रामविलास जी तथा सत्ताधारी गठबंधन के अन्य नेता ऊंची जाति के नौजवानों को फुसलाने के लिए उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण का सब्ज़बाग़ दिखा रहे हैं। सबको मालूम है कि आरक्षण का संवैधानिक आधार आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है।
1991 में नरसिंह राव जी की सरकार ने उच्च जातियों के ग़रीब परिवार के नौजवानों को आर्थिक आधार पर सरकारी नौकरियों में दस प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान किया था। लेकिन 1992 में उच्चत्तम न्यायालय ने उस आरक्षण व्यवस्था को संवैधानिक आधार पर अमान्य कर दिया था। सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन के अलावा अलग-अलग जातियों का उनकी आबादी के अनुपात में सरकारी सेवा में उनका कितना प्रतिनिधित्व है, इसको भी आरक्षण का एक आधार माना गया है। इस कसौटी पर तो उँची जातियों के लिए सरकारी सेवा में आरक्षण का आधार बिल्कुल नहीं बनता है, क्योंकि सरकारी नौकरियों में उँची जातियों का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के अनुपात के मुक़ाबले बहुत ज्यादा है।
नरसिंह राव की सरकार के बाद 2003 में अटल जी की सरकार ने भी ग़रीबी को आरक्षण का आधार बनाने हेतु सुझाव देने के मकसद से एक आयोग का गठन किया था. लेकिन उसका क्या हुआ, इसकी जानकारी नहीं है। इन सबके बावजूद जब रामविलास जी तथा उस जमात के अन्य नेता सामान्य जाति के युवाओं को भरमाने के लिए आरक्षण की बात करते हैं तो इस पर ग़ुस्सा आता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बेरोज़गारी और ग़रीबी देश की सबसे गंभीर समस्या है। उंची जातियों में भी ग़रीबी और बेरोज़गारी की समस्या विकट है। इसलिए उँची जातियों के नौजवानों में अपनी बेरोज़गारी को लेकर जो चिंता या ग़ुस्सा है, उसको जायज़ माना जाएगा। लेकिन उनके ग़ुस्से का निशाना सही नहीं है। वे क्यों भूल गए कि नरेंद्र मोदी जी ने 2014 के लोकसभा चुनाव अभियान के दरम्यान अच्छे दिनों का वायदा किया था। प्रतिवर्ष दो करोड़ बेरोज़गार नौजवानों को काम देने का संकल्प घोषित किया था। उनके वायदों पर देश के नौजवानों ने यकीन किया था। याद कीजिए देश के नौजवानों ने मोदी जी के उस वादे पर भरोसा कर किस प्रकार जातीय और धार्मिक दायरे से उपर उठकर उन्मादी ढंग से पिछले लोकसभा चुनाव में उनका समर्थन किया था। लेकिन मोदी सरकार ने तो नौजवानों के साथ बहुत बड़ा छल किया है। रोज़गार मिलने की बात तो दूर, इनकी नीतियों की वजह से कई तरह के रोज़गार-धंधे बंद हो गए और बड़े पैमाने पर लोग बेरोज़गारी के शिकार हुए। विशेष रूप से नोटबंदी ने न सिर्फ अनगिनत लोगों को बेरोज़गार बनाया, बल्कि बैंकों की क़तार में सौ से ज्यादा लोगों की जान चली गई। इसलिए नौजवानों के ग़ुस्सा के निशाने पर तो मोदी सरकार को होना चाहिए था, लेकिन नासमझी, ईर्ष्या और जलन की वजह से उँची जातियों के बेरोज़गार नौजवान अपने ग़ुस्से का निशाना पिछड़े, दलित और आदिवासी समाज को मिलने वाली आरक्षण व्यवस्था को बना रहे हैं। जैसे इन तबक़ों को मिलने वाली आरक्षण व्यवस्था ही इनकी बेरोज़गारी के लिए जवाबदेह हो। अगर बेरोज़गारी का इलाज आरक्षण होता तो पिछड़े, दलित और आदिवासी समाज के नौजवानों में बेरोज़गारी तो बिल्कुल नहीं होनी चाहिए थी। फिर आरक्षण के बावजूद इनके बीच भी बेरोज़गारी क्यों नज़र आती है!
