महेन्दर मिसिर की पुण्यतिथि पर : विवादों से भरी एक गीत-यात्रा

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महेन्दर मिसिर की आज पुण्यतिथि है। भोजपुरी साहित्य जगत में भिखारी ठाकुर के बाद महेन्दर मिसिर का नाम विशेष रूप से ख्यात है।
महेन्दर मिसिर की आज पुण्यतिथि है। भोजपुरी साहित्य जगत में भिखारी ठाकुर के बाद महेन्दर मिसिर का नाम विशेष रूप से ख्यात है।
महेन्दर मिसिर की आज पुण्यतिथि है। भोजपुरी साहित्य जगत में दो नाम आते हैं-भिखारी ठाकुर और महेन्दर मिसिर। भिखारी ठाकुर जहां नाट्य गीतों के लिए मशहूर हैं, वहीं लोक गीतों के लिए महेन्दर मिसिर
  • ध्रुव गुप्त

भोजपुरी साहित्य के इतिहास में भिखारी ठाकुर के बाद अगर किसी दूसरे नाम का उल्लेख होगा तो वह नाम निश्चित तौर पर स्व महेन्दर मिसिर का होगा। भिखारी ठाकुर जहां सामाजिक सरोकार के अपने नाटकों के लिए जाने जाते हैं, महेन्दर मिसिर को प्रेम की कोमलता और विरह की पीड़ा भरे उनके गीतों के लिए याद किया जाता है। प्रेम गीतों में उनका कोई सानी नहीं। इन गीतों में भाषा की लचक, प्रवाह और राग-रागिनी का अपूर्व संगम देखते ही बनता है।पूरबी के वे बेताज बादशाह माने जाते रहे हैं। भोजपुरी के जिन पुरुष रचनाकारों में स्त्री के मन की रागात्मकता की थाह पाने की छटपटाहट दिखती है, महेंदर मिसिर उनमें खास हैं। यह और बात है कि उनकी रचनाओं की स्त्री अपनी अस्मिता की खोज करती संघर्षशील स्त्री नहीं, प्रेम के अथाह अनुराग और वियोग में डूबी स्त्री है। उन्होंने अपने गीतों की दर्जन भर से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिनमें उनके तीन नाटक भी शामिल हैं। उनकी पुस्तकों में महेन्दर मंजरी, महेन्दर विनोद, महेन्दर मयंक, भीष्म प्रतिज्ञा, कृष्ण गीतावली, महेन्दर प्रभाकर, महेन्दर रत्नावली, महेन्दर चंद्रिका, कवितावली और अपूर्व रामायण प्रसिद्ध है।

भोजपुरी गीतों को महेन्दर मिसिर के अवदान पर कोई विवाद नहीं है। उनका व्यक्तिगत जीवन बेशक विवादों से घिरा रहा है। उनपर एक बड़ा आरोप वेश्यागामिता का है। उनकी जवानी का ज्यादातर हिस्सा कोठों पर या कोठेवालियों के सानिध्य में ही बीता था। मुजफ्फरपुर, बनारस और कोलकाता की कई नामी तवायफों से उनके निकट संबंधों की चर्चा होती है। यह आरोप ज्यादातर उन आलोचकों की तरफ से लगता रहा है जिन्हें उस दौर के संगीत और उसके विकास की परिस्थितियों का ज्ञान नहीं है। उन्नीसवी सदी का उत्तरार्द्ध और बीसवी सदी का पूर्वार्द्ध एक ऐसा काल था जब भारतीय उपशास्त्रीय संगीत ही नहीं, पूरबी सहित लोक संगीत ने अपना स्वर्णकाल देखा था। इसमें सबसे बड़ा योगदान उस दौर के तवायफ़ों के कोठों का रहा था। उस दौर की कुछ बेहतरीन गायिकाओं में कलकत्ते की गौहर जान,इलाहाबाद की जानकी बाई छप्पनछुरी, बनारस की विद्याधरी बाई, बड़ी मोती बाई और हुस्ना बाई, लखनऊ की नन्हवा-बचुआ और हैदरजान, आगरे की जोहरा, लखनऊ की जोहरा, अंबाले की जोहरा, पटने की जोहरा और मुजफ्फरपुर की ढेला बाई सबसे ज्यादा चर्चित नाम थे। इनमें से केसरबाई, विद्याधरीबाई, सोना बाई और ढेला बाई सहित कुछ तवायफें महेन्दर मिसिर की लिखी पूरबी की दीवानी थीं।

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महेन्दर मिसिर ख़ुद भी एक मंझे हुए गायक और वादक थे। कोठों पर सजने वाली संगीत की महफिलों में तवायफें उन्हें सम्मान से बुलाती थीं और उनसे संगीत और उसकी अदायगी की बारीकियां भी सीखती थीं। अस्वाभाविक नहीं कि तवायफों के मन में अपने इस प्रिय गीतकार और गायक के लिए कोमल भावनाएं थीं। यह भी अस्वाभाविक नहीं कि महेन्दर मिसिर के मन में उनमें से कुछ के प्रति प्रबल आकर्षण और प्रेम था। महान बंगला कथाकार शरतचंद्र पर भी ऐसे आरोप लगेथे जिनके कई महान उपन्यासों का जन्म कोठे पर ही हुआ था।

