- भारत यायावर
साहित्य अकादेमी पर फणीश्वरनाथ रेणु के स्पष्ट विचार थे। 1973 में साहित्य अकादेमी का उन्हें सदस्य बनाया गया था। उन्होंने अनुभव के आधार पर अपने विचार दिये थे। चार मार्च को दिनमान के पत्रकार त्रिलोक दीप पटना के काफी हाउस में जाकर उनके जन्मदिन के उत्सव में शरीक हुए। उन्होंने रेणु से साहित्य अकादेमी की पुरस्कार नीति पर राय ली।
फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी दो टूक राय रखी। उन्होंने बताया कि लेखक अपने प्रारंभिक दौर में ही ऊर्जावान और उत्साही रहता है। इसी उम्र में कुछ क्रान्तिकारी विचार आते हैं। विचारों में कुछ आग होती है। उम्र ढलने के साथ वह आग बुझ जाती है। किसी की कृति का मूल्यांकन उसकी प्रारम्भिक पुस्तक के आधार पर करना चाहिए।
यदि आग रहते सम्मान नहीं किया तो चुक जाने के बाद तो निर्जीव शरीर को सुन्दर कपड़े पहना देने के बराबर है। चाहिए यह भी कि जो तथाकथित क्रांतिकारी, नक्सलवादी या और उग्रवादी साहित्य है उस पर भी पूर्ण विचार हो, बातचीत हो तभी पुरस्कार देने की घोषणा की जाए।
रेणु ने आगे यह विचार दिया कि राष्ट्रीय पुस्तक न्याय यानी NBT किताब छापने का काम करे तथा साहित्य अकादेमी पुस्तक को परखने का कार्य करे। नये लोगों के विचार को तरजीह देनी चाहिए। मैं रचनात्मक क्रियाशीलता का पक्षधर हूँ। यहाँ रेणु ने क्रांतिकारी, नक्सली, उग्रवादी लेखकों के पहले तथाकथित शब्द लगाया है। तथाकथित को अंग्रेजी में so called कहते है। इसी को लोकभाषा में कहलाते कहते हैं।
रेणु कहते हैं कि उनके साहित्य का मूल्यांकन भी होना चाहिए। तथाकथित कह कर वे इन्हें पहले ही अप्रमाणिक, संदिग्ध और विवादास्पद मान लेते हैं। ऐसे तथाकथित लेखक विद्वता का नकाब पहनकर सबसे पहले दूसरे लेखकों को खारिज करते रहते हैं। नकारवाद को अपना हथियार समझते हैं। इनका भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए। ये कहने भर के लेखक हैं या नाम भर के लेखक हैं, इसकी पड़ताल भी होनी चाहिए।
(फणीश्वरनाथ रेणु की जीवनी का एक अंश)
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