कभी मुन्ना मास्टर थे, अब हैं एडिटर
जीवन में कई बार ऐसी चीजें घटित हो जाती हैं, जिनके बारे में आदमी कभी
सोच भी नहीं पाता। मेरा पत्रकार बन जाना, कुछ इसी तरह की घटना है। स्कूली
जीवन में साहित्य परिषद की कविता व निबंध लेखन प्रतियोगिताओं में हिस्सा
लेने का सिलसिला अखबार के दफ्तर के दरवाजे तक पहुंचने का जरिया बन गया।
कविताएं और लेख छपाने के चक्कर में पत्रकार बन गया। तब उम्र 16 साल रही
होगी।
टाइम्स आफ इंडिया घराने से सबंध रखने वाले आमोद कुमार जैन गोपालगंज जिले
(तब सारण जिले का विभाजन नहीं हुआ था) के छोटे शहर मीरगंज में बस गये थे।
तब साहू जैन घराने की चीनी मिल और शराब फैक्टरी वहां थी। आमोद बाबू के
बड़ेभाई उन्हीं फैक्टरियों के मैनेजर थे। आमोद बाबू साहित्यिक मिजाज के
व्यक्ति थे। उन्होंने सारण संदेश नाम का साप्ताहिक पत्र शुरू किया था।
कहने को तो वह छोटा साप्ताहिक था, आठ पन्ने का टैबलायड, लेकिन वह नये
पत्रकारों के प्रशिक्षण का केंद्र बन गया था। कई पत्रकार उससे निकले और
अभी कार्यरत हैं या कुछ अपने संस्थानों से रिटायर हो चुके हैं। सामाजवादी
विचारधारा के पृथ्वीनाथ तिवारी उसके संस्थापक संपादक थे, जिन्होंने बाद
में नवभारत टाइम्स में भी काम किया। उसके बाद संपादक बने शत्रुघ्न नाथ
त्विारी। मेरे काम शुरू करने के वक्त वही संपादक थे। मूल रूप से शिक्षक,
विचारों से समाजवादी। जिस स्कूल में पढ़ाते थे, वहां प्रबंधन से हुए विवाद
में उनकी नौकरी चली गयी। फिर उन्होंने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी और
रिटायरमेंट की उम्र से थोड़ा पहले वह कानूनी लड़ाई जीत गये। नयागांव (छपरा)
में उनकी पोस्टिंग वर्षों बाद दोबारा हो गयी।
उनके साथ सहायक संपादक के तौर पर जुड़े थे देवेंद्र मिश्र, जो बाद में
रांची एक्सप्रेस, आज गये और अंत में हिन्दुस्तान से रिटायर हुए। इमरजेंसी
के दौरान शत्रुघ्न नाथ तिवारी और देवेंद्र मिश्र को जेल भी जाना पड़ा।
सहायक संपादक के रूप में बासुदेव तिवारी भी जुड़े थे। उन्हें भी इमरजेंसी
में जेल जाना पड़ा। बाद में वह भी रांची एक्सप्रेस और फिर हिन्दुस्तान चले
गये।
उसी दौरान मैं सबसे कम उम्र का प्रखंडस्तरीय रिपोर्टर बना। सुरेंद्र
किशोर भी प्रखंडस्तरीय रिपोर्टर थे। बाद में वह जनसत्ता चले गये। फिर
हिन्दुस्तान से रिटायर होकर फिलवक्त वह दैनिक भास्कर, पटना के सलाहकार
संपादक हैं।
रिपोर्टरी करते मैं कालेज पहुंच गया। बीए की परीक्षा दी थी, तभी मेरे साथ
पढ़ने वाले एक मित्र दिनेश पांडेय ने सारण का बागी नामक साप्ताहिक का
रजिस्ट्रेशन करा लिया। आर्थिक मोरचे पर मैं काफी कमजोर था। उसकी विस्तृत
व्याख्या आगे कहीं करूंगा। दिनेश पांडेय भी बाद में सारण संदेश का
रिपोर्टर बन गये थे। तब संपादक थे लक्ष्मण पाठक प्रदीप। एक दिन उन्होंने
अपने मजाकिया अंदाज में दिनेश से पूछा कि- सीता ह्रस्व ईकार या दीर्घ
