- शेष नारायण सिंह
महात्मा गांधी राजनीतिक आजादी के बाद कांग्रेस को समाप्त कर देना चाहते थे। राजकाज के लिए नया संगठन चाहते थे। राजनीतिक विचारक ऐसा ही मानते हैं।महात्मा गांधी का कहना था कि कांग्रेस एक संघर्ष के वाहक के रूप में तो बिलकुल सही थी, लेकिन राजकाज चलाने के लिए एक नए संगठन का विकास किया जाना चाहिए। कांग्रेस को वे सामाजिक परिवर्तन के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे।
उन्होंने गावों के विकास को केंद्र में रखकर देश के विकास का सपना देखा था। उन्होंने कहा था कि भारत के आज़ाद होने के बाद यहाँ ग्राम स्वराज आयेगा। देश को विकसित करने के लिए गांव को विकास की इकाई बनाया जाएगा और गाँवों की सम्पन्नता ही देश की सम्पन्नता की यूनिट बनेगी। लेकिन आजादी के बाद ऐसा नहीं हो सका। अपने देश में ब्लाक डेवलपमेंट के माडल को अपनाया गया। आजादी के बाद देश में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए शुरू किये गए कार्यक्रमों में यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यक्रम था।
उस वक़्त की सरकार ने कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के ज़रिये महात्मा गांधी के सपनों के भारत को एक वास्तविकता में बदलने की कोशिश शुरू कर दी। महात्मा जी के जन्मदिन के दिन 2 अक्टूबर 1952 में भारत में कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम की शुरुआत की गयी थी। इस योजना में खेती, पशुपालन, लघु सिंचाई, सहकारिता, शिक्षा, ग्रामीण उद्योग आदि को शामिल किया गया था। अगर ठीक से लागू किया गया होता तो ग्रामीण जीवन में बड़े बदलाव आ सकते थे, लेकिन गाँव से लेकर देश की राजधानी तक मौजूद नौकरशाही और नेताओं ने भ्रष्टाचार के रास्ते सब कुछ बर्बाद कर दिया। इस तरह महात्मा गांधी के सपनों के भारत के निर्माण के लिए सरकारी तौर पर जो पहली कोशिश की गयी थी, सफल नहीं हुई। ग्रामीण भारत में शहरीकरण के तरह-तरह के प्रयोग हुए और जिसके कारण ही आज भारत उजड़े हुए गाँवों का एक देश है।
महात्मा गांधी अगर आज़ादी के बाद पांच साल भी जीवित रहे होते तो उनकी किताब ग्राम स्वराज में लिखी हुई अधिकतर बातें संभव हो गयी होतीं और शायद भारत आज एक अलग तरह का देश होता, लेकिन 30 जनवरी 1948 के दिन एक हत्यारे ने उनकी हत्या कर दी। उनकी शहादत के 73 साल बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि उन्होंने भारत के गाँवों के विकास के लिए कैसा सपना देखा था। बहुत सारी बातें उनके लेखों में दर्ज हैं। उनके लेखों से उनमें से कुछ बातों को संकलित करने का प्रयास मैंने इस लेख में किया है।
4 अगस्त 1946 के हरिजन में उन्होंने लिखा है कि “ गाँव की अवधारणा बहुत ही मज़बूत है। मेरी कल्पना के गाँव में एक हजार लोग होंगे। यह इकाई आत्मनिर्भर होगी और पूरी तरह संगठित होगी।” हरिजन (10 नवंबर 1946) के लेख में लिखते हैं कि “गाँव वालों को अपने कौशल का इतना अधिक विकास कर लेना चाहिए, जिससे उनके द्वारा बनाए हुए सामान के लिए बाज़ार बहुत आसानी से उपलब्ध हो जाये। जब हमारे गाँवों का पूरा विकास हो जाएगा तो वहां उच्च कौशल की योग्यता और कला के जानकारों की कमी नहीं रहेगी। गाँव में कवि होंगे, कलाकार होंगे, ग्रामीण वास्तुविद, भाषावैज्ञानिक और शोधकार्य करने वाले लोग होंगे। संक्षेप में कहा जाये तो गाँव में ऐसी किसी भी चीज़ की कमी नहीं होगी, जिसकी ज़रूरत पड़ सकती है। आज (1946 में) तो गाँव गोबर के भीट जैसे हैं, लेकिन कल वहां स्वर्ग जैसे बगीचे होंगे। वहां रहने वाले लोग ऐसे होंगे, जिनका कोई भी शोषण नहीं कर सकेगा और उनको कोई धोखा नहीं दे सकेगा। इस तरह के गाँवों के पुनर्निर्माण का काम तुरंत (नवंबर 1946) शुरू हो जाना जाहिए। गाँवों के पुनर्निर्माण का काम स्थायी तौर