चंद्रशेखर की जेल डायरी में अनेक प्रसंग दर्ज हैं। इमरजेंसी के दौर की शासन व्यवस्था, राजनीतिक गतिविधियों को समझने के लिए यह अहम दस्तावेज है। 8 जुलाई चंद्रशेखर की पुण्यतिथि है। इस मौके पर उनकी जेल डायरी के चुनिंदा अंश पर प्रकाश डाल रहे हैं राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश
- हरिवंश
इमरजेंसी के दौरान लिखी गयी पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की डायरी क्लासिक डायरी लेखन में शामिल है। चंद्रशेखर की इस जेल डायरी के बारे में ‘आधुनिक मित्रलाभ’ शीर्षक से लिखे आलेख में नामवर सिंह लिखते हैं- ‘इतना निश्चित है कि चंद्रशेखरजी की यह जेल डायरी गहरे अर्थों में एक मैत्रीपूर्ण हृदय की निश्छल अभिव्यक्ति है, साथ ही आपातकालीन निरंकुशता के प्रतिरोध में लिखी जाने के कारण लोकतंत्र का उद्घोष भी!’ गांधीवादी कवि भवानीप्रसाद मिश्र द्वारा चंद्रशेखर की डायरी पर की गई टिप्पणी का जिक्र जरूरी है- ‘जेल डायरी जैसी कोई कृति हिंदी साहित्य में नहीं है और अगर मैं निर्णायक होता तो इसको साहित्य अकादमी का पुरस्कार अवश्य देता।’ चंद्रशेखर की इस डायरी की प्रशंसा अज्ञेयजी ने भी की है।
25 जून, 1975 को आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (मिसा) के तहत चंद्रशेखर की गिरफ्तारी हुई। जेल प्रवास के दौरान उनका लेखन जारी रहा। बाद में ‘मेरी जेल डायरी’ नाम से छपी। डायरी में विस्तार से वर्णन है कि कैसे राजनीतिक बंदी होते हुए भी उस समय सभी को आवश्यक सुविधाओं से वंचित रखा गया था।
26 जून, 1975 को उन्होंने लिखा है-
‘प्रातः 3.30 बजे टेलीफोन की घंटी बजी। खबर लगी कि जेपी को गिरफ्तार करने पुलिस पहुंच गयी है। सोये से उठते ही यह खबर विचित्र लगी। ऊहापोह की स्थिति। ऐसा लगा कि एक भंवर में फंस गये हैं। कहां जाना है, किधर किनारा है, कुछ पता नहीं। त्यागीजी से कहा। फिर न जाने तुरंत ख्याल आया कि कहीं हमारे यहां भी पहरा नहीं हो। त्यागीजी से बाहर देखने को कहा, पर कुछ भी नहीं था। दयानंद और त्यागीजी के साथ जेपी के वहां गया। वे पुलिस की गाड़ी में बैठ गये थे। उनके साथ ही पीछे-पीछे टैक्सी से पार्लियामेंट थाने गया। एक ही बात मन में उठती रही, क्या हो रहा है? क्या करूं? कुछ राह नज़र नहीं आती। थाने में एक उच्च पुलिस अधिकारी ने जब मेरे वारंट की बात की, तो बड़ा अच्छा लगा। एक संतोष हुआ। शांति मिली। शायद इस कारण ही दुविधा में पड़ा था। ऐसे अवसर पर सदा ही परिस्थितियां, मुझे एक पथ पर डाल देती हैं। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। जो कुछ हो रहा था, उसका साथ देना मेरे लिए असंभव था। कैसे कोई कह दे कि भारत का भविष्य एक व्यक्ति पर निर्भर है। इतनी चाटुकारिता, इतनी दासता अपने से संभव नहीं। अच्छा ही हुआ। थोड़ी देर बाद एक अवसाद-सा छाने लगा। मेरी आजादी नहीं रही। न लोगों से मिलने की, उन्हें सुनाने की और न उनकी सुनने की। यह विवशता खल गयी। एक बेचैनी हुई। ऐसा लगा जैसे कुछ लोग अनिश्चित समय के लिए बिछुड़ रहे हैं। फिर अपने को संभाला। दो-एक लोगों से बातें कीं, सूचना देने के लिए। पर, सच