- कृपाशंकर चौबे
पांक्तेय भाषाविद्, ख्यातिलब्ध साहित्यशिल्पी और कृती सम्पादक पंडित विद्यानिवास मिश्र (1926-2005) की स्मृति में उनके जन्मदिन के अवसर पर नमन! उनकी केंद्रीय कर्मभूमि वाराणसी में विद्याश्री न्यास द्वारा 2006 से प्रतिवर्ष समारोह आयोजित किया जाता रहा है। इस वर्ष कोरोना के कारण विद्याश्री न्यास ने 12-14 जनवरी 2021 को आनलाइन समारोह महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के साथ मिलकर आयोजित किया है। अपने दिवंगत लेखकों की स्मृतियों को मन-मस्तिष्क में सहेजकर रखना और उनसे जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा लेना हमारी संस्कृति है। दयानिधि मिश्र ने उत्तर प्रदेश के पुलिस उपमहानिरीक्षक पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद परिजनों व शुभेच्छुओं के साथ मिलकर कृपाशंकर चौबे ने पांक्तेय भाषाविद् विद्यानिवास मिश्र की स्मृति में विद्याश्री न्यास की स्थापना की। दयानिधि जी इस न्यास के सचिव हैं।
पांक्तेय भाषाविद् विद्यानिवास मिश्र स्मृति समारोह के अंतर्गत राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जाता है, जिसमें किसी महत्वपूर्ण विषय पर विभिन्न सत्रों में विचार-मंथन होता है। विचार गोष्ठी के साथ ही कविगोष्ठी एवं अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं। वर्ष 2009 से राष्ट्रीय संगोष्ठी के साथ भारतीय लेखक-शिविर की संकल्पना भी जुड़ गई है। यह सब पंडितजी की प्रकृति व धारणाओं को साकार करने के प्रयत्न में उन्हीं का अनुगमन है। कार्यक्रम के अनिवार्य आयाम के रूप में ‘युवा समवाय’ के अन्तर्गत युवा प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने के लिए निबंध व कविता-प्रतियोगिता का आयोजन भी उन्हीं की संकल्पना को मूर्त करने का एक सांकेतिक उपक्रम है। इस अवसर पर साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान के लिए कवियों-लेखकों और युवा प्रतिभाओं को सम्मानित भी किया जाता है।
विद्याश्री न्यास के कार्यक्रमों में पूरे देश से रचनाकारों, चिंतकों, अध्येताओं एवं शोधार्थियों की भागीदारी की एक समृद्ध परंपरा विकसित हो चुकी है। समय-समय पर उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान, केंद्रीय हिंदी संस्थान, साहित्य अकादमी, विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों का सक्रिय सहयोग भी विद्याश्री न्यास के सारस्वत अनुष्ठानों को मिलता रहा है। हर विचारधारा के लेखक पांक्तेय भाषाविद् विद्यानिवास मिश्र स्मृति समारोह में बढ़-चढ़कर भाग लेते रहे हैं। यह पं. विद्यानिवास मिश्र के ही व्यक्तित्व व कृतित्व का आकर्षण है कि सारे वैचारिक दुराग्रह उन तक आते-आते खत्म हो जाते हैं।
विद्यानिवास जी यह विवेक देते हैं कि हमें अपनी मेधाओं का सम्मान वैचारिक दुराग्रह से ऊपर उठकर करना चाहिए। विद्यानिवास जी ने मुझे दिए एक साक्षात्कार में वैचारिक दुराग्रह के संदर्भ को उठाते हुए कहा था, “आज आलोचना शिविरों में बंध गई है। नामवरजी की शैली ठीक है। वे सहृदय हैं पर रामविलास जी सहृदय कम हैं। राम स्वरूप चतुर्वेदी, प्रेमशंकर, राममूर्ति त्रिपाठी ढंग से आलोचना करते हैं।” वह साक्षात्कार ‘प्रभात खबर’के 15 अप्रैल 1990 के अंक में छपा था। बाद में वाणी प्रकाशन से छपी मैंने अपनी पुस्तक ‘संवाद चलता रहे’ में उसे शामिल किया। विद्यानिवास जी की स्मृति को नमन करते हुए उनका पत्र आप सबसे साझा कर रहा हूं।
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