बंगाल का वोटर किसी का सूपड़ा साफ़ करने से पहले प्रचंड समर्थन देता है

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बंगाल का वोटर सूपड़ा साफ़ करने से पहले प्रचंड समर्थन देता है। 2006 में ममता बनर्जी को 30 सीटें मिली थीं। लेफ्ट फ्रंट को भारी बहुमत से जीत मिल गयी थी।
बंगाल का वोटर सूपड़ा साफ़ करने से पहले प्रचंड समर्थन देता है। 2006 में ममता बनर्जी को 30 सीटें मिली थीं। लेफ्ट फ्रंट को भारी बहुमत से जीत मिल गयी थी।
  • सुनील जगदलवी

बंगाल का वोटर सूपड़ा साफ़ करने से पहले प्रचंड समर्थन देता है। 2006 में ममता बनर्जी को 30 सीटें मिली थीं। लेफ्ट फ्रंट को भारी बहुमत से जीत मिल गयी थी। लेकिन 2011 में ममता को भारी बहुमत मिला, जिसका सिलसिला जारी है। इस बार बंगाल के वोटर ने भाजपा को 76 सीटें देकर ट्रेलर दिखा दिया है।

2021 के विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की जबरदस्त वापसी, दीदी का कोई जादुई करिश्मा नहीं है। न “खेला होबे” के खेल में एक पैरों से मैदान मारने की इबारत ही है। यह मोदी के “दीदी! ओ दीदी!” की कटूक्ति का परिणाम भी नहीं है। आप कहेंगे तो फ़िर क्या है?

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इस आकलन का जवाब तलाशने के लिए आपको वर्ष 2011 में ममता बनर्जी को मिले प्रचंड बहुमत की सरकार से 5 वर्ष पूर्व 34 साल तक एकछत्र व निष्कंटक सरकार चलाने वाले मुख्यमंत्री ज्योति बसू के इस्तीफे, 2006 के विधानसभा चुनाव में बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में वामदल को सत्ता में बने रहने के लिए मिले जबरदस्त समर्थन व दो तिहाई बहुमत को समझना होगा। इसके साथ ही आपको 1972-77 के बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व में चली कांग्रेस सरकार के अचानक तिरोधान हो जाने वाली सत्ता और वामदल के शासन की आधारशिला के पीछे की मतदाताओं की बेचैनी को आधार बनाना होगा। तब आपको समझ आएगा कि 2021 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली देश की एकमात्र बच रही सबसे बड़ी जनाधारवाली क्षेत्रीय पार्टी तृणमूल कांग्रेस को मिली प्रचंड जीत के पीछे बंगाल के मतदाताओं ने अपना अंतिम और निर्णायक वोट क्यों दे दिया है।

दीदी इस एटॉमिक जनसमर्थन को अलार्म मान यदि अपनी नीति और रीति में परिवर्तन लाकर तुष्टीकरण की एकमात्र खामी व केंद्र से हर गलत-सही मुद्दे पर उलझने की तुनक व खुन्नस वाली राजनीति से बाज आती हैं तो 2026 के विधानसभा चुनाव के बाद भी उनकी पार्टी सत्ता में बनी रहेगी। अन्यथा पश्चिम बंगाल की सत्ता के गलियारे से बिल्कुल कांग्रेस और वामदलों की तरह पूरी तरह से जड़-मूल समेत उखाड़ कर फेंक दी जाएंगी।

सोचिए, देश में स्वतंत्रता के बाद से 15 अगस्त 1947 से 1948 तक प्रफुल्ल चंद्र घोष, फिर 1962 तक विधानचंद्र राय के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सरकार, इसके बाद 3 अप्रेल 1962 से 67 तक प्रफुल्ल चंद्र सेन। उसके बाद 1967 में असन्तुष्टि की वजह से अजय मुखर्जी के नेतृत्व में 9 माह तक पहली बार गठित कांग्रेस नीत संयुक्त फ्रंट के एक प्रयोग के बाद 21 नवम्बर 1967 को इंडिपेंडेंट प्रफुल्ल चंद्र घोष का 4 महीने का कार्यकाल। उसके बाद पहला राष्ट्रपति शासन, फिर अजय मुखर्जी का कांग्रेस नीत संयुक्त फ्रंट की एक माह की सरकार, फिर राष्ट्रपति शासन, फिर अजय मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की 4 महीने की सरकार, फिर राष्ट्रपति शासन और उसके बाद 20 मार्च 1972 में सिद्धार्थ शंकर राय की इंदिरा गांधी के वरदहस्त से पश्चिम बंगाल की कांग्रेस का सत्ता में उदय व ताजपोशी। फिर उनका निरंकुश शासन, राजनीतिक विरोधियों का दमन चक्र। बंगाल की बदहाली की चरम स्थिति। जिसका मुख्य कारण जहां स्वंत्रता के बाद 1947 से 1971 तक बंगाल में कांग्रेस की दो पूर्ण कालिक अदूरदर्शी व अंतिम कार्यालय में सिद्धांत शंकर राय की सत्ता मद में रक्त चरित्र की राजनीति की आधारशिला रखने वाली सरकार का विपक्षी पार्टी को देखो और मारो वाली दमनकारी राजनीति ने बंगाल की आम जनता को त्राहिमाम की स्थिति में पहुंचा देना था।

