- विशद कुमार
जयपाल सिंह मुंडा को भारतीय जनजातियों और झारखंड आंदोलन की पहली ईंट और आदिवासी नायकों के तौर पर देखा जाता है। उन्हें मरङ गोमके के तौर पर जाना जाता है। अत: उनके नाम के आगे मरङ गोमके (बड़ा मलिक) लगाया जाता है। उन्होंने ईसाई धर्म को स्वीकार करने के बाद भी अपने नाम में कोई बदलाव नहीं करके अपनी आदिवासीयत बरकार रखा। वे राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद्, खिलाड़ी, और कुशल प्रशासक होने की प्रतिभा के धनी थे। वे आदिवासियों को जनजाति कहे जाने के विरोधी थे। उनका मानना था कि आदिवासी यहां के मूल निवासी हैं, अत: वे जनजाति नहीं आदिवासी हुए।
बता दें कि 1912 में जब बंगाल से बिहार को अलग किया गया, तब उसके कुछ वर्षों बाद 1920 में बिहार के पाठारी इलाकों के आदिवासियों द्वारा आदिवासी समुहों को मिलाकर ‘‘छोटानागपुर उन्नति समाज’’ का गठन किया गया। बंदी उरांव एवं यूएल लकड़ा के नेतृत्व में गठित उक्त संगठन के बहाने आदिवासी जमातों की एक अलग पहचान कायम करने के निमित अलग राज्य की परिकल्पना की गई।
इसके बाद 1938 में जयपाल सिंह मुंडा ने संताल परगना के आदिवासियों को जोड़ते हुये ‘‘आदिवासी महासभा’’ का गठन किया। इस सामाजिक संगठन के माध्यम से अलग राज्य की परिकल्पना को राजनीतिक जामा 1950 में जयपाल सिंह मुंडा ने ‘‘झारखंड पार्टी’’ के रूप में पहनाया। मतलब आदिवासियों की अपनी राजनीतिक भागीदारी की शुरूआत जयपाल सिंह मुंडा ने की। 1951 में देश में जब लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ तो बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र में झारखंड पार्टी एक सबल राजनीतिक पार्टी के रूप विकसित हुई।
1952 के पहला आम चुनाव में छोटानागपुर व संताल परगना को मिलाकर 32 सीटें आदिवासियों के लिये आरक्षित की गईं, अत: सभी 32 सीटों पर झारखंड पार्टी का ही कब्जा रहा। वहीं लोक सभा चुनाव में वे सांसद चुने गए और अन्य चार संसदीय सीटों पर उनकी पार्टी विजयी रही। वे 1952 से मृत्युपरांत 1970 तक खूंटी से सांसद रहे। बिहार में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में झारखंड पार्टी उभरी तो दिल्ली में कांग्रेस की चिन्ता बढ़ गई। तब शुरू हुआ आदिवासियों के बीच राजनीतिक दखलअंदाजी का खेल। क्योंकि इस बीच 1955 में जयपाल सिंह मुंडा ने राज्य पुर्नगठन आयोग के सामने झारखंड अलग राज्य की मांग रखी। जिसका नतिजा 1957 के आम चुनाव में देखने को मिला। झारखंड पार्टी ने चार सीटें गवां दी तथा 1962 के आम चुनाव में पार्टी 20 सीटों पर सिमट कर रह गई। 20 जून 1963 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा के कार्यकाल में झारखंड पार्टी को पार्टी सुप्रीमो जयपाल सिंह मुंडा द्वारा तमाम विधायकों सहित कांग्रेस में विलय कर दिया गया।
जयपाल सिंह मुंडा का जन्म 3 जनवरी 1903 को खूंटी के टकरा पाहनटोली में हुआ था। इनके पिता का नाम अमरू पाहन तथा माता का नाम राधामणी था। इनके बचपन का नाम प्रमोद पाहन था। झारखंड के खूंटी के टकरा पाहन टोली स्थित खपड़ा व मिट्टी से बने जिस घर में जयपाल सिंह मुंडा का जन्म हुआ था, जो आज देखरेख के अभाव में ढह चुका है। उल्लेखनीय है कि उस कच्चे घर के अलावा जयपाल सिंह का कोई और घर नहीं था।