ईकार से लिखा जाता है तो दिनेश ने गलत जवाब दे दिया। इस पर तुनक कर
प्रदीप जी ने कहा कि जीवन में तुम कभी पत्रकार नहीं बनोगे। यह बात दिनेश
को इतनी तीखी लगी कि उन्होंने अखबार का रजिस्ट्रेशन ही करा डाला।
फिर क्या था। दिनेश उस अखबार के प्रधान संपादक और मैं संपादक बन गये।
पहला अंक भाड़े की मशीन पर छपा और दूसरे अंक के आते-आते माली हालत खस्ता।
इस बीच मेरी और दिनेश की शादियां हो चुकी थीं। मैंने ससुराल से मिली
अंगुठी 120 रुपये में बेची। कोठारी ब्रांड की बनियान का शौकीन होने के
कारण खरीदने के लिए 18 रुपये मैंने बचा रखे थे। इन पैसों से एक अंक और छप
गया।
अब आगे अखबार के छपने की कोई संभावना नहीं थी। दिनेश ने अपनी पत्नी के
गहने बेच डाले। मेरी शादी में तो धनाभाव के कारण पत्नी के गहने बने ही
नहीं थे। एक पुरानी ट्रेडिल मशीन खरीदी गयी। बरौली (गोपालगंज) में एक
खपड़ैल का मकान भाड़े पर लिया गया। बिजली या जेनरेटर की व्यवस्था थी नहीं।
लालटेन की रेशनी में दोनों मित्र रात में बाहर का दरवाजा बंद कर खुद
खबरें कंपोज करते और दिन में संपादक का रुतबा झाड़ते। छपाई के दिन शरीर से
पुष्ट होने के कारण दिनेश मशीन को धक्का देते और मैं उसमें कागज डालता।
अगले दिन दोनों मित्र खुद 50-60 अखबार बेच लेते। फिर भी धन का संकट कम
नहीं हो पाया। मशीन आ जाने के कारण अब महज कागज का इंतजाम करना होता, पर
उसके पैसे का बंदोबस्त भी आसानी से नहीं होता।
इस बीच मैंने तय किया कि सारण संदेश में नौकरी करूंऔर साथ में एक स्कूल
भी खोल लिया, ताकि कुछ पैसे का बंदोबस्त हो सके। स्कूल के कारण मैं
मुन्ना मास्टर बन गया। मुन्ना मेरे घर का नाम था। संयोग से सारण संदेश
में मुझे 220 रुपये मासिक पर नौकरी मिल गयी। तब मैं 23 साल का हो गया था
और बात 1983 की है। 1989 तक मैं उस अखबार में सहायक संपादक रहा और जब
नौकरी छोड़ी तो मेरी अंतिम तनख्वाह बढ़ कर 340 रुपये हो गयी थी। यानी मैंने
30 साल तक गांव की परिधि में ही अपने को रखा और अब सरकारी नौकरी की आस भी
खत्म हो गयी थी।
एक बार लगा कि बचपन से ही संघर्ष के जरिये जीवन को सुगम बनाने के सारे
रास्ते अब बंद हो गये। इस बीच देवेंद्र मिश्र जी से बातचीत होती रहती थी।
चूंकि मैं भोजपुरी में कविताएं लिखता था, इसलिए दो-तीन महीने के अंतराल
पर पटना आकाशवाणी केंद्र जाना पड़ता। तब देवेंद्र जी से मिल कर नौकरी की
बात करता। वह भी मेरे लिए प्रयत्नशील थे। पर, कोई उपाय नहीं हो पा रहा
था।
एक दिन सारण संदेश के मालिक आमोद बाबू ने कहा कि अखबार के साथ मैं प्रेस
का काम भी देखूं। शायद वह तारीख 4 फरवरी 1989 थी। मैं अवाक था कि एक
संपादक अब प्रेस का जाब वर्क देखेगा। अब तक किसी संपादक से उन्होंने ऐसा
नहीं कहा था। मैं परेशान। उनसे कहा कि कल सोच कर बताऊंगा। मेरे पास एक
मोपेड थी। उससे घर चला।
मेरे गांव का बाजार सड़क किनारे बसा है। इससे बाजार लंबा दिखता है। जब