पर किया जाना चाहिए। कला, स्वास्थ्य, शिल्प और शिक्षा को एक ही स्कीम में मिला देना चाहिए। नई तालीम इन चारों को समेकित करने का अच्छा माध्यम है और यह इन सभी बातों को साथ लेकर चलती है। इसीलिये मैं ग्रामीण विकास को संचाबद्ध तरीके से न करके सभी चारों पक्षों को साथ लेकर चलना चाहूँगा। अगर गाँवों के पुनर्निर्माण के काम में स्वच्छता को न शामिल किया गया तो हमारे गाँव वैसे ही गंदे रहेंगे, जैसे कि आज हैं। ग्रामीण स्वच्छता को विकास के जरूरी अंग के रूप में लेना पड़ेगा, क्योंकि अगर ऐसा न किया गया तो गाँव रहने लायक नहीं रह जायेंगे। सदियों से चली आ रही गंदगी की प्रवृत्ति से ग्रामीण जीवन को मुक्ति दिलाना बहुत बड़ा काम है। ग्रामीण विकास के काम में लगे हुए लोगों को ग्रामीण स्वच्छता के विज्ञान की जानकारी होनी जरूरी है। अगर उनके पास यह जानकारी नहीं है तो उनको ग्राम विकास के काम में नहीं लगाया जाना चाहिए।
नई तालीम और बुनियादी शिक्षा को लागू किये बिना करोड़ों बच्चों को शिक्षा दे पाना असंभव होगा। इसलिए ग्रामीण विकास के काम में लगाये जाने वाले कर्मचारियों को इस विधा में दक्ष होना पड़ेगा और उसको बुनियादी शिक्षा का शिक्षक बनना पड़ेगा। बुनियादी शिक्षा से ही प्रौढ़ शिक्षा की शुरुआत हो जायेगी। बच्चे खुद ही अपने माता-पिता को पढ़ाने लगेंगे। औरत को पुरुष की अर्धांगिनी कहा जाता है। इसलिए जब तक औरत को भी वही अधिकार नहीं मिलते, जो पुरुषों को हैं, जब तक लड़की पैदा होने पर वैसी ही खुशी नहीं मनाई जाती, जैसी लड़के के जन्म के समय मनाई जाती है, तब तक हमको मालूम होना चाहिए कि भारत को आंशिक रूप से लकवा मार गया है। औरत को पीड़ा देना अहिंसा का विरोध करना है, इसलिए ग्रामीण विकास में लगा हर कार्यकर्ता हर औरत को अपनी माँ, बहन या बेटी की तरह ही सम्मान देगा। इस तरह का कर्मचारी ग्रामीण लोगों के सम्मान का हकदार होगा….अस्वस्थ लोगों के लिए स्वराज हासिल कर पाना असंभव है। इसलिए हमें अपने लोगों के स्वास्थ्य को नजरअंदाज़ नहीं करना चाहिए। ग्रामीण कर्मचारियों को स्वास्थ्य की बुनियादी जानकारी होनी चाहिए…….
एक ऐसी भाषा, जो सब के लिए सामान्य हो, बहुत ज़रूरी है। ऐसी सामान्य भाषा के बिना कोई राष्ट्र अस्तित्व में नहीं आ सकता। हिंदी, हिन्दुस्तानी और उर्दू के विवाद में पड़े बिना ग्रामीण कर्मचारी को राष्ट्रभाषा की जानकारी लेनी चाहिए। राष्ट्रभाषा ऐसी हो, जिसको हिन्दू-मुस्लिम सभी समझ सकते हों। अंग्रेजी के प्रति हमारे प्रेम ने हमको क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति बेवफा कर दिया है। ग्रामीण स्तर पर काम करने वाले कर्मचारी को चाहिए कि वह गाँव वालों को उनकी अपनी भाषा पर गर्व करने और अन्य राज्यों की भाषाओं का सम्मान करने की भावना के लिए प्रेरित कर सके। अन्य क्षेत्रों की भाषाओं को सीखने के लिए उत्साहित भी किया जाना चाहिए।
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यह सारा कार्यक्रम बालू पर बनी दीवाल जैसा होगा, अगर यह आर्थिक समानता की मज़बूत बुनियाद पर नहीं बनाया जाएगा। आर्थिक समानता का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि सबके पास एक जैसी ही वस्तुएं हों। हमारी दृष्टि में आर्थिक समानता का मतलब यह है कि सबके पास रहने के लिए एक उचित मकान हो, संतुलित और पर्याप्त भोजन हो, जरूरत भर को खादी के कपडे हों। अगर ऐसा हुआ तो आज की जो निर्दय गैरबराबरी है, उसको अहिंसक तरीके से खत्म किया जा सकेगा।“
ग्रामीण भारत की जो कल्पना महात्मा गांधी ने की थी, उसको यदि हासिल कर लिया गया होता तो आज देश की हालत बहुत ही अच्छी होती। ज़ाहिर है, आज भारत की दशा वैसी नहीं है, जिसका सपना महात्मा गांधी ने देखा था।
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