इस दौरान पश्चिम बंगाल में किसी भी तरह का विकास का ठहर जाना। 1947 के पूर्व लगे कल- कारखाने और उद्योगों का पतन, उद्योगपतियों द्वारा मजदूरों का भयानक शोषण, गांवों के किसानों, मजदूरों की बदहाली, धान की तीन फसल लेने वाले राज्य में चावल के लिए हताशा और किसानों का दमन, रोज़गार की किल्लत, भुखमरी, आकाल, राज्य में रक्त चरित्र का नंगा नाच, वाम समर्थकों की सरेआम सड़कों और चौराहों पर हत्या और किसी भी आरोप में जेलों में ठूंसा जाना, कहीं कोई सुनवाई नहीं, मुकदमों में पेशी नहीं, बचाव के लिए कोई गवाही नहीं।

इसी दौर में इंदिरा गांधी ने देश में अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को निरंकुश रखने के लिए इमरजेंसी लगायी थी। इस बीच पश्चिम बंगाल की जनता का धैर्य जवाब दे चुका था। उसने एक ऐसी पार्टी के प्रति अपना भरोसा जताया, जिसकी विश्वसनीयता स्वतंत्रता काल से ही संदेह के दायरे में थी। 1962 के चीनी आक्रमण के वक्त चीन के प्रति जो पार्टी उदार थी। इसके पीछे एकमात्र कारण था ग्रामीण सामन्तशाही से मुक्ति, कांग्रेस सरकार की उदासीनता की छात्र छाया में मिल मालिकों और उद्योपतियों द्वारा मजदूरों और किसानों का शोषण।

30 अप्रेल से 20 जून 1977 तक अंतिम राष्ट्रपति शासन व आपातकाल ने बंगाल की जनता को हवाई चप्पल, बिना प्रेस कुर्ता-पाजामा पहनने वाले व एक बीड़ी को दो बार बुझा-जला कर पीने वाले कॉमरेडों पर विश्वास जताने को मजबूर कर दिया। इसके बाद तो जैसे बंगाल की जनता ने सांपनाथ के जबड़े से निकल नागनाथ नहीं, बल्कि अजगर के ऐसी मृत्युपाश में चली गई कि पूरे 34 साल यानी बंगाल की पूरी एक पीढ़ी को यह तक पता नहीं चला कि लोकतंत्र में चुनाव और मतदान में उसकी सीधी भागीदारी भी होती है। वामदलों ने अपने सात विधानसभा चुनाव में अराजकता के रक्त चरित्र का ऐसा तांडव किया, जिसकी मिसाल भारत के किसी भी राज्य में अब तक नहीं  मिली। वामदलों के शासन काल में ही मुस्लिम तुष्टीकरण, बांग्लादेशी रिफ्यूजियों को वोट बैंक बनाने की आधारशिला भी रखी गई। और जब दोहराया भी गया तो फिर इसी पश्चिम बंगाल में।

ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस सरकार की 2006 से 2011 के बाद 2016 से 2021 की चुनावी अधिसूचना  तक दूसरे कार्यकाल में, कुछ हद तक वामपंथी शासनकाल से भी विभत्स और अधिक अराजक राजनीति की पराकाष्ठा तक का दौर लोगों ने देखा है। इसकी सबसे ताजा मिसाल बंगाल के ग्राम पंचायत चुनाव में देखने को मिली थी। टीएमसी समर्थक प्रत्याशियों के सामने किसी को खड़े होने की हिम्मत नहीं हुई। जो खड़े हुए और जीत गए, चुनाव के बाद गांव से पलायन करने बाध्य हो गए। कहां जाकर सर छिपाया, किसी को पता नहीं चला।

इस 10 साल के शासन में दीदी ने सिर्फ और सिर्फ अल्पसंख्यक कार्ड खेला। मस्जिद के मौलाना और मदरसे के मौलवियों को 15 से 25 हजार मासिक वेतन, इस्लामी रेडिक्लाइजेशन के उग्र प्रदर्शन को छूट, सड़कों, रेलवे प्लेटफार्म  पर कब्जा कर जबर्दस्ती नामाज़, मस्जिदों के गुम्बदों पर 4-4 लाउडस्पीकर, मुस्लिम छात्रों को विशेष छात्रवृत्ति। और, इसके उलट मुस्लिमों को संतुष्ट व एकमुश्त वोट की ख़ातिर दुर्गा पूजा, मूर्ति विसर्जन, होली, दीपावली में तमाम तरह की बंदिशें। मुहर्रम के ताजिये और बकरीद, ईद को खुली छूट। मुस्लिम प्रेम इतना कि दीदी मुस्लिम एदारों, मजलिसों, उनके धार्मिक जलसों में कलमा तक पढ़ती दिखीं।

