- ओमप्रकाश अश्क
समरस होना ही समर्थ या सामर्थ्यवान भारत की पहचान है। समरसता से मिली ताकत के कारण ही भारत जगत गुरु कहलाया और यही ताकत उसे और आगे ले जाएगी। जगत गुरु कहलाने वाला अपना हिन्दुस्तान है…। बचपन में शिशु मंदिर में पढ़ते हुए हर दिन इसे गाया करते थे। बाल मन को तब यह भान नहीं था कि यह पंक्ति अपने अंदर कितना बड़ा संदेश छिपाए बैठी है। बड़े होने पर इसका अहसास हुआ। तब समझ में आया कि अपने आर्यावर्त को अनायास ही जगत गुरु कहलाने का गौरव हासिल नहीं हुआ है।
सृष्टि के आरंभ से अब तक आर्यावर्त ने इसके सतत उदाहरण दुनिया के सामने पेश किए हैं। आर्यावर्त अगर आरंभ से अब तक सामर्थ्यवान बना रहा तो इसके पीछे इसकी सबसे बड़ी शक्ति समरसता है। आज के राजनीतिक मुहावरों में सामाजिक न्याय और सोशल इंजीनियरिंग जैसे जुमले उछाल कर यह साबित करने की कोशिश होती है कि अब तक समाज में समरसता जैसी कोई बात थी ही नहीं। ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि अपना आर्यावर्त ही है, जिसने सबसे पहले दुनिया में वसुधैव कुटुंबकम का संदेश दिया। समरसता का इससे बड़ा मंत्र और क्या हो सकता है?
भारत के सामर्थ्य को समझने के लिए राम और कृष्ण की कहानियां देखें-सुनें और पढ़ें तो आप उन लोगों की मंद या क्षुद्र बुद्धि पर तरस खाएंगे, जो आज राजधर्म के निर्वहन का दायित्य संभालने के लिए बेहद आतुर-उत्सुक हैं। उन्हें पता ही नहीं कि भारत की सबसे बड़ी ताकत तो सामाजिक समरसता ही रही है और इसका उत्स मानव सृष्टि-सभ्यता के आदिकाल से फूटता है। क्षत्रिय कुल में जनमे रघुकुल के राजकुमार राम को अगर भगवान का सर्वोच्च दर्जा मिला तो इसके पीछे उनका सामाजिक समरसता का आग्रही मानस, विवेक और आचरण ही था।
सामाजिक दायरे में शूद्र जाति की शबरी के जूठे बेर खाने से राम ने परहेज नहीं किया। कोल, भील और वानर जाति-प्रजाति के लोगों से भ्रातृवत मैत्री भाव रखने-अपनाने में राम को तनिक भी संकोच नहीं हुआ। दुराचार-अनाचार के प्रतीक असुरों का अगर राम ने संहार किया तो इसके पीछे सामाजिक समरसता से एकत्रित की गई उनकी शक्ति थी। वानर सेना ने रामेश्वरम बांध के निर्माण में जो अनथक प्रयास-प्रयत्न किया, वह राम के राजा होने के भय से नहीं, बल्कि मित्रता के आग्रह का नतीजा था।
कृष्ण की चर्चा किए बगैर तथाकथित सामाजिक सरोकार या सोशल इंजीनियरिंग के पैरोंकारों की असलियत को उजागर नहीं किया जा सकता। यादव कुल में पले-बढ़े कृष्ण ने गो पालकों, चरवाहों, सामान्य घरों की युवतियों से अपने सामाजिक संबंध बनाए। कृष्ण को आर्यावर्त वासियों ने भगवान का दर्जा दिया। क्या कभी किसी ने यह सवाल उठाया कि कृष्ण यदुवंशियों के ही भगवान क्यों नहीं बने। इसलिए कि आचरण से उन्होंने कभी सामाजिक समरसता नहीं तोड़ी।
अन्याय और अनाचार के पोषक, संरक्षक या आग्रही नहीं बने। कौरव-पांडवों के युद्ध में उन्होंने न्याय का साथ दिया। पांडवों को महाभारत का विजेता बनाने का प्रबंधकीय कौशल दिखाने के बाद भी उन्होंने कभी इसका श्रेय लेने का स्वार्थ मन में नहीं संजोया।
