देशज और दैनिक जीवन के शब्दों को वाक्यों में पिरोकर मॉडर्न पत्रकारिता को एक नया रूप देने वाले स्व. प्रभाष जोशी का आज जन्मदिन है। पटना गांधी संग्रहालय में आयोजित एक व्याख्यानमाला में उनसे मुलाकात हुई थी। मुलाकात का श्रेय गांधी संग्रहालय के रजी अहमद साहब को जाता है। उन्होंने फोन कर मुझे कहा था- आशुतोष जी आपके फेवरेट प्रभाष जी आ रहे हैं। उन दिनों मेरी दोपहिया बाइक चोरी हो गयी थी। पैदल ही पटना में घूमना होता था। बचे वक्त में गांधी मैदान स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की मुख्य शाखा के दरवाजे पर गिलहरियों को खिलाना और उनके साथ खेलना होता था। प्रभाष जी से परिचय उनके साप्ताहिक- बेलौस, बिंदास और रोजमर्रा के जीवन पर लिखे ‘कागद-कारे’ से बहुत पहले हो चुका था। कोलकाता और खड़गपुर में रहते वक्त मैंने अपने पहला लेख- ‘बोझ ना रहे बुजुर्गों का जीवन’ जनसत्ता के लिये भेजा। वह लेख छप गया। फिर क्या था, मैं दो वर्षों तक लगातार जनसत्ता के कोलकाता संस्करण के लिये लिखता रहा। 1999 से 2002 तक।
खैर, प्रभाष जी के ‘कागद-कारे’ ने बताया कि मनुष्य के जीवन में होने वाली हर उथल-पुथल और अपने आसपास की छोटी-छोटी बातों और घटनाओं पर भी संवेदनात्मक रिपोर्ट लिखी जा सकती है। उनके लेख में हमेशा-भेनजी, उनने और क्रिकेट को लेकर नये-नये शब्द मिलते रहे। उन्हें पढ़ते वक्त लगता था कि शब्द चलचित्र बन गये हैं। आप पढ़ नहीं रहे, बल्कि शब्द दृश्यों में तब्दील होकर एक आकृति बना रहे हैं, जिन्हें आप घटित होता देख रहे हैं।
हां, तो मैं गांधी संग्रहालय गया और उन्हें ध्यान से बोलते हुए सुना। उस समय उनकी बाइपास सर्जरी हो चुकी थी। डायबिटीज भी थी उन्हें और वे रजी साहब को डायबिटीज टेस्ट करने वाली एक नयी मशीन दिखा रहे थे, जो पॉकेट में समा सकती थी। मुलाकात हुई, मैंने उनसे मिला। वह भी बहुत आत्मीयता से मिले। मैंने उनसे पूछा कि अब किसी अखबार के संपादकीय में ‘शक्करपुर के रिक्शावाले’ क्यों नहीं दिखते हैं। उन्होंने दिल्ली के ‘शक्करपुर के रिक्शावालों’ पर बहुत पहले ‘कागद- कारे’ लिखा था। जिसे मैंने पढ़ा था। वह हंसने लगे। उसके बाद उन्होंने जो कहा उसका मतलब यह था कि मामला पेशेवराना हो चला है। उसके आगे जो उन्होंने कहा वह यह था- देखो पत्रकारिता उसी दिन खत्म हो जायेगी, जिस दिन पत्रकारिता से संवेदना को निकाल दोगे। पत्रकारिता का मूल मंत्र परकाया प्रवेश होना चाहिए। जैसे दूसरा महसूसते हैं, वैसा तुममें महसूसने की ताकत है या नहीं। उन्होंने कहा असली पत्रकारिता एक संवेदनशील इंसान ही कर सकता है।
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बहुत सारी बातें हुई। मैंने उन्हें बताया कि आपका एक लेख राजेंद्र यादव जी ने ‘हंस’ में छापा है। उस समय राजेंद्र जी जीवित थे। वह हंसने लगे। यह बात सबको पता नहीं होगी। सती प्रथा के सपोर्ट में प्रभाष जी ने ‘कागद-कारे’ में एक लेख लिख दिया था। उसके बाद ‘हंस’ के संपादकीय में राजेंद्र यादव ने प्रभाष जोशी जी की बहुत खिंचाई की थी। पलटकर प्रभाष जोशी ने राजेंद्र यादव को ‘दारूकुट्टा’ लिख दिया था। उसके बाद से दोनों महानुभावों में शीत युद्ध जैसा वर्षों तक जारी रहा। हालांकि, दोनों लोग एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। प्रभाष जी के निधन पर स्व. राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ में एक अच्छा-सा संस्मरण लिखा।
उस मुलाकात में प्रभाष जी को रजी साहब ने बताया कि इन्होंने आशुतोष ने यूं ही बैठे-बैठे बहुत सारी गिलहरियां पाल ली हैं। प्रभाष जी यह जानकर बहुत खुश हुए। पीठ पर हल्के से धौल जमाई और आशीर्वाद दिया। उन्होंने कहा था कि मैं फुरसत में पटना आने के बाद तुम्हारे साथ गिलहरियों से जरूर मिलूंगा। उसके दो या तीन महीने बाद प्रभाष जी इस दुनिया से चल बसे। आज (15 जुलाई) उनका जन्मदिन है। मेरी ओर से उन्हें सादर नमन और श्रद्धांजलि।
- आशुतोष कुमार पांडेय