रेणु मानवीयता को स्थापित करने के लिए संघर्ष करने वाले लेखक हैं। वे भारतीयता का एक चेहरा हैं। एक अकेली आवाज हैं। दुनिया को जानने आपको बार-बार आना है! आते रहना है।
- भारत यायावर
वसंत अपने यौवन पर था। इस बार आम की डालियाँ मंजरियों से ऐसी लदी थीं मानो आम के पेड़ों ने पीला लिबास पहनकर फागुन को बेहद रंगीन बना दिया हो। सुगन्ध फैली हुई थी वातावरण में। कोयल खुशी से कूक रही थी। मैंने पूछा, “इस बार क्या है, जो ऐसी बहार छाई हुई है? मेरे कानों में कोई कह गया, “धरती के लेखक रेणु सौ बरस के हो गये! बस इसी ख़ुशी का इजहार है!”
एक हल्दी चिरैया कहीं से उड़ती हुई आयी और मेरे सामने बैठ गयी। उसने गौर से मुझे देखा। यह भीतर तक हाथ डालकर देखने वाली दृष्टि थी। वह मुझे परखना चाहती थी। उसने संस्कृत के तीन शब्द कहे और उसका अर्थ पूछा, “का कस्य परिवेदना!” मैं आश्चर्य में पड़ गया। अरे! यह तो फणीश्वरनाथ रेणु की वही दुर्लभ चिरैया है जो रेणु के ‘जुलूस’ उपन्यास के शुरू में ही आयी है। आज मेरे पास मेरी परख करने आयी है! रेणु की यह चिरैया तो स्वयं रेणु की ही संवेदना थी, जो उनसे पूछताछ करती रहती थी। वही हल्दी चिरैया वही प्रश्न दुहरा रही है, “का कस्य परिवेदना!”
मैंने पूछा, “इसका मतलब क्या होता है?” वह मुझे देखकर हंसने लगी, “तुम तो रेणुजीवी हो और मुझी से पूछ रहे हो? कैसे खोजी हो? झोला लटकाकर चल दिए, दाढ़ी बढा ली और बुद्धिजीवी समझने लगे! धिक्कार है तुम पर! तुम्हारी खोज पर!” मैं लज्जित हो गया। विनम्रता से कहा, “का का अर्थ है क्या, कस्य का अर्थ है किसकी और परिवेदना का अर्थ है समझ, समझदारी, ज्ञान! अर्थात् क्या और किसकी समझदारी? पूरा समाज विभाजित है। घर-घर में फूट पड़ी है। क्या यह समझदारी है? लोगों के मन में जातिवाद का जहर भरा हुआ है। क्या यह मनुष्य की समझदारी है? लोक संस्कृतिमूलक समाज की बात कहाँ गई? उसे तो कोई मानता ही। मुक्तिबोध ने सही कहा था कि मर गया देश और जीवित रह गए तुम? लोगों के जीवन का क्या होगा, जब राष्ट्रीय अस्मिता का लोप हो जाएगा? ”
मैं अपनी पूरी रौं में था। भावावेग से भरा था। आगे कहा, “यह मूर्तिपूजक समाज व्यक्ति पूजक बन गया। निज स्वार्थ में कितना गिर गया? क्या यह मनुष्य की समझदारी है?” मैं भावावेश में कहता ही जा रहा था। मेरे भीतर एक तड़प थी। मानवीयता के कितने ही प्रश्न थे, जो रेणु से मुझे जोड़ रहे थे।
वह खुश हो गयी! उड़ी और इस डाल से उस डाल पर बैठ गयी। फिर कहा, “सोचो! चिंतन करो! अन्वेषण करो! इन्हीं पंक्तियों का अनेकानेक वाक्यों में अनुवाद करो!” मैं हैरान था। मेरी विवेक की आंखें खुली हुई थीं। एक रहस्यमय सत्य साकार हो रहा था। मैं तो तथ्यपरक हो रहा था और उसके विश्लेषण की अद्भुत क्षमता मुझमें समाहित हो रही थी। मैंने कहा, “यह अच्छी परिवेदना नहीं है कि मनुष्य मनुष्य से अलगाव महसूस करे। वह ढकोसले में पड़ा रहे। वह जातिवादी होकर रह जाए। फिर किसी पार्टी का परिवारवादी ढांचे में बंध जाए!” वह छोटी चिरैया खुश हो गयी। उसने कहा, “ठीक कह रहे हो! मेरी बातों के मर्म को छूने की कोशिश कर रहे हो। आगे भी कहो, कहते रहो!” मैंने कहा, “सबसे महत्त्वपूर्ण है यह धरती और धरती के लोग! उनके जीवन की तकलीफ को दूर करना!
युद्ध करने से क्या जीवन की समस्या मिट जाएगी? लड़ाई-भिडाई से ज्यादा जरूरी है स्नेह, साहचर्य, सहयोग और ममता। ममता वह भाव है जो हर कुछ को अपने से जोड़ती है। यह सृष्टि अपनी है और सबकुछ अपना है, यह भाव ही समझदारी है। यह एक ऐसी भावधारा है, जिसके बिना विचारधारा का महत्त्व नहीं।” मेरी एक समझ थी, जिसका मैंने परिचय दिया था। हल्दी चिरैया खुश होकर अदृश्य हो रही थी और एक छायाकृति उभर रही थी। अरे! ये तो रेणु जी हैं, साक्षात्! मुझसे मिलने चले आए! लेकिन यह तो कोई स्वप्न नहीं है। एक आम का बूढ़ा पेड़ है। मंजरी का लबादा ओढ़े खड़ा। उसके मोटी जड़ें धरती को पकड़े उसके पैर हैं। जिस पर मैं बैठा हूँ। रेणु जी भी मेरे कंधे पर हाथ धर बैठ गये। वातावरण में वसंत राग बज रहा था। मैंने पूछा, “आपको गुज़रे तो जमाना हो गया है। अभी तो आपकी शताब्दी मनाई जा रही है। फिर आप कैसे दिखाई दे रहे हैं?”
