सुप्रीम कोर्ट ने भी माना था- आपातकाल में मौलिक अधिकारों का हनन हुआ

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सुप्रीम कोर्ट ने 2 जनवरी, 2011 को यह स्वीकार किया कि देश में आपातकाल के दौरान इस कोर्ट से भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था।
सुप्रीम कोर्ट ने 2 जनवरी, 2011 को यह स्वीकार किया कि देश में आपातकाल के दौरान इस कोर्ट से भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था।
सुप्रीम कोर्ट ने 2 जनवरी, 2011 को यह स्वीकार किया कि देश में आपातकाल के दौरान इस कोर्ट से भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था। आपातकाल के करीब 35  साल बाद सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति आफताब आलम और जस्टिस अशोक कुमार गांगुली के पीठ ने उस समय की अदालती भूल को स्वीकार किया।
  • सुरेंद्र किशोर
सुरेंद्र किशोर, वरिष्ठ पत्रकार
सुरेंद्र किशोर, वरिष्ठ पत्रकार

अपनी लोकसभा की सीट बचाने के लिए प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 25 और 26 जून 1975 के बीच की रात में देश पर इमरजेंसी थोप दी। आज के कितने लोग यह जानते हैं कि आपातकाल (इमरजेंसी) में इंदिरा सरकार ने लोगों के जीने का हक तक छीन लिया था? लोकतांत्रिक गतिविधियों व प्रेस की आजादी को तो कुचल कर रख ही दिया गया था। जीने के अधिकार छीन लिए गए हैं, ऐसी बात एटार्नी जनरल नीरेन डे ने सुप्रीम कोर्ट में कह दी थी। फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने उसे स्वीकार कर लिया था और उस पर अपनी मुहर लगा दी थी।

यह और बात है कि इमरजेंसी में जीने तक का हक छीन लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने तो 2011 में अपनी गलती मान ली। पर, तब की सत्ताधारी पार्टी यानी कांग्रेस या उसके नेतृत्व ने आज तक यह काम नहीं किया। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने मई, 2015 में कहा था कि ‘चार दशक पहले आपातकाल लागू करना कांग्रेस सरकार की भयानक गलती थी। इसके लिए सोनिया गांधी या राहुल गांधी को देश से माफी मांगनी चाहिए।’ पर, किसी कांग्रेसी नेता ने माफी नहीं मांगी।

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इसके विपरीत सुप्रीम कोर्ट ने 2 जनवरी, 2011 को यह स्वीकार किया कि देश में आपातकाल के दौरान इस कोर्ट से भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था। आपातकाल के करीब 35  साल बाद सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति आफताब आलम और जस्टिस अशोक कुमार गांगुली के पीठ ने उस समय की अदालती भूल को स्वीकार किया। आज तो जब किसी पार्टी के हाथों से सत्ता छिन जाती है और घोटाले के आरोप में मुकदमा होता है तो वह कहती है कि देश में आपातकाल (इमरजेंसी) जैसी स्थिति है। जब किसी भ्रष्ट नेता के खिलाफ अदालत कार्रवाई करती है तो वह कहता है कि संविधान खतरे में है।

यानी नयी पीढ़ी के सामने आपातकाल शब्द को नये ढंग से पेश किया जा रहा है। पर, असली आपातकाल क्या था, उसे जानने के लिए 1975-77 की घटनाओं की एक झलक प्रस्तुत है। तत्कालीन प्रधान मंत्री  इंदिरा गांधी सरकार ने 25 जून  1975 को  इमरजेंसी लगाकर पूरे देश को एक बड़े जेलखाना में बदल दिया था। आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया  था। यहां तक कि जीने का अधिकार भी स्थगित था। 23 मार्च 1977 को ही आपातकाल को  समाप्त किया जा सका था, जब आम चुनाव के बाद केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व  में  जनता पार्टी की सरकार बनी।

आपात काल में इंदिरा गांधी सरकार ने जयप्रकाश नारायण सहित करीब पौने दो लाख से भी अधिक राजनीतिक विरोधियों को देश के विभिन्न जेलों में ठूंस दिया था। करीब 200 पत्रकार भी पकड़ लिए गए। मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था। कड़ा प्रेस  सेंसरशिप लगा दिया गया था। यहां तक कि आम जनता के जीने का अधिकार भी छीन लिया गया था।

