबे सफर से थके-मांदे और प्यासे तेज सिंह कर्मनाशा का पानी पीकर बगुलघट्टा यानी बगुलों वाले घाट पर जब एक चट्टान पर लेटे विश्राम कर रहे थे तब पिताजी मेरे पीछे आकर कब खड़े हो गए, मुझे पता ही नहीं चला। उन्होंने पूछा- क्या पढ़ रहे हो? अचानक से उनकी उपस्थिति और सवाल सुनकर मैं बुरी तरह हड़बड़ा गया। उपन्यास छिपाने का अवसर नहीं था, मैं रंगेहाथ पकड़ा गया। मुझे दो तमाचे लगाते हुए उन्होंने हाथ से चंद्रकांता को छीन लिया।

– यह तुम्हें कहां मिली? किसने दिया?

मैं सरासर झूठ बोल गया- स्कूल से आ रहा था, धारागांव वाले ताल के भीटे के नीचे यह पड़ी हुई थी, उठा लाया।

फिर चंद्रकांता का क्या हुआ, मुझे पता नहीं चला।

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अगले रोज स्कूल गया तो वापसी में रामनरेश को सारा वाकया कह सुनाया। यह जानकर उनकी बेचैनी दूर हुई कि मैंने उनका नाम नहीं लिया था। चंद्रकांता पढ़ने के शुरू में ही जैसे रामनरेश ने घलुस्कू फार्मूला ईजाद किया और सफलतापूर्वक कई प्रतिबंधित पुस्तकें पढ़ डालीं, उसी तरह आधा-अधूरा चंद्रकांता पढ़कर भी मुझमें बगुलघट्टा समेत कर्मनाशा, उसकी चट्टानों और उसके जंगलों के प्रति गहरा आकर्षण पैदा हुआ। मुझे लगता कि कर्मनाशा नदी के किनारे-किनारे चलते हुए पता नहीं कहां-कहां अय्यार तेज सिंह और चपला ने पानी पिया होगा और न जाने किन-किन चट्टानों पर विश्राम किया होगा या दुश्मन पक्ष के किसी आदमी या लोगों के आने की आहट पाकर जंगल की किस झाड़ी-झुरमुट में छिपकर उनकी बातें सुनी होंगी।

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वैसे कहना होगा कि अभिभावकों के अनुशासन की लाठी के भय के बावजूद हमारे बचपन के दिनों में रोमांच की कमी नहीं थी। अपने खेल और खिलौने खुद तैयार करने से हमारे बचपन की शुरुआत हुई थी। नहर की गीली मिट्टी से गोलियां बनाकर सुखाना, उसी मिट्टी से बैल, हाथी, घोड़े और मिट्टी की पहिएदार गाड़ी बनाना। कुम्हार के घूमते चाक के पास बैठकर मिट्टी के लोंदे से दीये, कसोरे और घड़े बनाने का जादू हम घंटों देख सकते थे। थोड़े बड़े हुए तो साइकिल का फालतू टायर या रिम लुढ़काते हुए हम उसके साथ-साथ नहर पर दौड़ते थे। बगीचे में आम की वह मोटी डाल जो काफी नीचे तक झुककर गई थी, ऊंची जमीन के पास से उसपर चढ़कर हम घोड़े की सवारी करते थे। लेकिन कैंची साइकिल चलाने के अभ्यास के बाद जब मैं पहली बार गद्दीनशीन हुआ तो छुट्टी के दिन पिता से आशंकित पिटाई के बावजूद मैं पकरहट गांव का बगीचा पार करते हुए कर्मनाशा के किनारे-किनारे सीधे बगुलघट्टा पहुंचा। मेरे साथ गांव के मेरे सहपाठी निराला भी थे। बगुलघट्टा में छिछली कर्मनाशा नदी का आंचल बहुत दूर तक चौड़ाई में पसरा था, जैसे वह हमारी छोटी-सी दुर्बल नदी का आंगन हो। वहां नदी के पूरबी किनारे पर, पंगत में बैठे मेहमानों की तरह, बगुलों की पांत थी। वे एक कतार में खड़े मछलियों के भोज में तल्लीन थे। हम नदी के छलका पर साइकिल से आर-पार दो चक्कर लगाने के बाद नदी में एक चट्टान पर बैठ गए। मुझे लगा, यहीं कहीं चंद्रकांता वाले अय्यार तेज सिंह ने विश्राम किया होगा और यहीं कहीं चपला के साथ मिलकर नौगढ़ के राजकुमार वीरेंद्र और विजयगढ़ की राजकुमारी चंद्रकांता की मुलाकात की रूपरेखा बनाई होगी।

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