अर्से बाद 20 जुलाई को लोकसभा चली और खूब चली। सुबह 11 बजे से आधी रात तक चली । भोजनावकाश भी नहीं हुआ। ऐसा बहुत कम होता है। पिछले कई सत्रों से तो सदन में कामकाज ही नहीं हो पा रहा था। विपक्ष के लगातार हंगामें के कारण सदन की कार्रवाई स्थगित होती रही है। हंगामे इस बार भी हुए। अध्यक्ष को सदन स्थगित भी करना पड़ा। लेकिन सब कुछ नियंत्रण में रहा। अर्से बाद सदन के चलने का श्रेय सत्तारूढ़ दाल और विपक्ष दोनों को है। लेकिन ज्यादा श्रेय विपक्ष को दिया जाना चाहिए।
20 जुलाई को लोकसभा की कार्रवाई अगर 12 घंटे से ज्यादा चली तो क्यों चली ? क्या देश पर कोई अप्रत्याशित संकट था, या सरकार संकट में थी ? जनकल्याण का कोई महत्वपूर्ण कानून बनाना था या फिर व्यवस्था में कोई आमूलचूल परिवर्तन लाना था ? बेरोजगारी, सूखा, किसानों की समस्या, भ्रष्टाचार, अपराध, कालाधन, महंगाई, लोकपाल, कश्मीर के बेकाबू हालात, बेलगाम अफसरशाही जैसे किसी विषय पर चर्चा करनी थी ? नहीं, इसमें से कोई भी विषय नहीं था। ना कोई संवैधानिक बाध्यता थी। तो फिर आधी रात तक लोकसभा चलाने का मकसद क्या था ? माफ़ी के साथ कहना चाहता हूँ कि सदन सिर्फ ‘राजनीतिक खेल’ के लिए चला। कुछ माननीय सदस्यों की हठधर्मिता और अहंकार के कारण लोकसभा इतने लंबे समय तक, लम्बी अवधि के बाद चलानी पड़ी। इस राजनीतिक खेल में किसका फायदा और किसका घाटा हुआ, यह समीक्षा का विषय है, लेकिन इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जनता का इससे कोई फायदा नहीं हुआ, जिसके लिए यह सदन बना है।
अविश्वास प्रस्ताव से सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ना है, यह तय था। एक क्षेत्रीय दल तेलगुदेशम पार्टी की जिद ने सदन को इतनी देर बैठने को बाध्य किया। जब एक छोटे दल की अपने प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की जिद से सदन चल सकता है तो देश के भले के लिए सदन क्यों नहीं चलता ? जिसके लिए सांसद चुने जाते हैं और जिस जनकल्याण की शपथ लेते हैं ? जाहिर है वे सदन चलाना नहीं चाहते। सरकार से हज़ार शिकायतें हो सकती हैं। उसकी कार्यशैली से आप असहमत हों। वह काम नहीं कर रही हो। सरकार को आप तभी घेर सकते हैं जब सदन शांति से चले। सदन के चलने पर ही ही सरकार से जवाब मांगा जा सकता है, उसे बाध्य किया जा सकता है, जनता के बीच उसकी भद्द पिटवाई जा सकती है। लेकिन यह तभी संभव है जब सदन चले। विपक्ष यह क्यों नहीं समझ पाता ? सरकार का काम तो रुकता नहीं उल्टा विपक्ष सरकार बेनकाब मौका खो देता है। कामकाज के बिना सांसदों के वेतन -भत्ते लेने पर जनता बीच उनकी प्रतिष्ठा गिरती है। सबको नहीं मगर जो जनसरोकार बाले सांसद हैं उन्हें तो अपनी प्रतिष्ठा का ख्याल जरूर कचोटता होगा।
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अविश्वास प्रस्ताव भले सदन में गिर गया हो लेकिन जनता का विश्वास लोकतंत्र के इस मंदिर से न गिरे इसका प्रयास सभी राजनीतिक दलों को अवश्य करना चाहिये। यह विश्वास तभी कायम रहेगा जब संसद की उपयोगिता बनी रहे और उपयोगिता कैसे कायम रहेगी यह सभी सांसदों को बेहतर मालूम है।
- प्रवीण बागी