कला की दुनिया में गणेश पाइन की कलाकृतियां बहुआयामी रही हैं

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कला की दुनिया में गणेश की पाइन बहुआयामी कलाकृतियां रही हैं। भारत उनकी सर्जनात्मक कृतियों पर गर्व महसूस करता है।
कला की दुनिया में गणेश की पाइन बहुआयामी कलाकृतियां रही हैं। भारत उनकी सर्जनात्मक कृतियों पर गर्व महसूस करता है।
  • कृपाशंकर चौबे
कृपाशंकर चौबे
कृपाशंकर चौबे

कला की दुनिया में गणेश की पाइन बहुआयामी कलाकृतियां रही हैं। भारत उनकी सर्जनात्मक कृतियों पर गर्व महसूस करता है। भारत जिन शख्सियतों पर गर्व कर सकता है, उनमें एक प्रमुख नाम गणेश पाइन (11 जून 1937-12 मार्च 2013) का है। गणेश पाइन की कलाकृतियों में गहराई है और दर्शक को भीतर तक झकझोर देने की शक्ति भी। उन्होंने चित्रकला की थीम आम जन को बना कर इसे व्यापकता देने का प्रयास किया। लेकिन तथ्य यह भी है कि चित्रकला व्यक्तिगत साधना की चीज है और उसी में उसकी सार्थकता है। व्यक्तिगत रूप से ध्यानमग्न होकर काम करने पर ही गणेश दा दुर्गा, फ्लावर, बायोग्राफी, द मास्क, द क्रिएटर, मैन एंड बिस्ट, बैंकेट रुम, थर्स्ट आफ ए मिनस्ट्रल समेत अनेकानेक बैगर शीर्षक की किंतु मूल्यवान चित्रकृतियां बना सके।

एक संभ्रांत बंगाली परिवार में 11 जून 1937 को जन्मे गणेश पाइन ने कोलकाता के गवर्नमेंट कालेज ऑफ आर्ट्स एंड क्राफ्ट से चित्रकला की विधिवत पढ़ाई की। चित्रकला में डिग्री लेने के बाद उनकी सृजन यात्रा शुरू हुई जो आजीवन जारी रही। उनकी चित्रकृतियों की प्रदर्शनी भारत के विभिन्न स्थानों के अलावा जापान, जर्मनी, ब्रिटेन, सिंगापुर, अमेरिका आदि देशों में कई बार लगी। गणेश पाइन उन कलाकारों में थे जिनकी पेंटिंग की माँग और कीमत दोनों शीर्ष पर रही। उनकी चित्रकृतियां भारत, जापान और जर्मनी में संग्रहीत हैं।

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गणेश पाइन ने बचपन से ही चित्र बनाना शुरू कर दिया था। पेंटिंग करना उनके लिए खेल की तरह था। वे इसे अकेले खेलते थे। स्लेट पर चित्र बनाते हुए या अभ्यास पुस्तिका में पेंटिंग करते हुए। स्कूल में गए तो एक मैगजीन में अवनींद्रनाथ टैगोर का बनाया चित्र देखा और ठगे रह गए। उस चित्र ने सीधे गणेश पाइन के हृदय को स्पर्श किया था। तब उन्हें लगा कि हाँ चित्र ऐसा ही होना चाहिए। जिस अवनींद्रनाथ ठाकुर ने गणेश पाइन के बाल मन को उद्वेलित कर दिया था वे वही अवनींद्र थे जिन्होंने कूची, कैनवास और रंग के साथ भारत के स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था। अवनींद्रनाथ ठाकुर ने भारत माता की जो पेंटिंग बनाई थी, उसने पूरे बंगाल के विप्लवियों में नई ऊर्जा का संचार किया था। विप्लवी जुलूसों में वह चित्रकृति लेकर जाते थे। सिस्टर निवेदिता भी उससे ऊर्जस्वित हुई थीं। अवनींद्रनाथ का भारत माता का बनाया चित्र बैनरयुक्त करके आंदोलनकारी काफिले निकलते थे। सिर्फ भारत में ही नहीं, विदेशों में भी शिल्पियों ने जनांदोलनों में अपनी तईं भाग लिया। अंग्रेजों के जोर-जुल्म और तोप से उड़ाए जाने की सच्चाई को एक रूसी चित्रकार ने चित्रित किया था और हिटलर की दमनकारी नीति को पिकासो ने अपनी चित्रकृति में दर्शाया था। यानी भारत में ही नहीं, दुनियाभर में कलाकारों ने लोक संघर्षों को वाणी दी है। बहरहाल अवनींद्र की चित्रकृति ने गणेश पाइन के भीतर एक  विस्मय भाव भी जगाया था। विस्मय ऐसी अनुभूति है जो आँखों देखी आकृति को अनुभव करने और उसका अंकन करने में सहायता पहुँचाती है।

