- ओमप्रकाश अश्क
ममता बनर्जी अपनी पार्टी के विस्तार में लगी हुई हैं। रणनीति के तहत वह कांग्रेस के साथ दूसरे विपक्षी दलों के नेताओं को तोड़ रही हैं। वह जिन नेताओं को तोड़ रही हैं, उनमें ज्यादातर दगे कारतूस हैं. ममता के सलाहकारों ने कहा है कि कमजोर कद या खारिज हो चुके दूसरे दलों के नेताओं को भी पाले में करना है, ताकि हर सूबे में पार्टी की उपस्थिति दिखे। ममता के नामलेवा मिलें। वह विपक्ष की एका की बात करती हैं, पर उनके ही लोगों को तोड़ने में संकोच नहीं करतीं। मुंबई में एनसीपी नेता शरद पवार से मिलने के तुरंत बाद उन्होंने गोवा में एनसीपी के एकमात्र एमएलए को तोड़ लिया। कांग्रेस को विपक्ष का नेतृत्व उन्हें पसंद नहीं। वह अपने नेतृत्व में मोर्चा चाहती हैं। वह कांग्रेस को नेतृत्व का हठ छोड़ अपने नेतृत्व वाले फोल्डर में आने का न्यौता दे रही हैं। तमाम कवायद के पीछे उनकी महत्वाकांक्षा पीएम बनने की है।
ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षा जागी है तो यह स्वाभाविक भी है। बंगाल में लगातार तीसरी बार सत्तारूढ़ होना कोई सामान्य बात नहीं है। वह भी तब, जब तीसरी बार उन्होंने प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद आसानी से सत्ता हासिल कर ली। भाजपा ने जिस तरह उनके खिलाफ किलेबंदी की थी, उससे निकल पाना उनके लिए मुश्किल था। लेकिन भाजपा की रणनीति काम नहीं आयी, उल्टे उसका फायदा ममता बनर्जी को मिल गया। उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को मुसलमानों का एकमुश्त तकरीबन 33-34 प्रतिशत वोट मिल गया। ममता ने इसे ही अपनी ताकत माना और देश भर में यह धारणा बन गयी कि मोदी को परास्त करने की क्षमता ममता बनर्जी के पास ही है। ममता बनर्जी की महत्वकांक्षा का यही मूलाधार है।
बंगाल फतह के साथ ही उन्होंने देश फतह की योजना बना ली और इसके तहत पार्टी का विस्तार शुरू किया। बंगाल में कांग्रेस का सफाया करने के बाद ममता ने मेघालय, त्रिपुरा, गोवा, उत्तराखंड, बिहार जैसे राज्यों के कांग्रेसी नेताओं को अपने साथ जोड़ना शुरू किया। उत्तराखंड में हेमवतीनंदन बहुगुणा के बेटे और बिहार में कीर्ति झा और जेडीयू के एक नेता को अपने साथ जोड़ कर ममता बनर्जी ने अपने दूसरे प्लान पर काम शुरू कर दिया। ममता को पता है कि जब तक कांग्रेस को वह लोगों की नजरों में गिरा नहीं देतीं, तब तक उनकी महत्वाकांक्षा को पंख नहीं लग सकते। इसलिए अपने मुंबई दौरे में उन्होंने एनसीपी नेता शरद पवार और उद्धव से मुलाकात के बाद यह घोषणा कर डाली कि कांग्रेसनीत यूपीए की अब कोई अहमियत नहीं रह गयी है। यानी यूपीए की जगह विपक्षी दलों का एक नया फ्रंट बनना चाहिए।
विपक्षी दलों को एक साथ लाने की कोशिशों में जुटीं ममता बनर्जी ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर नाम लिये बगैर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि फिल्ड में काम कर रहे लोगों को साथ लेकर एक नया विपक्षी गठबंधन जल्द ही सामने आएगा। कांग्रेस और नेतृत्व का बिना नाम लिए ममता बनर्जी ने कहा कि जितनी मजबूती के साथ उन्हें भाजपा से लड़ना चाहिए, उतनी मजबूती के साथ वे नहीं लड़ पा रहे हैं। उन्होंने उसी दिन साफ कर दिया कि अब कोई यूपीए नहीं है।
ममता के इस बयान को हवा दे दी उनके राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने। प्रशांत किशोर ने कांग्रेस नेतृत्व पर ही सवाल खड़े कर दिये और कहा कि कांग्रेस जिस विचार और जगह का प्रहतिनिधित्व करती है, वह एक मजबूत विपक्ष के लिए अहम है। लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व किसी व्यक्ति का ही दैविय हक नहीं है। खासकर तब, जब पार्टी पिछले 10 सालों में अपने 90 प्रतिशत चुनाव हार चुकी है। विपक्ष के नेतृत्व का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से होने दें। ऐसा कहते वक्त प्रशांत किशोर को यह भरोसा रहा होगा कि लोकतांत्रिक तरीके से नेतृत्व का चयन होता है तो भाजपा विरोधी पार्टियां ममता बनर्जी के पक्ष में खड़ी हो जाएंगी, जो बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद मोदी को परास्त करने की कूबत ममता बनर्जी में देख रही थीं। इसके बाद तो टीएमसी की ओर से ऐसे भी बयान आने लगे कि ममता ही विपक्षी दलों की अगुआई कर सकती हैं। टीएमसी के मुखपत्र में इस तरह की बातें आम होने लगीं।