कोलकाता के टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही मौलाना बरकती ने खुलेआम भारतीय संविधान व लालबत्ती को लेकर चैलेंज देने की हिम्मत दिखायी। मौलाना इद्रिश नार्थ 24 परगना के बारासात, बनगाँव व साउथ 24 परगना, पार्क स्ट्रीट, अलीपुर, बालीगंज, खिदिरपुर, मेटियाबुर्ज इलाके में लाखों की मजहबी भीड़ को उकसाते हुए रोहिंग्या और बांग्लालादेशी मुस्लिमों को नागरिकता दिए जाने और एनआरसी, एनपीआर, सीएए के विरोध में केंद्र सरकार के खिलाफ़ जंग करने की हुंकार भरने लगा। सभी कुछ दीदी की आंखों के सामने था। मग़र वे चुप रहीं।

जब इसको आधार बना कर भाजपा त्रस्त बंगाली बहुसंख्यक आबादी के साथ खड़ी हुई और उसे जबरदस्त जन समर्थन मिला, तब ममता बनर्जी की नींद खुली। उन्हें लगा कि अब बंगाल में तृणमूल की सत्ता की चूल कभी भी हिल कर धराशायी हो सकती है। इसके बाद उन्होंने बहुसंख्यकों की सुध लेनी शुरू की। मगर तब तक देर हो चुकी थी।

जनवरी 2021 के बाद जैसे ही बंगाल में भारतीय जनता पार्टी ने अपनी चुनावी रैली व जन सभा करनी शुरू की, हजारों-लाखों की भीड़ उसमें जुटनी शुरू हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के भाषणों पर बंगाल की जनता जबरदस्त प्रतिक्रिया देने लगी। रैली और मंचों से उछाले गए नारों पर जय श्रीराम के प्रति नारे लगने लगे। एकदम से लगा कि पूरे का पूरा बहुसंख्यक मतदाता पोलराइज्ड हो गया। अख़बार, न्यूज चैनल ऐसा दिखाने लगे कि जैसे ममता बनर्जी की तृणमूल सरकार बस चुनाव सम्पन्न होने तक की मेहमान है। “2 मई दीदी गई” के नारों ने, जय श्रीराम के उदघोष ने दीदी की नींद हराम कर दी। अचानक तृणमूल सरकार पर घोटाले और तोलाबाजी के कथित आरोपों से दीदी घिरती चली गईं। बंगाल और बंगाल से बाहर के प्रदेशों के राजनीतिक विश्लेषकों व आम लोगों तक ने मान लिया कि पश्चिम बंगाल में भाजपा की बहुमत वाली सरकार एकदम से तय है।

परन्तु वोटिंग के पहले और दूसरे चरण के बाद हवा हल्के-हल्के बदलने लगी। चौथे चरण के बाद पूरे देश में कोरोना को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों की नाकामियां चुनावी खबरों के बीच चर्चा में आने लगीं। पांचवें चरण के बाद महाराष्ट्र, दिल्ली, छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश में कोरोना के विकराल दूसरी लहर ने कहर बरपा दिया। उसके बाद अचानक आक्सीजन की कमी, फिर भारी किल्लत और उसके आभाव में कोरोना मरीजों के लगातार मरने की खबरों ने देश भर में पैनिक भर दिया।

कोरोना संक्रमण को लेकर लोग सरकार की उदासीनता पर सवाल खड़े करने लग गए। विपक्षी राजनीतिक पार्टियों ने अवसर देखा और सीधे केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। इसके बाद बंगाल चुनाव के 6 ठे से 8 वें चरण तक मतदाता पूरी तरह से चुप हो गये। आखिर में 2 मई 2021 के दिन सब कुछ पलट चुका था। ममता बनर्जी के समर्थन में अचानक से साइलेंट वोटरों ने, जिनमें विशेषकर प्रदेश की आधी आबादी महिलाओं ने दीदी के समर्थन में अपना मत प्रकट कर दिया। इनके अलावा भद्र बंगाली समाज ने भी एक बार विचार कर तृणमूल को ही चुनना उचित माना।

उसका परिणाम अब सामने है। नकारा मानी जा चुकी कांग्रेस और वामदल का पूरी तरह सफाया हो चुका है। जनता ने विकल्प के तौर पर अपना मौन समर्थन देकर भारतीय जनता पार्टी को 3 से 77 विधानसभा सीट देकर एक मजबूत विपक्ष को नई सरकार की चुनौती के तौर पर सदन में भेज दिया है। ऐसा ही बुद्धदेव भट्टाचार्य के दूसरे कार्यकाल को समर्थन देने के साथ टीएमसी को भी विधानसभा में भेजा था।

(लेखक से संपर्क- रायपुर (छत्तीसगढ़), मो.- 7999515385)

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