महेंद्र मिसिर पर उनके जीवन का सबसे विवादास्पद आरोप तब लगा जब पुलिस ने छपरा में उनके घर से बड़ी संख्या में जाली नोट और उसे छापने की मशीन बरामद की। कहा जाता है कि कोलकाता और बनारस प्रवास के दौरान बनारस में एक क्रांतिकारी अभयानंद के सहयोग से उन्हें नोट छापने की एक मशीन मिली जिसे लेकर वे छपरा आ गए। यह उनके जीवन का एक ऐसा मोड़ था जिसने उनकी ज़िंदगी की दशा-दिशा ही बदल दी। वे योजनाबद्ध तरीके से नोट छापने और उसे बाजार में चलाने का काम करने लगे। कहा जाता है कि जाली नोट छापने का उद्धेश्य स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों की मदद करने के अलावा अंग्रेजों की अर्थव्यवस्था को तबाह करना था। यह तो कभी पता नहीं चला कि महेन्दर मिसिर का देश के स्वतंत्रता संग्राम में क्या योगदान था या उन्होंने कितने स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों की मदद की मदद की, लेकिन इतना ज़रूर पता है कि इन नोटों से उन्होंने अपने लिए ढेर सारी सुख-सुविधायें जुटाईं और अपने संपर्क में रहने वाली तवायफों पर जमकर पैसे खर्च किए। धीरे-धीरे महेन्दर मिसिर की शाहखर्ची के किस्से फैलने लगे। जाली नोट छापने का राज खुलते ही महेन्दर मिसिर और उनके भाईयों को गिरफ्तार कर लिया गया। महेन्दर मिसिर को दस साल की सजा सुनाई गई। बक्सर जेल में रहते हुए उन्होंने सात खंडों में अपूर्व रामायण की रचना की थी। जेल में अच्छे व्यवहार के चलते तीन साल में ही उनकी रिहाई हो गई। देश की आजादी के एक साल पहले 26 अक्तूबर,1946 को वे दुनिया से विदा हो गये।

जाली नोट काण्ड महेन्दर मिसिर के जीवन का एक ऐसा पक्ष था जिसने उन्हें बेहद विवादास्पद बना दिया। कुछ लोग उनके इस कार्य को उनके देशप्रेम और अंग्रेजों के खिलाफ बगावत से जोड़कर देखते हैं, लेकिन इस देशप्रेम की अनुगूंज उनकी रचनाओं या जीवन में भी कहीं सुनाई नहीं देती।क्या यह संभव है कि देश की आज़ादी के लिए इतना बड़ा खतरा मोल लेने वाले रचनाकार की विपुल काव्य-संपदा में देश की गुलामी और देशवासियों के भीतर उससे मुक्त होने की छटपटाहट न हो ? उनके व्यक्तित्व के इस विरोधाभास पर आज भी बहस ज़ारी है। यह बहस आगे भी चलेगी। बहरहाल इस प्रकरण को उनकी मानवीय कमजोरी मानकर भुला दिया जा सकता है। अपनी तमाम रचनाधर्मिता के बावजूद महेन्दर मिसिर आखिर एक मनुष्य ही थे। हमें अपने आदर्श साहित्यकारों और कलाकारों को उनकी मानवोचित कमजोरियों के साथ स्वीकार करने की आदत डालनी होगी।

छपरा में नहीं, पटना में गिरफ्तार हुए थे महेन्दर मिसिर
हालांकि वरिष्ठ पत्रकार मिथिलेश कुमार सिंह ने ध्रुव गुप्त के कुछ तथ्यों पर असहमति जताते हुए कहा है- महेन्दर मिसिर छपरा में नहीं, पटना के गर्दनी बाग से जाली नोट और नोट छापने की मशीन के साथ गिरफ्तार हुए थे। यह गिरफ्तारी उस जासूस ने की, जो था तो पुलिस का आदमी, लेकिन महेन्दर मिसिर के यहां अपना नाम बदल कर उनके निजी सेवक के तौर पर महीनों से काम कर रहा था। इस जासूस का बदला हुआ नाम था- गोपीचंद। महेन्दर मिसिर आशु कवि भी थे। जब वह गिरफ्तार हुए तो उन्होंने तुरंत इस कवित्त से गोपीचंद की कृतघ्नता को कठघरे में खड़ा किया:
रे गोपीचनवा!
रे गोपीचनवा!
तोरा जियला से बेस बा मरनवा/ रे बच्चा जेहलखनवा देखवले ना
खाये के दिहलीं अंजी चउरवा/ पहिने के लुंगी चरखनवा/ रे बच्चा जेहलखनवा देखवले ना
भरि भरि कटोरवा में दुधवा पियवलीं/ देयि देयि के मिसरी- मखनवा/ रे बच्चा जेहलखनवा देखवले ना..
दूसरी बात कि भिखारी ठाकुर से उम्र में कम से कम दसेक साल बड़े थे महेंदर मिसिर। उनके लिखने-पढ़ने का सिलसिला भी भिखारी ठाकुर से पहले का है। भिखारी ठाकुर के पास पीड़ा है, विरह है, सामाजिक तानेबाने में छटपटाता मनुष्यत्व है तो महेंदर मिसिर के यहां पीड़ा का भी अपना संगीत है, अपना रिदम है। भिखारी ठाकुर पीड़ा ढूंढते हैं। महेंदर मिसिरे के यहां पीड़ा उस हिस्से के तौर पर दाखिल होती है, जिसे आप जीवन से विलगा ही नहीं सकते। भिखारी ठाकुर के यहां ‘बिदेसिया’ है तो महेंदर मिसिर के यहां ‘पुरबिया’। यह सारा कुछ लिखने का मकसद सिर्फ यह बताना है कि हम जिसे जानें, सांगोपांग जानें।‌

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