पटना। बिहार के मुज्जफरपुर जिले में अवस्थित अल्पावास गृह के सोशल ऑडिट से बहुतों की पोलपट्टी खुली। इससे एक बात तो जरूर स्पष्ट होती है कि पारदर्शिता और जवाबदेही के लिहाज से सोशल ऑडिट एक मजबूत औजार है, मगर हैरानी की बात है कि बिहार में स्वतंत्र सोशल ऑडिट निदेशालय होने के बावजूद भी सोशल ऑडिट का काम पिछले तीन साल से बंद है।
जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM) के सक्रिय सदस्य उज्ज्वल कुमार द्वारा मांगी गई आरटीआई के जवाब में जवाब में ग्रामीण विकास विभाग ने कहा है कि सामाजिक अंकेक्षण सोसाइटी द्वारा वित्तीय वर्ष 2017-18 में कोई सामाजिक अंकेक्षण नहीं कराया गया। इसके बावजूद एक करोड़ सात लाख चार हज़ार एक सौ पचास रुपये खर्च हो गए।
ज्ञात हो कि सामाजिक अंकेक्षण सोसाइटी का गठन 2015 में ही हुआ था। सरकार इस सोसाइटी द्वारा किसी भी विभाग से जुड़ी किसी भी योजना का सामाजिक अंकेक्षण करा सकती है। फिलहाल यह ग्रामीण विकास विभाग की योजनाओं का सामाजिक अंकेक्षण कर रही है। इस सोसाइटी की कार्यकारिणी में 15 विभागों के प्रधान सचिव हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि समाज कल्याण विभाग के प्रधान सचिव भी इस निदेशालय के एक सदस्य हैं। बिहार सरकार ने अल्पावास गृह के सामाजिक अंकेक्षण जैसा बेहद जरूरी काम निदेशालय के मार्फत 2015 के बाद अबतक क्यों नहीं कराया?
गौरतलब है कि समय-समय पर ऑडिट न होने की स्थिति में ही ऐसे दरिंदे पनपते हैं। यदि समय से सोशल ऑडिट होती तो सैकड़ों लड़कियां शारीरिक और मानसिक यातना का शिकार न होतीं। आरटीआई से यह बात भी सामने आई है कि बिहार सरकार ने निदेशालय को अबतक एक भी रुपया नहीं दिया है और न पूर्णकालिक निदेशक का ही विधिवत चयन किया गया है।
इसी संदर्भ में जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM) के राष्ट्रीय संयोजक ने बिहार सरकार से यह मांग की है कि अल्पावास गृह सहित सामाजिक कल्याण की सभी योजनाओं का नियमित रूप से सामाजिक अंकेक्षण कराया जाये और जल्द से जल्द निदेशालय के पूर्णकालिक निदेशक का विधिवत चयन किया जाये।
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