बाजार के करीब पहुंचा तो मेरा छोटा भाई खड़ा मिला। उसने मेरे हाथ में एक
टेलीग्राम दिया, जिसे देवेंद्र जी ने भेजा था। संदेश था- कम आन फोर्थ
पाजिटिवली (4 को हर हाल में पहुंचो)। तार मुझे 4 को ही मिला था। मैंने
कहा कि चार तो आज बीत गया। अब जाने का क्या फायदा। मेरे छोटे भाई ने जिद
की कि फिर भी मैं जाऊं। मैंने कहा कि अभी तो किराये के पैसे भी नहीं हैं
तो उसने कहा कि इसकी व्यवस्था उसने कर दी है। मेरी ससुराल से उसने पैसे
उधार ले लिये थे। बहरहाल उसकी जिद पर मैं उसी रात पटना के लिए निकल गया।
अगली सुबह देवेंद्र जी के डेरे पर पहुंचा। उन्होंने कहा कि उनके मित्र
चंद्रेश्वर जी गुवाहाटी से अखबार निकालने जा रहे हैं। कल इंटरव्यू था।
फिर भी चलिए देखते हैं। नाश्ते के बाद स्कूटर से देवेंद्र जी मुझे
चंद्रेश्वर जी के घर ले गये। उस वक्त वह दाढ़ी बनाने बैठे थे। देवेंद्र जी
ने मेरा परिचय उनसे कराया और कहा कि इस लड़के को अपने साथ ले जायें।
उन्होंने कहा कि संयोग है कि मालिक की फ्लाइट कल कैंसल हो गयी। वह अभी
पटना में ही हैं। मैं दोपहर में आशियाना टावर पहुंचूं। कितने पैसे मांगने
हैं, यह उन्होंने समझा दिया।
मैं आशियाना टावर पहुंचा। चंद्रेश्वर जी पहले से वहां मालिक के पास बैठे
हुए थे। मालिक ने मुझे बुलाया और कहा कि हिन्दी और अंगरेजी में कुछ भी
लिख कर ले आओ। जाहिर बात थी, गांव का होने के कारण अंगरेजी में विचार
लिखना सीखा नहीं था। हिन्दी में जरूर सौ-दो शौ शद लिखे और देने चला गया।
अब अंगरेजी में लिखने के लिए मैं लौटने लगा। मेरी हैंडराइटिंग देखते ही
उसने पीछे से आवाज दी। मैं मुड़ा तो पूछा कि पहले तुमने कहीं अप्लाई किया
था। मैंने बताया कि हिन्दुस्तान में एक वर्गीकृत विज्ञापन छपा था, उसके
बाक्स नंबर में आवेदन डाला था। फिर उन्होंने पूछा कि कोई बुलावा आया था?
मैंने बताया कि गेरुआ रंग के अक्षरों में कोई अनजान भाषा का लेटर पैड था
और जिस तारीख को बुलाया गया था, वह बीत चुकी थी। इसलिए उस पर ध्यान ही
नहीं दिया। उन्होंने कहा- बैठो। फिर उन्होंने बताया कि वह लेटरहेड असमिया
में था और मैंने ही तुम्हारे आवेदन की हैंडराइटिंग देख कर तुम्हें बुलाया
था। अभी तुम्हारी राइटिंग देखी तो सब कुछ याद आ गया। बातें होने लगीं।
अंगरेजी में कुछ लिखने का पिंड छूट गया। उन्होंने कहा कि कितने पैसे
लोगे। जैसा मुझे सिखाया गया था, मैंने तीन हजार कह दिया। उन्होंने कहा कि
अभी तुम्हें 1400 मिलेंगे और छह महीने बाद 3000 मिलने लगेंगे। तुम कब तक
ज्वाइन करोगे। सामने होली थी तो मैंने कहा कि होली के बाद। इस पर
उन्होंने कहा कि किसी भी हाल में तुम्हें 19 फरवरी को गुवाहाटी पहुंचना
है। होली का इंतजार न करो। तुरंत मेरा लेटर टाइप हुआ और उसमें 1400 रुपये
की तनख्वाह लिख दी गयी।
मेरी खुशी का पारावार नहीं था। कहां 340 रुपये और कहां 1400। मैं लेटर
लेकर अपने गुरु देवेंद्र जी के पास पहुंचा। होली तक मोहलत की उनसे पैरवी