तो है कि कदाचित् उनकी सुनना चाहता था। यह है मानव की अपनी निर्बलता। पर अच्छा लगा, इससे सांत्वना मिली। पता नहीं, उनको कैसा लगा? बड़ी देर तक सोचता रहा। कहीं अपने संतोष के लिए उनके मन को चोट तो नहीं पहुंचा दी, पर करता भी क्या? त्यागीजी और कृपा को देखकर दुःख हुआ। ये अपने को नहीं संभाल सके। मैं कहता था, पर उन्हें यह विश्वास ही नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है। सारे दिन उनका चेहरा याद आता रहा। सिविल लाइन थाने में एक-एक करके लोग आते गये। राजनारायण, पीलू मोदी, बीजू, रामधन, समर, जयपालजी बक्शी, भाई महावीर और मलकानीजी। एक अच्छी जमात बन गयी। रोहतक जेल में पहुंचे। फिर स्थानीय लोग भी आये। एक अच्छा जमघट। फिर अटकलबाज़ियां शुरू हुईं। तरह-तरह के अनुमान। कभी ऊंचे अरमान और कभी पस्त हिम्मत देखकर हैरानी होती है। क्यों नहीं जनता पर विश्वास होता? एक व्यक्ति की शक्ति सीमित है और क्षणिक भी।’
3 अगस्त, 1975 को वह अपनी डायरी में लिखते हैं-
‘आज सवेरे थोड़ी अप्रिय घटना हो गयी। उससे उलझन रही और बड़ा गुस्सा आया। जेल का डिप्टी सुपरिटेंडेट सवेरे ही कमरे में आया। रात देर से सोया था। 12:30 बजे तक पढ़ता रहा, इस कारण थोड़ी देर तक सोने का इरादा था। कमरे में आकर उसने बत्ती जलायी और मैं उठ बैठा। मैंने कहा, ‘कहिए?’ उसने भूमिका बांधनी शुरू की कि कभी-कभी अप्रिय कर्त्तव्य पालन करना पड़ता है। मेरी समझ में बात आयी। उसने कहा कि कभी-कभी नजरबंद लोगों की तलाशी लेनी पड़ती है। लेकिन आपके पास किताबों के अतिरिक्त कुछ है नहीं। मैंने भी अलसाये हुए कहा, ‘यहां क्या रखा है?’ उसने वार्डर से कहा, ‘उन बक्सों को देखो।’ मैं चुप रहा। असिस्टेंट सुपरिटेंडेंट ने समझ लिया कि मामला कुछ गड़बड़ हो रहा है। उसने मामले को हल्का बनाने के लिए खुद इधर-उधर किताबों को उलटना-पुलटना प्रारंभ कर दिया। वार्डर ने बक्सों को देखा, लेकिन उसमें रखा क्या था। मैं खामोश बैठा रहा। जब उनका काम खत्म हो गया, तब मैं अपने को नहीं रोक सका। मैंने उसको खरी-खोटी सुनायी और सभ्य भाषा में जितना भी कहा जा सकता था, मैंने उसे डांटा। उसका यह व्यवहार मुझे अजीब लगा। तीन सप्ताह हो गये। यहां जब से आया, इन लोगों ने किसी को मिलने की इजाजत नहीं दी। इस हाते के बाहर मैंने कदम नहीं रखा, कभी कोई शिकायत नहीं की। लाभ क्या है? जब राज्यसभा के सभापति महोदय और गृहमंत्री महोदय ने मेरे पत्रों का कोई उत्तर नहीं दिया, तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि दिल्ली ने जान-बूझकर मुझे अकेले रखने का निर्णय किया है। फिर इनसे क्या शिकायत? पर, कोई सीमा होती है। सुबह जगाकर तलाशी लेने की बात से मैं बौखला उठा। कहीं न कहीं प्रतिरोध तो करना ही होगा। जो भी कष्ट उठाना पड़े, उसका सामना करना होगा। मैंने जेल सुपरिटेंडेंट को बुलवाया और उनसे कहा कि मैं इस मामले को मुख्यमंत्री और उच्च अधिकारियों की नजर में लाना चाहता हूं। यह व्यवहार आप करें, पर मुझे इस बात को साफ करना है कि ये सब हरकतें उनके हुक्म से और उनकी जानकारी में हो रही हैं। सुपरिटेंडेंट भले आदमी हैं। बड़े दुःखी थे। उन्होंने कहा- वे इस व्यवहार के लिए शर्मिंदा हैं। बड़ी देर तक बैठे रहे, बात करते रहे और मुझसे कहने लगे कि इस बात को मैं भूल जाऊं। मुझे गुस्सा बहुत था, पर उनकी बात और व्यवहार के कारण मैंने कहा कि यह मामला खत्म समझिए, पर उस नालायक आदमी को समझा दीजिए। बाद में मुझे पता लगा कि वह कुछ ऐसा आदमी है ही। एक बार कैदियों ने उसे पीटा भी था। बात खत्म हो गयी।
