जनसत्ता वाले आलोक तोमर की खासियत थी। वह हर दुखी-पीड़ित की मदद को हमेशा तत्पर रहता था। कई मौकों पर आलोक तोमर को ऐसा करते देखा है। आलोक तोमर के ऐसे कुछ किस्से गिनाये-बताये हैं वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार हरीश पाठक ने अपनी प्रस्तावित पुस्तक में।
- हरीश पाठक
आलोक तोमर अब चितरंजन पार्क में रहने लगा था। दंगों के बाद जब जनजीवन सामान्य हुआ तो पूर्ववत मेरी शाम ‘जनसत्ता’ में ही गुजरती। चार दिन तक जब मैंने उसे एक ही कुरते में देखा तो पूछा, ‘यही कुर्ता रोज रोज? क्या हुआ?’
वह तपाक से बोला, ‘कुछ दिन पहले त्रिलोकपुरी के एक सज्जन आये थे। आते ही रोने लगे। वे बोले, ‘दंगों में मेरा सब कुछ लुट गया। बमुश्किल जान बची है। न खाने को कुछ है, न पहनने को। दंगाई सारे कपड़े तक जला गए। मैं उठा, उन्हें स्कूटर पर बैठाया, घर ले गया और धुले-धुलाये जितने भी कपड़े रखे थे, कुछ पैसों के साथ उन्हें सब दे दिए। आज आपके साथ आपकी प्रिय दुकान से कुछ कपड़े खरीद लाएंगे।’ उसी शाम कुछ शंकर मार्केट और कुछ रेमंड्स के शोरूम से हमने कुछ कपड़े आलोक के लिए खरीदे।
इसी तरह ‘स्वदेश’ के हमारे वरिष्ठ साथी त्रिमोहन सिंह चंदेल दिल्ली आये थे और चांदनी चौक में विदेशी सामान औने-पौने दामों में बेचने का नाटक करनेवालों के चक्कर में फंस गये। यह एक संगठित गिरोह होता है, जो पहले एक दुकान में सामान दिखा कर गोदाम से सामान लाने के बहाने आपसे पैसा लेता है। फिर वही लड़का हांफता हुआ आता है ‘छापा पड़ गया’ कहते खुद भी दौड़ता है, आपको भी दुकान के बाहर कर देता है। चंदेल जी इसी ठगी के शिकार हो गए।
वे मेरे पास आये, फिर हम दोनों आलोक के पास गए। वह हमें आमोद कंठ के पास ले गया। कंठ साहब तब दरियागंज इलाके के एसीपी थे और दरियागंज में ही बैठते थे। घुसते ही वह बोला, ‘कंठ साहब यह मेरे वरिष्ठ हैं और चांदनी चौक में लुट गए हैं। इनका पैसा, सामान वापस नहीं मिला तो मेरा पुलिस से ही विश्वास उठ जाएगा। वैसे मैं ‘जनसत्ता’ का क्राइम रिपोर्टर हूँ।’ कंठ साहब हंसे। उन्होंने एक अधिकारी के पास चन्देल जी को भेजा और कहा, ‘कुछ घँटे दीजिये। आरोपी भी सामने होगा, सामान भी।’ और लगभग 4 घँटे बाद आलोक के पास फोन आ गया। लॉकअप में आरोपी था और सामान, पैसा चंदेल जी के पास।
यही नहीं, एक दोपहर ‘धर्मयुग’ में मेरे पास आलोक का फोन आया। बोला, ‘हरिज्जि आपके एक कथाकार मित्र मेरे पास आये हैं। बेहद दुखी, परेशान। मैंने जब उन्हें सिगरेट ऑफर की तो रुआंसे हो कर बोले, ‘लोग मुझसे मिलने से कतराते हैं, तुम सिगरेट दे रहे हो? मैंने बैठाया, पूछा क्या हुआ? तो बोले बेरोजगार हूँ। बुरी हालत है। घर का सामान बिकने की नौबत है। जहाँ भी नौकरी की बात करने जाता हूं, वहाँ दोस्त लोग मेरी शराबखोरी की बात पहले ही पहुँचा देते हैं। कोई मिलता ही नहीं है।’ फिर कुछ रुका और बोला, ‘यह वही सज्जन हैं, जो ‘दिनमान’ की आपकी नौकरी खा गये थे? सतीश झा के पास यूनियन के लोग ले कर पहुंच गए थे?’
मैंने कहा, ‘वही हैं। दिल्ली के मित्र उनकी परेशानी के बारे में बता रहे हैं।’ हो सके तो मदद कर दो। वह बोला, ‘प्रभाष जी से मिलवा देता हूँ, फिर देखते हैं आगे क्या होता है।’ और उसने एक झटके में उस शख्स के जीवन की दशा और दिशा ही बदल दी। यह थी लोगों की मदद करने की आलोक तोमर शैली। बेहद आत्मीय, मानवीय और दबंगई से भरपूर।
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