करायी। उन्होंने मालिक से आग्रह किया कि 10-15 दिनों में मैं इसे
हिन्दुस्तान में ट्रेनिंग दे दूंगा। इस पर मालिक ने कहा कि वह वहीं मुझे
काम सिखा देंगे। बहरहाल घर लौटा तो परिवार में इस कदर खुशी का माहौल बना
कि उसे याद कर सिर्फ महसूस किया जा सकता है। पत्नी के चेहरे पर इस बात की
खुशी थी कि अब उनका पति बेरोजगार नहीं। विधवा मां के चेहरे पर रौनक इसलिए
कि बेटा अब इतना पैसा कमायेगा। चाचा, चाची (बड़का बाबूजी और बड़की माई) और
छोटे भाइयों में गजब की खुशी। गांव-जवार में भी यह आश्चर्य भरी खुशी की
खबर फैल गयी कि मुन्ना मास्टर अब अच्छी तनख्वाह पर कमाने जा रहा है। यानी
दैनिक अखबार में कैरियर की शुरुआत करने के लिए काली के देश कामाख्या जाने
की बुनियाद मेरी तैयार हो गयी।
अब तक इस बात से अनजान था कि पत्रकारिता के सफर में मंजिल कभी नहीं
मिलती। अलबत्ता पड़ाव दर पड़ाव भटकाव खूब होता है। यह जानता भी कैसे? अभी
पत्रकारिता में प्रवेश की अधिकतम उम्र 25 साल बतायी जा रही है। मैं तो
तकरीबन 30 साल की उम्र पूरी कर किसी पड़ाव के लिए रवाना हुआ था। दो पड़ाव
जो स्कूल-कालेज के दिनों में मिले थे, वे गांव के इर्द-गिर्द ही थे। औकात
में भी उन पड़ावों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता। इसलिए कि वे
प्रकृति से साप्ताहिक और जिलों के अखबार थे। दैनिक अखबार में मेरे प्रवेश
का गुवाहाटी, जिसे मैं अक्सर काली के देश कामाख्या कहता हूं, पहला पड़ाव
था।
अगर इंसान की औसत उम्र 100 साल मान ली जाये तो यह कहा जा सकता है कि मैं
अपने जीवन का करीब एक तिहाई गांव की माटी के मोहक गंध में बिताने के बाद
शहर की नयी गंध सूंघने निकला था।
गांव में था तो जाहिर है कि संगी-साथी भी गंवई ही होंगे। औरों को फिलवक्त
छोड़ भी दें तो दो लोगों को कभी नहीं भूल पाऊंगा, जो खैनी खिलाने वाले और
मेरे हर काम में राय-मशविरा देने वाले होते थे। इनमें एक थे वकील राउत और
दूसरे शिवशंकर साह। बिहार का हूं, इसलिए किसी की पहचान कराने के लिए उसकी
जाति का जिक्र आवश्यक है। हालांकि कभी मैंने जातिगत भावना से कोई काम
नहीं किया, सिर्फ अपनी शादी को छोड़ कर। जातिगत भावना से मुझे इतना परहेज
था कि अब तक अपने नाम के साथ जाति सूचक उपनाम से मैंने परहेज किया है।
बच्चों के नाम के साथ भी अपना ही उपनाम जोड़ रखा है। अपने दो मित्रों की
जाति बताने के पीछे भी मेरा मकसद छिपा है। एक मित्र शिवशंकर साह गोंड
जाति से थे, जो पारंपरिक तरीके से भूंजा भुनने का काम करती रही है।
हालांकि अब इस जाति के लोग भी दूसरे पेशे से जुड़ गये हैं। नौकरी करने
लगे हैं। दूसरे मित्र वकील रावत, गद्दी जाति के थे। गद्दी जाति के लोग उस
जमात से आते हैं, जिनके नाम हिन्दू होते थे, इबादत अल्लाह की करते थे और
पेशा दूध-दही बेचने वाले ग्वालों जैसा था। इनके इतिहास के बारे में तो