बाद में मैं सोचता रहा कि अच्छा ही हुआ, किसी को लिखूं भी तो क्या लाभ? ऐसा लगता है सबको लकवा मार गया है। राज्यसभा के सभापति को मेरा पत्र जरूर मिला होगा, पर जत्ती साहब क्या करें? मुझे अनायास ही वह दिन याद आ गया, जब पहले-पहले श्री जत्ती से मैं बंगलौर में मिला था। उन दिनों वे निजलिंगप्पा के सताये हुए बंगलौर में गाय पालकर दूध बेचने का काम करते थे। मुझे उनकी बैठक का वह चित्र आंखों के सामने आ गया। निरीह, हताश, दया के पात्र। उनको देखते ही करुणा की भावना का उद्रेक हो गया था। मुझे तरस आ गया उनकी दशा पर। मैंने जब उनसे कहा था कि कुछ कीजिए, तो कहने लगे कि कुछ भी संभव नहीं। निजलिंगप्पा के हाथ में सब कुछ है। केंद्र से भी समर्थन है।
उस समय तक श्रीमती गांधी (इंदिरा गांधी) भी उन्हीं की हां में हां मिला रही थीं। मुझे डेढ़-दो घंटे लगे थे, उनको कहने में कि राजनीति में परिवर्तन असंभव नहीं। कुछ करना चाहिए। थोड़ी-सी जान उनमें दिखायी पड़ी थी। उन्होंने ज्यों ही दिलचस्पी लेनी शुरू की, वहां से हटाने के लिए उन्हें पांडिचेरी का उपराज्यपाल बना दिया गया था। मैसूर के उन साथियों को जो निजलिंगप्पा के विरुद्ध कुछ कह रहे थे, निराशा हुई थी। किंतु इनके लिए तो राह ही खुल गयी। अब उपराष्ट्रपति हैं और राज्यसभा के सभापति। इन्हीं को मैंने पत्र लिखा और थोड़ी आशा थी कि कम से कम उसके पाने की बात तो लिखेंगे। यह सोचकर मैं अपनी ही नादानी पर हंस पड़ा और गौशाले में बैठी उनकी सूरत आंखों के सामने आ गयी। आज शाम को अकेले टहलते उसी को याद करते हंसता रहा। फिर देखा कि सामने से वार्डर आ रहे थे। मैं गंभीर होकर चलने लगा कि कहीं वे यह न सोच लें कि मुझ पर कुछ खब्त सवार है। पर यह लिखते हुए गुड्डे- जैसी सूरत की याद मुझे हंसाये बिना नहीं रहती। आदमी ठीक है। अपनी जिंदगी के दिन काट रहे हैं, अच्छी कट जायेगी, जो आज्ञा होती होगी, मान लेते होंगे। कौन पड़े झंझट में मेरे जैसे आदमी के पत्र का उत्तर देकर।
यह एक कहानी है- दो दिलों का प्यार। अनेक सपने भविष्य के लिए। वर्तमान के मनसूबों पर बहस। कभी टकराव और फिर समझौता। हर टकराव का अर्थ ही यह होता है कि समझौते को दोहराया जाये, उसके लिए कसमें खायी जायें और उनको निभाने का अहद किया जाये। यह सब किया जाता है दिल की गहराइयों से, सच्ची नीयत से। पर जमाने की रफ्तार सब कुछ उलट-पुलट कर रख देती है। हालात बदल जाते हैं। संग छूट जाते हैं। साथी दूर हो जाते हैं। दूरी केवल अलगाव के कारण नहीं, स्थान के कारण नहीं, जीवन में अपनायी गयी परिस्थितियों के कारण होती है। कुछ सोच-समझकर कुछ बेबसी में, जैसे भी हो, बदली हुई स्थिति का प्रभाव तो पड़ता ही