राष्ट्रद्रोह पर 1962 में सुप्रीम कोर्ट का एक महत्पूर्ण निर्णय आया था, जिसमें कहा गया कि राष्ट्रद्रोह उसे माना जाएगा, जिससे समाज में हिंसा फैले। सुप्रीम कोर्ट के हाल के राष्ट्रद्रोह के मुदमों को भी उसी कसौटी पर परखने का निर्णय दिया है। क्या था 1962 का वह प्रसंग, इसे बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर
- सुरेंद्र किशोर
राष्ट्रद्रोह के एक मामले पर सुप्रीम कोर्ट का विचार देखें। 26 मई, 1953 को बिहार के बेगूसराय में एक रैली हो रही थी। फारवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदारनाथ सिंह रैली को संबांधित कर रहे थे। रैली में सरकार के खिलाफ अत्यंत कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कहा कि ‘सी.आई.डी.के कुत्ते बरौनी में चक्कर काट रहे हैं। कई सरकारी कुत्ते यहां इस सभा में भी हैं। जनता ने अंग्रेजों को यहां से भगा दिया। कांग्रेसी कुत्तों को गद्दी पर बैठा दिया। इन कांग्रेसी गुंडों को भी हम उखाड़ फकेंगे।’
ऐसे उत्तेजक व अशालीन भाषण के लिए बिहार सरकार ने केदारनाथ सिंह के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर किया। केदारनाथ सिंह ने हाईकोर्ट की शरण ली। हाईकोर्ट ने उस मुकदमे की सुनवाई पर रोक लगा दी। बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई। सुप्रीम कोर्ट ने आई.पी.सी. की राजद्रोह से संबंधित धारा को परिभाषित कर दिया।
20 जनवरी, 1962 को मुख्य न्यायाधीश बी.पी. सिन्हा की अध्यक्षता वाले संविधान पीठ ने कहा कि ‘देशद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है, जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा, असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े।’ चूंकि केदारनाथ सिंह के भाषण से ऐसा कुछ नहीं हुआ था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह को राहत दे दी।
हाल में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार वाले जजमेंट पर कायम हैं। देशद्रोह के हाल के कुछ मामलों को अदालत में 1962 के उस निर्णय की कसौटी पर ही कसा जाना चाहिए।
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