ज्यादा नहीं पता, लेकिन अनुमान लगाया कि पूर्व में ये हिन्दू रहे होंगे
और कभी दबाव या मजबूरी में इसलाम धर्म कबूल कर लिये होंगे। शायद यही वजह
रही कि पुरानी पीढ़ी के लोग अपना नाम हिन्दुओं की तरह ही रखते थे। हालांकि
अब इनके वंशजों के नाम भी मुसलिम नामों की तरह रखे जाने लगे हैं।
इन दो मित्रों की जाति-बिरादरी बताने के पीछे मेरी मंशा यही थी कि शुरू
से ही मैं जाति प्रथा का विरोधी और सर्वधर्म समभाव का समर्थक रहा। बदलते
काल और परिस्थितियों में भी मेरे अंदर यह भाव अभी तक अक्षुण्ण है, यह कम
से कम मेरे लिए गर्व की बात है।
गुवाहाटी की ट्रेन मेरे निकटवर्ती स्टेशन सीवान से रात में 11 बजे के
आसपास खुलती थी। तब एक ही ट्रेन थी। स्टेशन गांव से 14 किलोमीटर दूर। तब
इतने वाहन भी नहीं थे। गांव में बमुश्किल एक-दो साइकिलें तब होती थीं।
सड़कों पर सवारी वाले वाहन तो इक्का-दुक्का ही होते थे, जो सिर्फ दिन में
चलते और शाम ढले सड़कें सुनसान। ऐसे में किसी को स्टेशन जाना हो तो वह
पैदल ही जाता। चोर-उचक्कों की सक्रियता को ध्यान में रखते हुए लोग अपने
आने-जाने का समय तय कर लेते।
मुझे स्टेशन तक छोड़ने के लिए मेरे ये दोनों मित्र तैयार हुए। सवारी गाड़ी
को ध्यान में रख कर हम लोग शाम ढलने से पहले ही घर से निकल गये थे। रात
करीब 8 बजे तक हम लोग सीवान स्टेशन पर थे। तय हुआ कि मुझे ट्रेन पर बिठा
कर ही वे लोग सवेरे लौटेंगे। स्टेशन पर चादर बिछा कर तीनों बैठ गये।
बिछुड़ने की दुख भरी बातें बतियातें, भविष्य की योजनाओं पर चर्चा करते और
मन-बेमन से बार-बार खैनी की खिल्ली खाते हम लोग गाड़ी के आने का इंतजार
करने लगे।
जहां तक मुझे याद है कि वह तारीख थी 17 फरवरी 1989। इसलिए कि मुझे हर हाल
में 19 फरवरी को गुवाहाटी पहुंचने के लिए मालिक गोवर्धन अटल ने कह दिया
था। मेरे पास गांव के जुलाहों की बुनी एक दमदार दरी थी और ओढ़ना के लिए
ससुराल से मांग कर लायी गयी एक शाल। आप अनुमान लगा सकते हैं कि फरवरी की
ठंड को रोकने के लिए ये ओढ़ने-बिछाने के सामान पर्याप्त नहीं रहे होंगे।
फिर भी नौकरी पा जाने का एक उत्साह सारी कमियों-परेशानियों पर भारी था।
उत्साह ने परिजनों से बिछुड़ने की मर्मांतक पीड़ा का भी हरण कर लिया था।
बहरहाल, ट्रेन आयी और मैं मित्रों से विदा लेकर उस पर सवार हुआ। याद नहीं
कि तब ट्रेन में रिजर्वेशन की परंपरा थी या नहीं। या फिर मुझे ही इसका
ज्ञान नहीं था। यह याद नहीं कि मैं रिजर्वेशन वाली सीट पर बैठा या जनरल
बोगी में। खैर, चल पड़ी ट्रेन काली के देश कामाख्या की ओर।
अनजान शहर की यात्रा और वह भी पहली बार। ट्रेन में मेरा एक साथी बना
गोरखपुर का एक अनजान युवक। वह भी गुवाहाटी जा रहा था। मुझमें और उसमें
फर्क इतना भर था कि वह पहले से वहां आता-जाता था और मैं पहली बार जा रहा
था। मुझे बड़ा संबल मिला। रास्ते में बोलते-बतियाते कब आंख लग गयी, पता