सबसे पहले यह देखना चाहिए कि देश में सरकारी नौकरियों की, जहाँ आरक्षण का प्रावधान है, अधिकतम संख्या कितनी हैं। 2011-2012 की एक गणना के मुताबिक़ देश में 1 करोड़ 76 लाख लोग सरकारी सेवा में हैं। यह हमारी आबादी का डेढ़ से दो प्रतिशत के बराबर है। इतना ही नहीं, सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घटाई जा रही है। भारत सरकार के श्रम एवं नियोजन मंत्रालय के मुताबिक़ 31 मार्च, 2011 को केंद्र सरकार की नियमित नौकरियों में कुल 30.87 लाख लोग काम कर रहे थे, जबकि 31 मार्च 2009 को इनकी संख्या 30.99 लाख थी। इस प्रकार इन दो वर्षों में ही केंद्र सरकार की बारह लाख नौकरियाँ कम हो गईं।
अभी 2016 के मार्च महीना में मोदी सरकार के मंत्री थावर चंद गहलोत जी ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में क़ुबूल किया कि सार्वजनिक क्षेत्र में जहाँ आरक्षण का प्रावधान है, नौकरियाँ घट रही हैं और निजी क्षेत्र में जहाँ आरक्षण का प्रावधान नहीं है, वहाँ नौकरियाँ बढ़ रही हैं। आश्चर्य है कि रामविलास जी सहित सत्ताधारी गठबंधन के मंत्री और नेता इन बातों को नौजवानों से छिपा क्यों रहे हैं। इससे समाज में बेवजह ग़लतफ़हमी पैदा होती है और माहौल खराब होता है
नीतीश कुमार की पार्टी को तो इस मामले में बोलना ही नहीं चाहिए। मुझे याद है कि 2010 में सरकार के पुन: गठन के बाद नीतीश कुमार ने सवर्ण आयोग के गठन की घोषणा की थी। संभवत: 2010 के चुनाव घोषणा पत्र में आयोग गठन का वादा जदयू ने किया था। मैंने संविधान का हवाला देकर इसका विरोध किया था। एक अणे मार्ग में पार्टी नेताओं की बैठक में नीतीश ने मेरे बयान पर एतराज़ उठाया था। स्वर्ण आयोग का गठन हुआ। इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक अवकाशप्राप्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में आयोग का गठन हुआ था। जदयू और भाजपा दोनों दलों के लोग आयोग के सदस्य थे। 2011 से 2016 तक उस आयोग ने काम किया। मेरी जानकारी के अनुसार उस आयोग पर लगभग बारह करोड़ रुपये ख़र्च हुए। इतना ख़र्च करने के बाद उसका फल क्या निकला, कितने ग़रीब सवर्णों का कल्याण हुआ, उसकी कोई जानकारी बिहार की जनता को नहीं दी गई।
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इसलिए दो बातें स्पष्ट हैं। पहला- ग़रीबी को आधार बनाकर सरकारी नौकरियों में आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। दूसरा- बेरोज़गारी दूर करने में सरकारी नौकरियों की भूमिका बहुत अल्प है, लेकिन रोज़गार का अवसर उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व है। इसलिए बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ रोज़गार के लिए तमाम बेरोज़गार नौजवानों का संगठन बनना चाहिए। इस तरह के सकारात्मक अभियान से समाज मज़बूत होगा, लेकिन जो राजनीतिक दल या संगठन नौजवानों को धर्म या जाति के आधार पर संगठित होने के लिए प्रेरित कर दलित, आदिवासी या पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण के विरूद्ध संघर्ष के लिए उकसा रहे हैं, उससे देश में गृह युद्ध की स्थिति पैदा हो सकती है। उस स्थिति कल्पना भी डरावनी लगती है। इसलिए नौजवानों को वैसे लोगों के बहकावे में आने से बचना होगा तथा बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए उन्हें एक व्यापक संगठन बनाने के काम में लग जाना चाहिए।
- शिवानन्द