है। ज्यों-ज्यों दिन बीतते हैं, परिस्थिति विशेष के अनुरूप लोग अपने को ढालते जाते हैं। इसमें प्रयास की भी आवश्यकता नहीं होती। यह तो जीवनक्रम है। जीवित रहने की लालसा उससे ऐसा अपने आप कराती है। जब उत्तरोत्तर उत्थान के द्वारा उन्मुक्त हैं, तो पीछे गिरे, बिछुड़े बेबस साथी की चिंता कोई कब तक करें? हां, यह भी हो सकता है कि कुछ इंतजार में जिंदगी ही बिता दें। पर ऐसे तो इने-गिने ही होते हैं। दूसरी ओर जो बेबस होता है, वह भी तो निश्चेष्ट नहीं रहता। भयंकर स्थितियों में भी आशा का कोई तंतु ऐसा होता है, जिसके सहारे जीवन घिसटता जाता है। कभी-कभी तो यह तनिक-सा सहारा, असीम आत्मिक शक्ति का कारण बनता है। पर कितनी पेचीदगी में सहारे की आशा न हो, तो जिंदगी निरर्थक जान पड़ती है। पर यदि भरोसा मिथ्या सिद्ध होता है तो जिंदगी दूभर हो जाती है। फिर भी आदमी जीता है और हर हालत में जिंदगी को चलाने की कोशिश करता है। आज समाचार मिला, लोकसभा के सदस्य साधूरामजी चल बसे। भले आदमी थे। इधर अस्वस्थ रहा करते थे। जब भी मिलते बड़े स्नेह से न जाने क्यों मेरे मन में उनके लिए बड़ा आदर था। अब नहीं रहे। बंगलौर में पी.टी.आई. के बालू और उनके एक साथी की मौत की खबर आयी थी। पता नहीं, क्या हुआ था। बालू मेरे पुराने परिचित और मित्र थे। यहां रहते-रहते कितने लोगों की मौत की खबर मिली। इससे मन में अजीब उदासी छा जाती है।’
03 सितंबर,1975 को लिखे गये डायरी का अंश है-
‘इस जेल में बहुत से राजनीतिक कैदी बंद हैं। मुझे तो किसी से मिलने का अवसर मिल ही नहीं सकता। जब और लोगों से अलग करके मुझे अकेले रखा गया, तो यहां दूसरों से मिलने की इजाजत मिलना नामुमकिन है। पहले एक सिपाही का पहरा था। एक सप्ताह तक वह अकेले रहता था। अब दो सिपाही रहते हैं। पता नहीं, इतनी सतर्कता क्यों? यहां पर कुछ नक्सलवादी बंदी थे। कुछ तो हाल में ही छूटे हैं, पर अब भी उनमें से कुछ लोग यहां हैं। यहां छोटे कर्मचारियों को मनाही है कि वे किसी को यह न बतायें कि मैं इस जेल में हूं। ये सब बातें जानकर हंसी भी आती है और हैरानी भी होती है।
यहां पर आकर, नक्सलवादी नवयुवकों की नृशंस हत्या की जो जानकारी हुई है, उससे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पंजाब पुलिस ने दमन की हर सीमा को पार कर दिया। क्रूर हत्या, पाशविक अत्याचार और अमानुषिक व्यवहार एक सामान्य-सी बातें हैं! जिसके हृदय में किंचित संवेदना का भाव शेष है, वह इन घटनाओं से दुःखी हुए बिना नहीं रह सकता। सरकार की ओर से जयप्रकाशजी पर यह भी एक आरोप है कि इन अतिवादियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए उन्होंने उनका समर्थन किया। इससे बड़ा अनर्गल प्रचार और क्या हो सकता है! उन्होंने न हिंसा की घटनाओं का समर्थन किया और न इस राजनीतिक विचारधारा या पद्धति के पक्ष में वक्तव्य दिया। इसके विपरीत बिहार के कुछ भागों में जब पुलिस और प्रशासन पंगु जैसे हो गये थे, तो उन्होंने वहां जाकर शांति स्थापित करने का प्रयास किया। उन्हें काफी कुछ सफलता भी मिली। पर एक तथ्य अवश्य है कि इन राजनीतिक कैदियों के प्रति जो अमानुषिक