नहीं चला। भोर हुई और आंख खुली तो हम लोग एक अनजान स्टेशन न्यू जलपाईगुड़ी
में थे। लोगों की जुबान पर एनजेपी की गूंज थी। पता चला कि ट्रेन अब आगे
नहीं जायेगी। इसके कारणों का पता करने साथ वाला युवक नीचे उतरा। वहां
चारों तरफ एक अनजान भाषा में लोग बातें कर रहे थे। मुझे कुछ भी समझ में
नहीं आ रहा था। यह भी मालूम नहीं था कि वह अनजान लगने वाली भाषा कौन-सी
थी। बाद में जब बंगाल गया तो जाना कि वह बांग्ला भाषा थी, जिसमें एनजेपी
स्टेशन पर लोग बात कर रहे थे।
लड़का जब लौटा तो उसने बताया कि बोडो आंदोलनकारियों ने एक हजार घंटे का
बंद बुलाया है। इसलिए अब ट्रेन आगे नहीं जायेगी। जिन यात्रियों को वापस
लौट जाना है, उनके टिकट वापस लेकर पैसे लौटाये जा रहे हैं या वापसी के
नये टिकट जारी किये जा रहे हैं।
एक बार मन में खुशी इस बात की हुई कि इसी बहाने अब घर लौट जाने को
मिलेगा। लेकिन क्षण भर में यह विचार झटका खा गया। अरे, कितनी उम्मीदों के
साथ बच्चों, पत्नी, मां, भाइयों और मित्रों ने मुझे विदा किया था। 30 साल
की उम्र में किसी को नौकरी मिलने की बात पत्थर पर दूब जमने जैसी थी। अगर
मैं घर लौट गया तो लोगों की उम्मीदों का क्या होगा। बड़े पसोपेश में पड़ा
था। तभी साथी युवक ने आकर बताया कि यहां से एक बस जा रही है। अगर बस से
चलना चाहें तो चलिए। टिकट वापस करने का भी समय नहीं मिला। लंबी लाइन थी
और देर करने पर बस के छूट जाने का खतरा था।
हड़बड़ी में सामान लेकर उस युवक के साथ हो लिये। वह बस स्टैंड पहुंचा और
मुझसे सौ रुपये का नोट लेकर मेरे लिए टिकट खरीद लाया। वहीं मैंने रुपये
का नाम टाका सुना। सौ में कितने वापस हुए या कुल लग गये, न उस लड़के ने
मुझे बताया और न मैंने उससे पूछा ही। इसलिए कि एक अनजान लोक में वही मेरा
तारणहार बना था। न भूगोल-इतिहास का ज्ञान था मुझे और न भाषा-बोली की
जानकारी ही। उसके साथ मैं बस में सवार हो गया। मुझे इतना याद है कि
रास्ते में धुबड़ी मिला था, जहां से मैंने खैनी का पत्ता खरीदा था। उसके
बाद ऊंचे पहाड़-जंगल के रास्ते बस दौड़ती रही और मैं इस अज्ञात भय से
परेशान होकर प्राकृतिक नजारे का अवलोकन करता रहा कि जब यह लड़का उतर
जायेगा तो मेरा क्या होगा।
शाम चार बजे तक बस गुवाहाटी पहुंच गयी थी। मुझे फांसी बाजार (फैंसी
मार्केट) जाना था। लड़के ने उसके निकट ही मुझे उतर जाने को कहा और बताया
कि बगल में ही है फांसी बाजार। किसी से पूछ लीजिएगा। बिहारी लोग
शहरों-नगरों के नाम अपनी उच्चारण क्षमता व सुविधानुसार बना लेते हैं। यह
फामसी बाजार से जाना। फैंसी कहने में तकलीफ होती थी, इसलिए फांसी नाम रख
लिया। बाद में बंगाल गया तो इसे और शिद्दत से महसूस किया। लोगों ने
टीटागढ़ का नाम ईंटागढ़, डायमंड हार्बर का नाम दामिल बाबड़ा, अंगरेजों के
जमान से सेना छावनी रहा दमदम कैंटोनमेंट को गोराबाजार और बैरकपुर को
बारिकपुर बना लिया।
बहरहाल, फांसी बाजार में मेरे गांव के गद्दी लोगों के कुछ रिश्तेदार रहते