आर्यावर्त उन मनीषियों की भूमि है, जहां गौतम बुद्ध ने जन्म लिया। राजकीय ठाट छोड़ संसार में शांति और समरसता के लिए उन्होंने आजीवन भिक्षु बन कर जीना श्रेयस्कर समझा। पानी के बंटवारे को लेकर पिता की जिद से आहत बुद्ध ने इस तर्क के साथ गृह त्याग किया कि प्राकृतिक साधनों-संसाधनों पर किसी व्यक्ति या शासन-सत्ता विशेष का हक कैसे हो सकता है। आयावर्त में जनमे जितने महापुरुष हैं, सबके जीवन का सार सामाजिक समरसता में सन्निहित है। जीवन में उच्च आदर्श स्थापित करने में अगर वे समर्थ हुए तो इसके पीछे सामाजिक समरसता ही थी।
समरसता सामर्थ्यवान बनाती है। विश्व में भारत आज अगर सामर्थ्यवानों में शुमार है तो इसके पीछे समरसता ही है। मानव सभ्यता के इतिहास में कई ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे, जहां भारत ने अपने समरसता के आदर्श का दूसरों को भी आग्रही बना दिया। इसका पहला उदाहरण आयावर्त के उस सामाजिक मानक को माना जा सकता है, जिसमें मानव की सृष्टि मनु और श्रद्धा से स्वीकारी जाती है। कालांतर में किसी ने इस नाम को आदम और स्मिथ तो किसी ने आदम और हौवा अपने हिसाब से बना लिया। आर्यावर्त की आदि भाषा संस्कृत ने पितृ और मातृ शब्द का निर्माण किया तो इसे ही किसी ने फादर-मदर तो किसी ने पेदर-मादर कहा। आदि भाषा संस्कृत में भातृ शब्द था, उसे किसी ने बिरादर तो किसी ने ब्रदर बना लिया।
आर्यावर्त में हूड़, तुर्क, मुगल, पाठान और अंग्रेज आए। समरस भारत ने अपने आचारण के अनरूप उनको आत्मसात कर लिया। वे चले गए, उनके शासन का अंत हो गया, लेकिन भारत ने उनकी सभ्यता, समस्कृति पहनावे और खान-पान को अपने अनुरूप बना लिया। आज हम पुर्तगालियों की कमीज भी पहन लेते हैं तो पठानों का कुर्ता-पाजाम भी। अग्रेजों का पैंट-शर्ट पहनने में भी हमें कोई एतराज नहीं। अलबत्ता हमने अपने मनीषियों के सूत्र संदेश- समरसता को कभी नहीं छोड़ा। जो हमारे साथ रह गए, उन्हें हमने अपना लिया। कहने का तात्पर्य यह कि भाषा, समाज, व्यवहार और आचरण से आर्यावर्त ने अपनी समरसता और सामर्थ्य का सर्वदा बोध कराया है।
आर्यावर्त की समरसता का इससे सटीक उदाहरण क्या हो सकता है कि राम चरित मानस में तुलसी दास जी ने पर हित सरिस धरम नहिं भाई जैसा सूत्र सुझाया। विवेकानंद ने भी सेवा को सबसे बड़ा धर्म माना। उन्होंने सेवा को न सिर्फ धर्म, बल्कि मानव का इसे सबसे बड़ा कर्तव्य भी माना। उन्होंने कहा- दूसरों के प्रति हमारे कर्तव्य का अर्थ है- दूसरों की सहायता करना, संसार का भला करना। अब प्रश्न यह उठता है कि हम संसार का भला क्यों करें? वास्तव में बात यह है कि ऊपर से तो हम संसार का उपकार करते हैं, परंतु असल में हम अपना ही उपकार करते हैं।… एक दाता के ऊंचे आसमान पर खड़े होकर और अपने हाथ में दो पैसे लेकर यह मत कहो- ऐ भिखारी, ले, यह मैं तुझे देता हूं। परंतु तुम स्वयं इस बात के लिए कृतज्ञ हो कि तुम्हें वह निर्धन व्यक्ति मिला, जिसे दान देकर तुमने स्वयं अपना उपकार किया। धन्य पाने वाला नहीं होता, देने वाला होता है। इस बात के लिए कृतज्ञ हो कि इस संसार में तुम्हें अपनी दयालुता का प्रयोग करने और इस प्रकार पवित्र एवं पूर्ण होने का अवसर प्राप्त हुआ।
अब आप ही देखें कि विवेकानंद जैसे भारत के मनीषी सेवा धर्म को किस तरह कर्तव्य से बांध कर लोगों में परोपकार की भावना भरते रहे हैं। आर्यावर्त अगर समर्थ है तो परोपकार की भावना से पैदा हुई समरसता ही इसका मूलाधार है।
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