व्यवहार हो रहा है या उनके परिवारवालों को जो अनावश्यक रूप से यातनाएं दी जाती हैं उनके विरुद्ध जेपी ने आवाज अवश्य उठायी थी। सरकार इसे भी सहन नहीं कर सकती! मुझे स्मरण है, जब संसद में इस प्रश्न पर मैंने अपना मत व्यक्त किया था, तो कितने लोग क्रोध से कांप उठे थे, पर उस समय मुझसे कुछ कहने का साहस किसी ने नहीं किया। कानाफूसी अवश्य हुई। एक के बाद एक, इसी प्रकार की घटनाएं होती रहीं। और अंत में वह दिन भी आया, जब सरकार की दृष्टि में मेरा बाहर रहना खतरनाक जान व्यवहार है, पर कितने ऐसे लोग हैं, जो अकारण न केवल वर्षों से कारागार में बंद हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि अभी हमारे जैसे लोगों के साथ कुछ सम्मानजनक, उनके साथ साधारण शिष्टाचार का भी निर्वाह नहीं किया जाता। मैं मन से कभी इन वृत्तियों के साथ अपने को न कर सका। इसी कारण अलगाव बढ़ता गया। अनेक मित्रों के अनुरोध पर, सक्रिय प्रवास और मेरे द्वारा की गयी कोई चेष्टा इस मौलिक अंतर को न मिटा सकी।
मैं दूर होता गया और मन में यह भाव घर करता गया कि जिस राह पर ये साथी रह रहे हैं, वह मेरे लिए नहीं है और इसी कारण आज जिस अवस्था में हूं, उसके लिए कोई पश्चात्ताप भी नहीं। आज देवराजजी अर्स का एक वक्तव्य रेडियो पर सुना। उन्होंने आपातकालीन घोषणा पर कुछ टिप्पणी की थी। उन्होंने यह कहा कि जो लोग नजरबंद हैं, उनके मामलों पर समय-समय पर विचार किया जाता है। दो-तीन दिन पहले उन्होंने कुछ लोगों की रिहाई का आदेश दिया है, वे प्रधानमंत्री के बीस सूत्रीय कार्यक्रम को क्रियान्वित करने में लगे हुए हैं और भ्रष्ट कर्मचारियों को हटाने में सचेष्ट हैं। मुझे ठीक स्मरण नहीं, कौन-सा महीना था जब बंगलौर में पहली बार अर्स से मेरी मुलाकात हुई थी। बात 1969 की है। किसी संसदीय समिति की बैठक में भाग लेने मैं बंगलौर गया था और विधायक निवास में ठहरा था। बंगलौर का मनोहारी मौसम और सुहानी शाम। अकेले विधायक निवास के सामने वाले मैदान में टहल रहा था, अचानक एक युवक मेरे सामने आकर रुके, नमस्कार किया और अंग्रेजी में सकुचाते हुए मुझसे पूछा कि क्या मेरा नाम चंद्रशेखर है? मैंने अपना परिचय बता दिया। वे बड़े प्रेमपूर्वक मिले। उन्होंने अपना परिचय दिया, जिसमें विशेषता यह थी कि वे भी कांग्रेस के एक युवक साथी हैं। और श्री निजलिंगप्पा और उनके साथियों की नीति से असंतुष्ट हैं, उनके विरोधी हैं। ये मेरे मित्र आजकल लोकसभा के सदस्य हैं और इनका भी नाम चंद्रशेखरप्पा है। मैं बंगलौर में कई दिन रुका। नित्य शाम को इनसे मुलाकात होती और बहुत सारी बातें होती थीं। उन दिनों भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मुझसे रुष्ट रहते थे और इसकी बड़ी चर्चा थी। एक दिन मेरे इस नये परिचित मित्र ने मुझसे कहा कि श्री देवराज अर्स मुझसे मिलना चाहते हैं। किसी एक शाम में अर्स के घर पर भोजन के लिए आमंत्रित हुआ। अकेले मैं और अर्सजी। कदाचित् चंद्रशेखरप्पा भी थे। उनके घर की सादगी और उनके सरल और आडंबरविहीन रहन-सहन का मुझ पर अच्छा प्रभाव पड़ा। मेरी उनसे घंटों बातें होती रहीं। उस दिन से अर्स मेरे मित्रों और प्रशंसकों में से हो गये। मित्रता चलती रही। 