कांग्रेस के खिलाफ ममता बनर्जी की इस मुहिम का जहां सकारात्मक असर होना था, वहीं इसका उल्टा असर दिखने लगा। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने कह दिया कि कांग्रेस को छोड़ भाजपा विरोधी किसी मोर्चे का कोई महत्व ही नहीं है। उनके इस बयान के बाद शिवसेना के बड़े नेता संजय राउत ने राहुल गांधी से मुलाकात की और ममता की महत्कांक्षा पर पानी फेर दिया। राउत ने अपने नेता के ही बयान को दोहराया। उन्होंने कहा कि जिस मोर्चे में कांग्रेस नहीं, उस मोर्चे का कोई मतलब ही नहीं। यानी बंगाल में ममता की तरह महाराष्ट्र में सरकार चलाने वाली एक पार्टी ने उनकी महत्वाकांक्षा पर ग्रहण लगा दिया। बाद में झारखंड मुक्ति मोरचा (झेएमएम) भी कांग्रेस के साथ खड़ा हो गया। जेएमएम ने साफ कह दिया है कि कांग्रेस को छोड़ विपक्षी दलों का कोई अलग मोर्चा बनता है तो वह कांग्रेस के साथ खड़ा होना पसंद करेगा। यानी कांग्रेस के खिलाफ लड़ाई में ममता बनर्जी अलग-थलग पड़ गयी हैं।
दरअसल कांग्रेस पिछले सात साल से केंद्रीय सत्ता से बाहर है। अब सिर्फ छत्तीसगढ़, राजस्थान और पंजाब में ही उसकी सरकारें है। महाराष्ट्र, झारखंड और तमिलनाडु में कांग्रेस सत्ताधारी गठबंधन में शामिल है। अगले दो साल में उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, उत्तराखंड, मणिपुर, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने हैं। कमजोर होने के बावजूद कांग्रेस छह राज्यों की सत्ता में भागीदार है। ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी सिर्फ बंगाल की सत्ता पर काबिज है। 2022 में उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, मणिपुर और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने हैं, जबकि 2023 में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव होंगे। उसके बाद 2024 में लोकसभा का चुनाव भी सिर पर होगा। ममता जिस तरह बंगाल से बाहर के राज्यों में अपनी पार्टी का विस्तार कर रही हैं, उसका फायदा इन चुनावों में गंठोड़ के माध्यम से उनको मिल जाता। इसी को ध्यान में रख कर वह लगातार कांग्रेस को कमजोर करने और येनकेन प्रकारेण विपक्षी दलों के मोरचे का नेतृत्व करने की योजना पर काम कर रही हैं, जो पहली नजर में फेल होता दिख रहा है। कांग्रेस के खिलाफ विष वमन से उसका साथ तो उनको मिलने से रहा, ऊपर से कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले दलों ने अपने को किनारे करना शुरू कर दिया है।
अलबत्ता ममता बनर्जी की इस मुहिम से भाजपा को फायदा होता जरूर नजर आ रहा है। भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत की बात करती है और ममता कांग्रेस रहित विपक्ष पर काम कर रही हैं। यानी एक ही मकसद- कांग्रेस को खत्म करने पर दोनों काम कर रहे हैं। भाजपा का रास्ता बंगाल में रोकने वाली ममता आखिरकार भाजपा की मदद करती दिख रही हैं। यह भी सच है कि ममता जिस मोर्चे में होंगी, उस मोर्चे को अल्पसंख्यक वोट मिलेंगे, जैसे बंगाल में उन्हें एकमुश्त मिले। भाजपा भी तो ऐसा ही ध्रुवीकरण चाहती है। अगर इस आधार पर भाजपा यह संदेश लोगों तक पहुंचाने में कामयाब हो गयी तो बहुसंख्यक वोटों का स्वतः ध्रुवीकरण हो सकता है। (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं)
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