एटार्नी जनरल नीरेन डे ने तब सुप्रीम कोर्ट में यह स्वीकार भी किया था। उन्होंने कहा था कि ‘यदि स्टेट आज किसी की जान भी ले ले तो भी उसके खिलाफ कोई व्यक्ति कोर्ट की शरण नहीं ले सकता। क्योंकि ऐसे मामलों को सुनने के कोर्ट के अधिकार को स्थगित कर दिया गया है।’ नीरेन डे ने आपातकाल में जो कुछ कहा, वैसा अंग्रेजों के राज में भी यहां नहीं हुआ था। विदेशियों के  शासन काल में भी जनता को  कोर्ट  जाने की सुविधा हासिल थी।

याद रहे कि आपातकाल के दौरान जबलपुर के एडीएम बनाम शिवकांत शुक्ल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने बहुमत से मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के पक्ष में फैसला दे दिया था। उस  पीठ के सदस्य थे मुख्य न्यायाधीश ए.एन. राय, जस्टिस एच.आर. खन्ना, एम.एच. बेग, वाई.वी. चंद्रचूड़ और पी.एन. भगवती। एडीएम, जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल के मामले में इस पीठ ने कहा था कि 27 जून 1975 को राष्ट्रपति की ओर से जारी आदेश के अनुसार प्रतिबंधात्मक कानून मीसा के तहत हिरासत में लिया गया कोई व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद- 226 के अंतर्गत कोई याचिका दाखिल नहीं कर सकता। इसी केस के सिलिसिले में नीरेन डे की ऊपर कही टिप्पणी सामने आयी थी।

पर, पीठ के एक सदस्य जस्टिस एच.आर. खन्ना ने बहुमत की राय से अपनी अलग राय दी। 2011 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में खन्ना की राय का समर्थन किया गया। याद रहे कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने का अधिकार है। आपातकाल की घोषणा के बाद  देश भर में निरोधात्मक नजरबंदी के दौर शुरू हो गए थे। कुछ गिरफ्तार लोगों ने उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर कीं।

उन याचिकाओं पर जबलपुर हाई कोर्ट सहित देश के 9 उच्च न्यायालयों ने यह कहा कि आपातकाल के बावजूद बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर करने का अधिकार कायम रहेगा। केंद्र सरकार ने इन निर्णयों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने सभी मामलों की एक साथ सुनवाई की। यह ऐतिहासिक केस ए.डी.एम., जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल मुकदमे के नाम से  चर्चित हुआ। बहुमत फैसले में मीसा को सही ठहराया गया था।

पर, जस्टिस हंस राज खन्ना ने अपनी अलग राय देते हुए कहा था कि सरकार मौलिक अधिकारों के हनन के खिलाफ सुनवाई करने के हाई कोर्ट के अधिकार को किसी भी स्थिति में छीन नहीं सकती। इस राय के बाद जस्टिस खन्ना ने काफी सम्मान अर्जित किया था। जस्टिस खन्ना के इस साहसिक कदम पर न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा था कि जस्टिस खन्ना की मूर्तियां भारत के हर शहर में लगायी जानी चाहिए। खुद जस्टिस पी.एन. भगवती ने बाद में कहा था कि शिवकांत शुक्ल वाले केस के फैसले में ‘मैं गलत था। वह मेरा कमजोर कृत्य था।’ उन्होंने यह भी कहा कि पहले तो मैं उस तरह के फैसले के खिलाफ था, पर पता नहीं, मैं बाद में क्यों सहयोगी न्यायाधीशों की बातों में आ गया।

25 फरवरी 2009 को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.एन. वेंकटचलैया ने कहा था कि आपातकाल के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया जाना चाहिए।

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जस्टिस वेंकट चलैया, जस्टिस  हंसराज खन्ना की स्मृति में व्याख्यान दे रहे थे। याद रहे कि जस्टिस ए.एन. राय तीन वरीय जजों की वरीयता को नजरअंदाज करके अप्रैल, 1973 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनाए गए थे। ऐसा पहली बार हुआ था। बाद में एच.आर. खन्ना की वरीयता को नजरअंदाज करके एम.एच. बेग को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था। इसके विरोधस्वरूप जस्टिस खन्ना ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।

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