1971 की बड़ी जीत के बाद श्रीमती गांधी के गुणगान में जो कुछ लोग आगे आये, उनमें श्री अर्स ने भी लंबी छलांग लगायी और कर्नाटक में पार्टी के कर्णधार बन बैठे। यहां से इन्होंने अपना नया रूप दिखाया। अपने सबसे विकृत रूप में हमारे सामने उस समय आया, जब केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में 1972 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कर्मचारियों ने खोले कि मैसूर से ऐसी शिकायतें बार-बार आ रही हैं कि प्रदेश कांग्रेस कमेटी चुनाव में टिकट देने के लिए सौदेबाजी की जा रही है, इसके लिए खुलेआम पैसे लिये जा रहे हैं। मैं अवाक् रह गया। पर, मुझको इससे अधिक आश्चर्य इस बात पर हुआ कि जब मैंने इसकी छानबीन करने की बात कही, तो सब सदस्य चुप रह गये और थोड़ी देर चुप रहने के बाद किसी और मसले पर बहस होने लगी। यह कांग्रेस में एक सामान्य परिपाटी है, जो किसी भी उलझन से बच निकलने के लिए बिना हिचक प्रयोग में लायी जाती है। मुख्यमंत्री होने के बाद का इतिहास कर्नाटक के लोग स्वयं प्रधानमंत्री और दूसरे नेताओं को भी सुनाते रहे। मुझे भी थोड़ी जानकारी थी और मुझे वह दिन भी स्मरण है, जब श्री अर्स सफाई देने के लिए मेरे पास आये थे, पर अब तो चित्र ही दूसरा है। शिकायत करनेवाले आज अर्स के नेतृत्व में भ्रष्टाचार मिटा रहे हैं और बीस सूत्री कार्यक्रम के द्वारा गरीबी मिटा रहे हैं। पता नहीं जनता की या अपनी?’
12 जुलाई को चंद्रशेखर लिखते हैं-
‘दिल्लीवाले समर्थ लोग हैं। पर दुविधा में पड़े हुए लोग। न उनमें लोकशाही की नैतिकता है और न तानाशाह बनने की सामर्थ्य। उनका व्यवहार कितना हास्यास्पद लगता है। मेरी गिरफ्तारी का कारण उन्हें देना होगा। देखें, क्या आरोप लगाते हैं? आज नहीं तो कल, कुछ न कुछ स्पष्ट रूप से कहना ही होगा। 14 जुलाई को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक है, उनमें बरुआजी का कुछ भाषण होगा। हर घृणित काम को वे हंसते हुए कर सकते हैं। यह भी कोई छोटी बात नहीं। ऊंचे-से-ऊंचे पद पर रह कर छोटी से छोटी बात करना, सारी नैतिकता, सच्चाई और मर्यादा को तिलांजलि दे देना, अपनी तरह की अनुपम उपलब्धि है। शायद स्थितप्रज्ञता का यह दूसरा रूप है।’
13 जुलाई को पटियाला जेल में लिखते हैं-
‘नहा-धोकर जलपान करने जा रहा था, तो बाहर पुलिस की गाड़ी खड़ी देखी। सोचा, ऐसे ही आये होंगे। जलपान खतम ही किया था कि एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट साहब आये। बड़े संकोच से बोले कि एक दुर्भाग्यपूर्ण खबर है। मैं थोड़ा चकराया, पर तुरंत ही उन्होंने कहा कि उन्हें सेवा का एक अवसर मिला था, पर भारत सरकार का आदेश है कि मुझे पटियाला भेज दिया जाये। मैंने कहा कि वे पांच मिनट इंतजार करें। ठीक इतनी ही देर में अपना सामान समेटकर मैं पटियाला जाने को तैयार था। चलने के पूर्व जेल के कर्मचारियों तथा स्थानीय अधिकारियों के साथ औपचारिकता का निर्वाह हुआ। फिर वही बड़ी-सी पुलिस वैन में पटियाला के लिए प्रस्थान। भगतराम और शर्मा को उदास देखा। चतरसिंह भी उदास ही था। इस थोड़े-से समय में इन लोगों ने मेरे लिए हर सुख-सुविधा का ध्यान रखा, जो भी इनके लिए संभव था। मानव-स्वभाव की भौतिक अच्छाई का अंत संभव नहीं है।’