जयपाल सिंह मुंडा की प्रारंभिक शिक्षा उनके पैत्रिक गांव में ही हुई। ईसाई धर्म स्वीकार करने के कारण उन्हें सन 1910 में रांची के चर्च रोड स्थित एसपीजी मिशन द्वारा स्थापित संत पॉल हाईस्कूल में दाखिला मिला और यहीं से 1919 में प्रथम श्रेणी से मैट्रिक पास किया। सन 1920 में जयपाल सिंह को कैंटरबरी के संत अगस्टाइन कॉलेज में दाखिला मिला। सन 1922 में आक्सफोर्ड के संत जांस कॉलेज में दाखिला मिला। जयपाल सिंह मुंडा पहले आदिवासी थे जो भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हुए थे। लेकिन हॉकी के मोह के कारण अन्होंने सिविल सेवा से त्यागपत्र दे दिया था।
जय पाल सिंह मुंडा का शादी 1931 में कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष व्योमकेश चन्द्र बनर्जी की नतिनी तारा मजूमदार से हुआ था। तारा से उनकी तीन संताने हैं 2 बेटे वीरेंद्र और जयंत तथा एक बेटी जानकी। उनकी दूसरी शादी जहांआरा से 1954 में हुई, जिनसे एक पुत्र हैं जिनका नाम है रणजीत जयरत्नम।
बता दें कि ब्रिटेन में वर्ष 1925 में ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का खिताब पाने वाले जयपाल सिंह मुंडा हॉकी के एकमात्र अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे। उनके ही नेतृत्व और कप्तानी में भारत ने 1928 के ओलिंपिक का पहला स्वर्ण पदक हासिल किया था। अंतरराष्ट्रीय हॉकी में जयपाल सिंह मुंडा की कप्तानी में देश को पहला गोल्ड मेडल मिला था़।
बताते चलें कि जयपाल सिंह मुंडा को पादरी बनाने के लिए ही इंग्लैंड में उच्च शिक्षा के लिए भेजा गया था, लेकिन बाद में उन्होंने पादरी बनने से इंकार कर दिया। लंदन से लौट कर आने के बाद उन्होंने कोलकाता में बर्मा सेल में नौकरी जॉइन कर ली और बाद में रायपुर स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल नियुक्त हुए। इसी क्रम में कुछ दिनों तक बीकानेर नरेश के यहां राजस्व मंत्री की नौकरी भी की।
बीकानेर के राजा की नौकरी छोडने के बाद सन 1938 में आदिवासी महासभा का गठन किया। 1946 में जयपाल सिंह खूंटी ग्रामीण क्षेत्र से कांग्रेस के पूरनोचन्द्र मित्र को हरा कर संविधान सभा के सदस्य बने। आजादी के चार महिने बाद एक जनवरी 1948 को खरसावां गोली कांड हुआ, उन्हें खरसावां के हाट में एक सभा को संबोधित करना था, उन्हें सुनने और देखने के लिए हजारों आदिवासी दूर दूर से आए थे, लेकिन किसी कारण वश वे नहीं आ सके। इधर उड़िसा पुलिस ने उपस्थित भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग की जिससे हजारों लोग हताहत हुए थे। आज भी यहां एक जनवरी को काला दिन के रूप में मनाया जाता है। इस गोली कांड से वे काफी दुखी हुए थे। लोबीर सेन्द्रा और आदिवासिज्म उनकी दो महत्त्वपूर्ण किताबें हैं।
