राजेंद्र माथुर मानते थे, लिखना बदलाव की जमीन तैयार करता है

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  • मिथिलेश कुमार सिंह

पिछले कुछ दिनों से प्रभाष जोशी बनाम राजेंद्र माथुर पर बड़ी गंभीर  चर्चा में अपने कुछ साथी मसरूफ हैं। किसी को राजेंद्र माथुर के व्यक्तित्व के चोर छेद दिख रहे हैं तो किसी को प्रभाष जोशी के बहाने रामनाथ गोयनका जैसा ढीठ सरमायेदार याद आ रहा है, जिसके बूते उन्होंने सत्ता के नकार की लड़ाई लड़ी और हिन्दी पत्रकरिता को एक नयी अष्टाध्यायी से लैस किया।

बड़े एहतराम के साथ, बड़े ही एहतराफ, बड़ी ही माजरत के साथ एक बात कहूं? राजेंद्र माथुर हिन्दी ही नहीं, समूचे भारतीय वांगमय की पत्रकारिता में संपादक नामधारी संस्था के आखिरी चश्मोचराग़ थे। उनके बाद इस देश में संपादक नहीं हुए, मैनेजर ज़रूर हुए।

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राजेंद्र माथुर से प्रभाष जोशी की तुलना हो ही नहीं सकती। राजेंद्र माथुर बड़े सरकारों के बड़े पत्रकार थे। प्रभाष जोशी छोटे सरोकारों के बड़े पत्रकार थे। उनमें रवानी और जुनून ज्यादा था। उन्हें हमेशा लगता था कि वह लिखेंगे और तूफान आ जाएगा, चीजें रातोंरात बदल जाएंगी, हर चीज दुरुस्त हो जाएगी। उनका यह जुनून उन्हें एक्टिविज्म और बाजदफा गोरिल्लापंथ की ओर ले जाता था। राजेंद्र माथुर का फंडा बहुत साफ था कि लिखना बदलाव की जमीन तैयार करता है, बदलाव का निमित्त और कारक तत्व बनता है लेकिन बदलाव में पत्रकार की गोरिल्ला हैसियत रही तो वह लिखेगा कब? सूंघेगा कैसे कि यह गंध धुएं की है, लिहाजा आग को भी आसपास ही होना चाहिए?

जो मित्र नहीं जानते हैं, वह जान लें कि प्रभाष जोशी को उनके पत्रकार जीवन की पहली नौकरी राजेंद्र माथुर ने ही दी थी- बतौर प्रूफरीडर। अखबार था नयी दुनिया। उम्मीद है, अब ऐसे सवालों पर हम किसी तफसरा में नहीं जाएंगे। एक बात हमेशा याद रहे कि राजेंद्र माथुर की सबसे बड़ी ताकत इस बात में थी कि वह हमेशा निरुत्तर करते थे। जोशी जी इसके ठीक उलट, वह हमेशा आपको स्पेस देते थे। जिन साथियों को इस बयान पर शक हो और वे तसदीक करना चाहें, वे ‘ गहरी नींद के सपनों बनता देश’ या ‘ एक डूबे हुए जहाज की याद मे’ जैसे राजेंद्र माथुर के लेख जरूर पढ़ लें। माथुर जी का एक्स फैक्टर क्या था? आप उनकी कापी नहीं कर सकते। यही, बिल्कुल यही था  उनका एक्स फैक्टर।

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