अन्य प्रचार-साधनों का उपयोग हो रहा है, उसको देखते हुए मुझे यह विश्वास नहीं होता कि विरोधी पक्ष के लोगों को शीघ्र देश के सार्वजनिक जीवन में किसी प्रकार का प्रभावकारी हिस्सा लेने का अवसर मिलेगा। जो कुछ सामने है, उससे तो ऐसा लगता है कि निर्बाध गति से न केवल शासनतंत्र को कांग्रेस के पक्ष में उपयोग करना है, बल्कि इसे पारिवारिक संपत्ति के रूप में प्रयोग करना है, कुछ ऐसा निर्णय जान पड़ता है। उसको व्यवहार रूप में लाने में कोई हिचक नहीं जान पड़ती। कांग्रेस के प्रगतिशील मित्र और कम्युनिस्ट लोग इसे भी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की परिधि में लाने के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रहे होंगे, कोई न कोई ऐसा राजनीतिक विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे, जिससे इसे महत्त्वपूर्ण समझा जाए। कम्युनिस्ट पार्टी की त्रिवेंद्रम में हुई बैठक के बाद उनके प्रवक्ता ने कुछ इस तरह का प्रयास किया था। पर मैं नहीं मानता कि वे सचमुच अपने कथन में निष्ठा रखते थे क्योंकि जिस व्यक्ति को उन्होंने महत्त्वहीन कहा था, वह उनका सिरदर्द बन रहा है।’
चंद्रशेखर ने जेल में बंद रहने के दौरान बहुत सारी पुस्तकें पढ़ीं। रेणुजी की ‘मैला आंचल’ को उन्होंने पढ़ा और उसपर टिप्पणी लिखी। 7 जुलाई को उन्होंने अपनी डायरी में दर्ज किया है- ‘अकेले ही रहना पड़े तो क्या हर्ज? किताबें हैं और फिर पीछे की बातें सोचने का सिलसिला, आगे के लिए तो अभी कुछ मन बनाना मुमकिन नहीं। आज फ्रैंकल की पुस्तक ‘Man’s Search For Meaning’ को फिर से प्रारंभ किया। आज के माहौल में और अच्छी लगी। शैलजा ठीक कहती थी, इसे समझने के लिए परिस्थिति विशेष चाहिए और उसके अनुरूप मन की तैयारी भी।’
उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है- ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ (Freedom At Mid Night) को पढ़कर सोच रहा था कि कितनी कुत्सित, कुरूप और क्रूर हो सकती है सत्ता की चाह। गांधीजी जैसे व्यक्ति को किस ग्लानि और एकाकीपन का सामना करना पड़ा था। जो व्यक्ति अपने एक वक्तव्य से बहुत से लोगों के अरमानों को धूल में मिला सकता था, वह भी परिस्थितियों के कारण कितना बेबस और बेहाल बन गया था। फिर भी अपनी मान्यताओं के अनुरूप अपनी साधना के पथ वह विचलित नहीं हुआ। वह महान व्यक्तित्व राष्ट्र को विभाजन से नहीं बचा सका। किंतु उसमें भागीदार होना भी उसने अस्वीकार कर दिया। किंतु उसका अंत भी हुआ उन्हीं शक्तियों के द्वारा, जो अपने को विभाजन के विरुद्ध समझती थीं और गांधीजी को उनके लिए उत्तरदायी। कितनी विषम परिस्थितियां थीं। बापू न अपने चेलों के किये को नकार सकते थे और न उनके द्वारा किये गये कार्यों को उनकी आत्मा स्वीकार कर सकती थी। इस दुविधा में उनका अंतर्मन किस व्यथा का अनुभव करता होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इतिहास