20 मार्च सन 1970 को दिल्ली में उनके निवास पर मस्तिष्क रक्तस्राव (सेरेब्रल हैमरेज) के कारण निधन हो गया। आज ऐसे ही महान नायक की पुनः जरूरत है जो आदिवासी समुदाय को एक सूत्र में बांधकर फिर उनका वैभवशाली इतिहास और सम्मान वापस करवा सके। जिन्होंने झारखंड राज्य की परिकल्पना, झारखंडी संस्कृति, अस्मिता एवं पहचान के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष किया। जयपाल सिंह मुंडा ने जिस तरह से आदिवासियों के इतिहास, दर्शन और राजनीति को प्रभावित किया, जिस तरह से झारखंड आंदोलन को अपने वक्तव्यों, सांगठनिक कौशल और रणनीतियों से भारतीय राजनीति और समाज में स्थापित किया, वह अद्वितीय है।
कहना ना होगा कि आजादी के 73 वर्षों बाद भी झारखंड के आदिवासियों के विकास में कोई बेहतर प्रयास नहीं किये गये। उल्टा नक्सल उन्मूलन के नाम पर आदिवासियों को उनके जंगल-जमीन से बेदखल करने का प्रयास होता रहा है। आए दिन उनकी हत्यायें हो रहीं हैं। विकास के नाम पर कारपोरेट घरानों का झारखंड पर कब्जे की तैयारी चल रही है। मजे की बात तो यह है कि जिन लोगों ने सत्ता के इस मंशा को पर्दाफाश करने की कोशिश की उन्हें माओवादी करार देकर उनपर फर्जी मुकदमे लाद दिए गए। तो दूसरी तरफ जिस अवधारणा के तहत झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ वह हाशिए पर पड़ा है।
सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेरेंज बताते हैं कि मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा में बहस करते हुए तीखी नसीहत दी थी। उन्होंने कहा था आप लोग आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते, बल्कि समानता और सह अस्तित्व उनसे ही सीखना होगा। आज जब देश की सत्ताधीश पार्टी महज 37.4% वोट पाकर शासन चला रही है, कार्पोरेट घराने विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों को बेतहासा नष्ट कर रहे हैं, तब आज के आदिवासियों का दायित्व है कि अपने बहु प्रतिभा के धनी जयपाल सिंह मुंडा द्वारा प्रारंभ किये गए लोकतंत्र, समानता और सह अस्तित्व जैसे मानवीय मूल्यों को आगे बढ़ाएं।
अनूप महतो कहते हैं कि यह तो हमसब जानते हैं कि जयपाल सिंह मुंडा झारखंड अलग राज्य आंदोलन के प्रथम जनक हैं, इन्होंने बंगाल, बिहार, उड़ीसा के आदिवासी बहुल आबादी को मिलाकर वृहद झारखंड की परिकल्पना की और अलग राज्य आंदोलन शुरू हुआ। आज जब झारखंड एक अलग राज्य के रूप में है वहीं एक तिहाई हिस्सा अभी भी झारखंड में शामिल नहीं हो पाया है। परंतु जो हिस्सा वर्तमान में झारखंड के पास है वहां के आदिवासियों को क्या अभी भी मौलिक अधिकार मिल पाया है? क्या आदिवासियों की जमीन अभी भी महफूज है? नहीं यहां तक कि आदिवासियों के स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार की भी कोई गारंटी नहीं है। मतलब जयपाल सिंह मुंडा के सपनों का झारखंड आज भी अपनी राह देख रहा है।
साहित्यकार अश्विनी पंकज तो सवाल करते हुए कहते हैं क्या 50 के दशक में आदिवासियों की जो समस्याएं थी वे खत्म हो गई हैं या बदल गई हैं? अगर आदिवासियों की समस्याएं बदली नहीं हैं, वहीं की वहीं खड़ी हैं, तो आज भी जयपाल सिंह मुंडा की प्रासंगिकता बरकरार है।
