वीपी सिंह एक ऐसे प्रधानमंत्री और नेता थे, जिनके लिए लोगों ने ये नारा लगाया- राजा नहीं फ़क़ीर है- भारत की तक़दीर है! वर्तमान प्रधानमंत्री की तरह खुद उन्होंने कभी नहीं कहा कि वे तो फ़क़ीर हैं।
मान्डा के राजा और रियासत से ताल्लुक़ रखते थे वीपी। पर, समाज और राजनीति में वे सचमुच के फ़क़ीर सोच के निकले…जग सुन्दर जे होइया, जब सब जन एक समाना लगेया! देश-समाज-राजनीति की बुनावट को इसी तर्ज़ पर बदलने की ऐसी इबारत लिखी और उसे ज़मीन पर उतारा कि सब जन जागृत हो उठा।
आज नरेन्द्र मोदी भी दिल्ली के तख्त पर काबिज़ हैं तो जातीय तौर पर उनके सामाजिक न्याय के चेहरे को बताना-भुनाना नहीं भूलती बीजेपी जैसी पार्टी भी। वही बीजेपी, जिसने वीपी सिंह के मंडल के खिलाफ मंदिर का टन्टा खड़ा किया और वीपी सिंह की सामाजिक न्याय की पैरोकार सरकार को गिरा दिया।
वीपी की सरकार शायद हिन्दुस्तान की राजनीति की पहली ऐसी केन्द्र सरकार रही, जिसने राजनीतिक उसूल और भारत के आवाम की तक़दीर बदलने को लेकर संसद में शहादत दी! सवाल राजा या फ़क़ीर होने का नहीं, सवाल नीतियां बनाने और उसे अमली ज़ामा पहनाने को लेकर होता है। ज़म्हूरियत की राजनीति में आया एक राजा फ़क़ीरों के हित में काम करता है या एक ‘स्वयंभू फ़क़ीर’ राजाओं, धन कुबेरों के हित में काम करता है। ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात ये है कि एक प्रधान सेवक खुद ये कहे कि वो फ़क़ीर है, ये सही या कि किसी राजा के लिए देश के लोग ही हुंकार भरें कि वह राजा नहीं फ़क़ीर है।
देश सचमुच बदल गया है। देश की राजनीति की शैली और सत्ता शीर्ष का मिजाज़ बदल गया है। नारों का अन्दाज़ और नीयत भी बदली है। ऐसे में इस एक नारे के ज़रिये अपनी जयंती पर अपने राजनीतिक कर्मो को लेकर याद आ गये वीपी सिंह। आप ही तय करिये कि सच में राजा कौन फ़क़ीर कौन!
- नवेंदु कुमार