के ये पृष्ठ क्या संतोष पाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं? परिस्थितियां पूर्णतः अपने अधिकार में नहीं होतीं। यदि कभी अपने को अपने ही साथियों द्वारा उपेक्षित और तिरस्कृत होते पाया जाए तो न इसमें कोई आश्चर्य होना चाहिए, न ऐसा क्षोभ ही, जिससे अनावश्यक रूप से अपनी कठिनाइयों को बढ़ा चढ़ा कर देखने की वृति को बल मिले। यह जीवन के स्वाभाविक क्रम का एक चरण है जिससे कभी-कभी हर उस व्यक्ति को गुजरना पड़ता है, जो संघर्ष की राह पर चलने का साहस करता है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद यह बात सूझी कि एकबार गांधीजी के जीवन पर विस्तृत अध्ययन करना चाहिए।’
22 फरवरी को वह लिखते हैं-
‘भारत में अपनी तरह का नया जनतंत्र जन्म ले रहा है। इसका नेतृत्व प्रधानमंत्रीजी कर रही हैं। ऐसा विचार- श्री यशवंत राव चव्हाण ने प्रकट किया है। उनके इस भाषण पर मुझे आश्चर्य तो नहीं हुआ, ग्लानि अवश्य हुई। इस सीमा तक चव्हाण साहब जा सकते हैं, इसकी अपेक्षा मुझे नहीं थी। कौन जाने इसके लिए उनके पास कोई कारण हो। आज इंदिराजी ने बंबई में वही पुरानी बातें दोहरायीं, किंतु यह कहा कि उनकी जो बार-बार प्रशंसा की जाती है, उसे वे पसंद नहीं करतीं। यह भाषण भी कदाचित् उसी नये जनतंत्र की आचारसंहिता में सत्य की संज्ञा से विभूषित हो सकता है अन्यथा वास्तविकता सर्वविदित है।
आज सवेरे एक सज्जन कह रहे थे कि 24 फरवरी को इंदिराजी विनोबाजी से मिल रही हैं। शायद उसके बाद विरोधी दल के लोगों से कोई बातचीत हो। कुछ लोगों को जेलों से रिहा भी किया जा सकता है। यह एक सामान्य धारणा है। कुछ इस प्रकार का संकेत इधर-उधर से लोगों को मिलता है। वे मेरी राय जानना चाहते थे। मैंने उनसे कहा कि मेरी इच्छा तो यही है। इस आशा में मैं भी साझीदार हूं।’
7 जुलाई को उनकी डायरी का अंश है-
‘आज बंसीलाल और ब्रह्मानंद रेड्डी को पत्र लिखा। कभी-कभी बड़ा गुस्सा आता है। ठीक है उन्हें खतरा था, गिरफ्तार कर लिया। पर ये घिनौनी हरकतें क्यों करते हैं? कौन जाने, नीचे के अधिकारी इसके लिए जिम्मेदार हैं या ऊपर से ऐसा आदेश उन्हें मिलता रहा है। अब भी मुझे विश्वास नहीं होता है कि तंग करने के लिए ऊपर से कोई आदेश होगा। ये राज-कर्मचारी भी परेशान हैं। क्या करें, क्या न करें, एक ओर हमारा संकोच और दूसरी ओर शासन का भय। ये भी निर्णय नहीं ले पाते। छोटी-छोटी बातों के लिए भी ऊपर से आदेश चाहिए। स्पष्टीकरण चाहिए। कैसा माहौल बन गया। इसीलिए सोचा, एक बार लिखकर पूछ ही क्यों न लिया जाये, जवाब तो आयेगा नहीं, पर हरकतों से अंदाजा लग जायेगा कि हाकिमे-वक्त का इरादा क्या? जिलाधीश आये, अच्छे व्यक्ति लगे, पर परेशानी तो उनकी है ही। उनकी ओर से कुछ अड़चन नहीं जान पड़ी। पत्रों के बारे में पूछ रहे थे। मैंने कह दिया कि अगर आप भेज सकें, तो उन्हें भेज दीजिए, अन्यथा कोई बहस उठाना नहीं चाहता। पता नहीं क्या करेंगे, बातें तो सब मान ही गये। मुझे कुछ चाहिए ही नहीं। कल जरा बुरा लगा था, अब मन बना लिया है।’
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