गणेश पाइन जब बच्चे थे, तभी पिता की मृत्यु हो गई। फलतः नौ साल की उम्र में ही घर छोड़ देना पड़ा। कभी इस स्वजन के यहाँ, कभी उस स्वजन के यहाँ। सिटी कालेज से इंटरमीडिएट करने के बाद नौकरी करने की सोचने लगे क्योंकि अभावग्रस्त जीवन था। पर चाचाओं ने नौकरी नहीं करने दी। छोटे चाचा ने कहा कि पेंटिंग बनाते हो तो आर्ट कालेज में भर्ती हो जाओ। गणेश सीधे सेकेंड ईयर में भर्ती हुए। आर्ट कालेज से पढ़ाई पूरी कर निकले तो फिर अनिश्चय ने आ घेरा। रंग खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे। पत्र-पत्रिकाओं के लिए रेखांकन करने लगे, विज्ञापन का मैटर आँकने लगे, कार्टून फिल्मों से जुड़े। नाम मात्र के वेतन पर मंदार स्टूडियो में नौकरी की, लेकिन पेंटिंग भी साथ-साथ चलती रही। संघर्षों में भी आगे बढ़ने की प्रेरणा उन्हें बंगाल के तत्कालीन परिवेश ने दी। बंगाल के सांस्कृतिक परिवेश का उनके शिल्पी के निर्माण में काफी योगदान रहा। दादी माँ का भी योगदान था। दादी माँ गणेश को प्यार देती थीं और माँ शासन करती थीं। दादी माँ बहुत सारी कहानियाँ सुनातीं, गणेश चकित होकर सुनते और उन कहानियों के पात्रों की कल्पना करते और उस कल्पना को चित्र में उतारने की कोशिश करते। प्राप्त की हुई चीज को पहले चित्रकार अपने भीतर उतारता है, आत्मसात करता है, फिर उसे भिन्न रूपों में अपनी कल्पना के मुताबिक आकार देता है। उसकी कला में रहस्य का एक आवरण होता है, उस आवरण को हटाएँ तो कई आशय प्रकाश में आ जाते हैं, जो विशिष्ट आकार अंत: विन्यस्त होता है, उसके लिए भी यही बात सही है। चित्रों की दुनिया में गणेश पाइन इसी तरह आए। गणेश पाइन के व्यक्तिगत जीवन में दुःखों की फेहरिश्त बहुत लंबी रही। बचपन में पिता का साया उठा और उसके बाद 1980 में बड़े भाई की मृत्यु हो गई। उससे गणेश टूट गए। अनेक दिनों का उनका आश्रय जो खत्म हुआ था। उसके पहले छोटे चाचा और मझले चाचा की मृत्यु हुई थी। स्वजनों की मृत्यु ने गणेश पाइन को बहुत वेदना दी, जिसकी अभिव्यक्ति उनके अनेक चित्रों में हुई है। कहना चाहिए कि गणेश पाइन के चित्र ही उनकी जीवनी हैं। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ी, उनमें एक तरह का परिवर्तन आया, कहीं से निर्लिप्त हुए, कहीं मग्न।

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जिस परिवेश में गणेश पाइन पले-बढ़े, उसमें खूब सांस्कृतिक सक्रियता थी। बहुधा ये सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी विरोधी सांस्कृतिक गतिविधियाँ थीं। उसी परिवेश में गणेश पाइन चित्रांकन करते थे। बंगाल की जातीय संस्कृति और सांस्कृतिक माहौल ने उन्हें अनवरत प्रेरित करने का काम किया। गणेश पाइन ने पचास के दशक में जलरंग से अपनी कला यात्रा शुरू की थी। मिट्टी के रंग ही उनके प्रमुख रंग रहे। तेल-जल और स्याही के मिश्रित माध्यम में भी उन्होंने चित्र बनाये। ‘कंटी’ चित्र भी बनाये। कंटी फ्रांस की एक चित्रांकन विधि है जिसमें सिर्फ लाल और काले रंग का इस्तेमाल होता है। लेकिन कलम, स्याही, जलरंग, कंटी के बाद गणेश पाइन धीरे-धीरे टेंपरा में आए और फिर तो उसी में रम गए। हालाँकि अपना अलग टेंपरा बनाने में उन्हें दस साल लग गए। यूरोपीय पद्धति और भारतीय मिनिएचर पद्धति को मिलाकर उन्होंने अपनी अलग टेंपरा विधि ईजाद की। यह शैली गणेश पाइन के मिजाज से बहुत मिलती-जुलती थी। यह मनुष्य के मन की तरह है। मनुष्य के मन में जैसे अनेक परतें हैं, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर भावनाएँ हैं, उसी तरह टेंपरा में रंग के नीचे रंग, उसके नीचे भी रंग होता है। रंग को रंग की चादर से ढँक देने का खेल अद्भुत होता है। इसे गणेश पाइन ने कुशलतापूर्वक साधा। जिस माध्यम में गणेश दा चित्रकृति बनाते थे, तो वह माध्यम उनके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता था और उस माध्यम से पहले सामंजस्य बिठाते थे। उनकी कलाकृतियों में दूसरी महत्वपूर्ण बात होती थी-रंग और तीसरी बात थी चित्रकृति की विषयवस्तु। वे निर्लिप्त भाव से यह तलाशते थे कि विषय वस्तु का वाहक कैसे बना जाए। वे इसे सदा स्मरण रखते कि चित्र रचना से शून्य स्थान का क्या संपर्क है। गणेश दा बाजार को ध्यान में रखकर चित्रकृतियाँ नहीं बनाते थे। कलाकार के रूप में वे बाजार से समझौता नहीं करते थे पर यह भी सच है कि बाजार में उनकी चित्रकृतियों की कीमत बहुत ज्यादा रही। आज शिल्पी के जन्मदिन पर उन्हें सादर नमन।

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