उन्होंने कहा, “अरे पगलैट! जिसके मन में जो होता है, वही तो दिखता है!” मैं उतावली से भर रहा था। बहुत कुछ पूछना चाहता था। लेकिन सबसे पहला प्रश्न मैंने पूछा, “आपने पालिटिक्स क्यों छोड़ दी थी?” रेणु का चेहरा उदास हो गया ।एक पीड़ा भरी आवाज में विवेक की कौंध थी। उन्होंने कहा, “देखो, हमारा बहुत बड़ा राजनीतिक संगठन था। हमने किसानों के संगठन बनाए थे और उसका आन्दोलनकारी रूप था। हमने बड़े-बड़े जमींदारों से संघर्ष किया था। अपने साप्ताहिक पत्र ‘जनता’ में रिपोर्टिंग लिखा करता था। हमने देखा कि सत्तारूढ़ पार्टी पूरी तरह भ्रष्ट हो चुकी थी। उसने बहुत चालाकी से जनता को धर्म और जाति में बांट दिया था। वह सेवा और त्याग की जगह ऐश्वर्य के रास्ते पर चल रही थी। लेकिन हमारी राजनीति त्याग की थी। सत्ता के प्रतिरोध की थी। साधारण आदमी की बेहतरी के लिए हम राजनीति करते थे। लेकिन मैंने देखा कि मेरी पार्टी के लोग भी धीरे-धीरे धनलोलुप होते जा रहे हैं। उनका भी कांग्रेसीकरण होता जा रहा है। और आप देखिए कि मेरी सोशलिस्ट पार्टी आज कहां है? दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय चेतना वाली कम्युनिस्ट पार्टी थी, जिसमें मेरी आस्था थी कि यह मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाएगी। लेकिन इसमें कमरे में बैठकर एक पैग मारकर क्रांति बघारने वाले बढ़ते गये। क्या चे ग्वेवारा का टी शर्ट पहन लेने से कोई क्रांतिकारी बन जाएगा? लोगों का सामंतवादी व्यक्तित्व था, जिसे कोई छोड़ना नहीं चाहता था। धनलोलुपता तो पूरी भरी हुई थी। फल यह हुआ कि 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी टूट गयी। मैंने कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन पर तभी एक कहानी लिखी थी- ‘आत्मसाक्षी’। इस कहानी में अलगाव की पीड़ा है। इसके पात्र गनपत का हृदय ही मेरा हृदय है जो दरका हुआ है।”
यह जनता के लेखक का दिल था, जो धीरे-धीरे मेरी आंखों के आगे उजागर हो रहा था। राजनीति से मोहभंग ही कहीं न कहीं आजादी से भी मोहभंग की ओर ले जा रहा था। आगे की बातों में भी राजनीति थी। उन्होंने कहा, “फिर राजनीति के अखाड़े से बाहर निकल कर समाज को मैंने देखा, जिसका निरंतर विघटन हो रहा था। दरारें राजनीति और समाज दोनों में थीं। चौड़े पाट वाली दरारें इतनी गहरी थीं कि उन्हें पाटना मुश्किल था। मनुष्य का विस्थापन हो रहा था। समाज बिखर रहा था। राजनीति पतनशीलता की ओर लुढकती जा रही थी। संस्कृति मिटती जा रही थी। मानवीय मूल्यों को इस समाज में खोजना मुश्किल था, लेकिन मैंने खोजा। इसी खोज ने मुझे जीना सिखाया। और जब भ्रष्टाचार, पतनशीलता के खिलाफ छात्र आन्दोलन हुआ तो लगा कि दुनिया में अभी कुछ बाकी है। लेकिन बुरी शक्तियों का फिर से हावी हो जाना हमें डराता रहा है।”
फणीश्वरनाथ रेण मानवीयता को स्थापित करने के लिए संघर्ष करने वाले लेखक हैं। वे भारतीयता का एक चेहरा हैं। एक अकेली आवाज हैं। मैंने कहा, “हे लोकधर्मी कथाकार! दुनिया रोज बदल रही है। ऐसे में इसे जानने, समझने और समझाने आपको बार-बार आना है! आते रहना है।”
फिर वसंत की कोकिला कह उठी, “उठो! चलो! चलना ही रेणु को पाना है। मैला आँचल, परती परिकथा भारतीय जीवन के महाकाव्य हैं, उनको पढ़कर समझदारी बनानी है। समझ को धार देना है। जीवन बदलता है। बदलता ही रहता है। मूल चीज है चीजों को देखने की परिवेदना अर्थात् समझदारी।”
(लेखक से संपर्क- शवंतनगर, हजारीबाग- 825301, झारखण्ड, मो.- 6207 264 847, ई-मेलः [email protected]