बब्बन सिंह,
वरिष्ठ पत्रकार
पूर्वोत्तर में कांग्रेस की हार को जो लोग उसके सफाए के रूप में देख रहे हैं उन्हें राजस्थान, मध्य प्रदेश व कर्नाटक के आगामी चुनावों के नतीजे के आने तक इंतज़ार करना चाहिए. मूलतः पूर्वोत्तर राज्यों की राजनीति हमेशा से केंद्र के रहमों-करम से जुड़ी रही है. इसलिए वहां की जनता व रहनुमा हमेशा व्यवहारवादी राजनीति पसंद करते हैं और प्रायः केंद्र के साथ होते है. दो-तीन सालों में वहां हुए राजनैतिक बदलाव इसी बात को पुष्ट करते हैं.
हालांकि अबतक त्रिपुरा में स्थिति भिन्न थी लेकिन अब उसने भी खुद को आसान रास्ते पर डाल दिया है। वैसे भी वहां माकपा बेहद मामूली वोट फीसद (लगभग आधे फीसद) से हारी है. कदाचित दशकों से सत्ता में रहने के कारण उत्पन्न आत्मविश्वास और शैथिल्य के कारण ऐसा हुआ है.
अगर मोदी-शाह के आभामंडल, भाजपा की संगठन व चुनावी मशीनरी की ताकत को वहां के सियासतदानों ने समझा होता तो आज वे सत्ता से बाहर नहीं होते. फिर भी हमारी व्यक्तिगत मान्यता है कि सत्ता में किसी भी पार्टी को 5 साल से ज्यादा नहीं रहने देना चाहिए. इससे ज्यादा समय तक सत्तासीन पार्टियां यथास्थितिवादी का शिकार हो जाती हैं और विकास के चरण धीमे हो जाते हैं.
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