जनजातीय परामर्शदात्री परिषद के सदस्य रतन तिर्की कहते हैं कि जयपाल सिंह मुंडा की प्रासंगिकता आज भी वहीं है जो पहले थी। उन्होंने संविधान सभा में साफ कहा था कि आदिवासी को केवल आदिवासी कहा जाय और लिखा जाय। लेकिन आजतक की किसी सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। जबकि उन्होंने कहा था आदिवासियों को जनजाति कहना उनका अपमान है। दूसरी बात जयपाल सिंह मुंडा के विचारों पर किसी सरकार ने, पहले बिहार सरकार अब झारखंड सरकार ने आदिवासी समुदाय को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई है।
आजसू के संस्थापक अध्यक्ष प्रभाकर तिर्की कहते हैं कि अबतक जयपाल सिंह मुंडा को लेकर केवल खानापूर्ति हुई है। उनके द्वारा आादिवासियों के विकास को लेकर जो बातें की गईं, उसे 20 साल के झारखंड की सत्ता ने भी गंभीरता नहीं दिखाई।
सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों के लिए अलग देश नहीं परंतु इसी देश के अंदर आदिवासियों के लिए एक अलग व्यवस्था का डिमांड किया था। बाद में झारखंड राज्य के रूप में यह उभरकर सामने आया। जयपाल सिंह मुंडा के बारे में प्रचलित बातों को हमलोग देखे तो उनके बारे में एक नेगेटिव इमेज बनता है। लेकिन अगर हमलोग संविधान सभा के उनके बहसों को देखें तो उनके हर एक शब्द आदिवासियों के लिए कालजयी था। वे 19/12/1946 संविधान सभा में कहा था कि श्रीमान सभापति जी, मैं उन लाखों अज्ञात लोगों की ओर से बोलने के लिए यहां खड़ा हुआ हूं, जो सबसे महत्वपूर्ण लोग हैं, जो आजादी के अंजान लड़ाके हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं और जिनको बैकवर्ड ट्राइब्स, क्रिमिनल ट्राइब्स और ना जाने क्या क्या कहा जाता है। वे कहते थे कि हमलोगों में जाति व्यवस्था है ही नहीं, तो फिर हमें अनुसूचित जनजाति शब्द क्यों दिया गया। इसकी जगह वे आदिवासी शब्द ज्यादा पसंद करते थे। आज भी हमलोग बोलचाल एवं अन्य कई जगहों में आदिवासी शब्द का प्रयोग करते है, न कि अनुसूचित जनजाति का।
दीपक रंजीत कहते हैं, जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों के लिए अलग देश नहीं परंतु इसी देश के अंदर आदिवासियों के लिए एक अलग व्यवस्था की मांग की थी। बाद में झारखंड राज्य के रूप में यह उभरकर सामने आया। जयपाल सिंह मुंडा के बारे में प्रचलित बातों को हमलोग देखे तो उनके बारे में एक नेगेटिव इमेज बनता है। लेकिन अगर संविधान सभा के उनकी बहसों को देखें तो उनके हर एक शब्द आदिवासियों के लिए कालजयी था। वे 19/12/1946 संविधान सभा में कहा था कि श्रीमान सभापति जी, मैं उन लाखों अज्ञात लोगों की ओर से बोलने के लिए यहां खड़ा हुआ हूं, जो सबसे महत्वपूर्ण लोग हैं, जो आजादी के अंजान लड़ाके हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं और जिनको बैकवर्ड ट्राइब्स, क्रिमिनल ट्राइब्स और ना जाने क्या क्या कहा जाता है। वे कहते थे कि हमलोगों में जाति व्यवस्था है ही नहीं, तो फिर हमें अनुसूचित जनजाति शब्द क्यों दिया गया। इसकी जगह वे आदिवासी शब्द ज्यादा पसंद करते थे। आज भी हमलोग बोलचाल एवं अन्य कई जगहों में आदिवासी शब्द का प्रयोग करते है, न कि अनुसूचित जनजाति का।