एक बात की कल्पना कीजिए। यदि केंद्र सरकार अपने प्रत्येक कर्मचारी के वेतन में से हर साल चार हजार रुपए की भी कटौती करने लगे तो कर्मचारी व उनके यूनियन चुप बैठेंगे ? कत्तई नहीं। वे देश में बड़ा आंदोलन कर देंगे। पर, यहां तो हर साल प्रत्येक कर्मचारी पर परोक्ष रूप से चार हजार कौन कहे, चालीस हजार रुपए का बोझ पड़ रहा है। वैसे तो 40 हजार सालाना का यह बोझ देश के हर नागरिक पर पड़ रहा है, पर अभी सिर्फ कर्मचारियों को ही ध्यान में रखें।
क्योंकि कर्मचारियों में अपनी मांगों की पूर्ति के लिए आंदोलन करने व कभी भी काम ठप कर देने की पूरी ताकत है। पर वे भी प्रत्यक्ष आर्थिक मार या लाभ को लेकर ही आंदोलन करते हैं। पर,परोक्ष को लेकर नहीं।
40 हजार रुपए का यह बोझ हिंसा से तबाह होने के कारण देश की अर्थव्यवस्था पड़ रहा है। आज के दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित अरविंद कुमार सिंह के लेख के अनुसार हिंसा के कारण गत साल इस देश को 80 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक बोझ पड़ा। यानी हर नागरिक पर 40 हजार रुपए का बोझ।
सर्वोच्च न्यायालय ने आंदोलन के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान और हिंसा करने वालों के खिलाफ कड़ा कदम उठाने का निदेश दिया है और कहा है कि आंदोलन से जुड़े राजनीतिक दलों और संघटनों को इस नुकसान की भरपाई करनी होगी।पर इस दिशा में कुछ होता नजर नहीं आ रहा है।
यदि केंद्र सरकार के पास एक साल में अतिरिक्त 80 लाख करोड़ रुपए कहीं से मिल जाएं तो उन पैसों से वह न जाने कितने अस्पताल खोल देगी। न जाने कितने स्कूल भवन बन जाएंगे और न जाने कितने सरकारी अस्पतालों को इलाज करने लायक सुसंपन्न बनाया जा सकेगा। सेना को उन पैसों से और भी ताकतवर बनाया जा सकेगा। पर, यह काम नहीं हो रहा है। यानी आंदोलन के दौरान तोड़-फोड़ करने वालों के खिलाफ सबक सिखाने लायक सजा का प्रबंध नहीं किया जा रहा है।