थे। मैं उन्हीं लोगों का पता-ठिकाना लेकर गया था। वे सब्जी के आढ़तिया
कारोबारी थे। यह मुझे पहले से नहीं पता था। सिर्फ यही बताया गया था कि वे
सब्जी बेचने का काम करते हैं।
पूछपाछ कर मैं उनमें से एक तक पहुंच गया। तब वह अपनी आढ़त पर बैठे थे। शाम
के साढ़े चार बज रहे होंगे। उन्हें अपनी पहचान बतायी तो बड़े प्रेम से
मिले। मुझे बिठाया और चाय मंगा दी। फिर वह अपने काम में मशगूल हो गये।
इसके बाद गांव-जवार का जो वहां आया, उसने मुझे देख कर उनसे मेरे बारे में
पूछा और फिर एक चाय का आर्डर देकर सभी वहां से जाते रहे। अपने काम करते
रहे।
शाम छह बजे के आसपास मुझे 12-13 साल के गांव से आये एक बच्चे के साथ मेरे
परिचित ने डेरा भिजवा दिया। डेरा क्या, एक खोली थी। चार बिस्तर लगे हुए
थे। सभी पर टाट के बोरे बिछे थे। एक चौकी थी, जिस पर एक नयी चादर लड़के ने
डाल दी और मुझे उस पर आराम करने के लिए कहा। तकरीबन 24 घंटे बाद अपनी
बोली-भाषा में बोलने-बतियाने वाला कोई उस अनजान शहर में मिला था। खाना
कहीं बाहर उस लड़के ने खिला दिया। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि इतना छोटा
बच्चा गांव से आकर यहां की बोली-भाषा सीख गया है। अपनी बोली भी नहीं भूला
है। इसका मनोविज्ञान मुझे बाद में समझ में आया। असम और बंगाल में लंबे
समय तक रहने के बावजूद मैं वहां की भाषा बोलने में असहज महसूस करता रहा।
भय होता कि कहीं गलत न बोल जाऊं। बच्चों में यह भय नहीं होता। यही कारण
था कि गुवाहाटी गया गांव का वह बच्चा असमिया धड़ल्ले से बोल लेता था।
खाने के बाद मैं आराम करने घर में आ गया। मेरे गांव के आढ़त वाले रात 8-9
बजे आये और गांव-जवार का विस्तार से हाल-चाल पूछा। उन लोगों ने कहा कि
भोर में तीन-चार बजे सभी निकल जायेंगे। मैं अकेले ही घर में रहूंगा। घर
का किवाड़ अंदर से बंद रखूं, जब तक उनमें से कोई न आये। अनजान कोई भी आये
तो दरवाजा न खोलूं। इतनी हिदायतें सुन कर मैं घबरा गया। मन में हंस भी
रहा था कि इस खोली में कौन आयेगा और आया भी तो किसी को क्या मिलेगा। अपने
इसी भाव के कारण मैंने पूछ लिया कि ऐसा क्यों? तब उनमें से एक ने
टेढ़े-मेढ़े फोल्डिंग काट पर बिछे बोरे को हटाया। पूरे बिस्तर पर छोटे-बड़े
इतने नोट बिखरे थे कि एक बार मुझे लगा कि मैं सपना देख रहा हूं। वास्तविक
जीवन में मैंने पहली बार उतने नोट देखे थे।
गुवाहाटी की पहली रात मैंने उसी खोली में गुजारी। दूसरे दिन उस छोटे
बच्चे के साथ रिक्शे पर बैठ कर अपने अप्वाइंटमेंट लेटर में लिखे पते पर
पहुंचा। शायद वह जगह आठगांव थी। पूछा तो पता सही निकला। एक असमिया सज्जन,
जो मालिक के सीमेंट डिवीजन का काम संभालते थे, ने बताया कि मालिक अभी
बाहर हैं और उनके आने में दो-तीन दिन लगेंगे। मुझे बिठा कर उन्होंने
मालिक से फोन पर बात की। मालिक ने उन्हें बताया कि मुझे दफ्तर की जगह
दिखा दी जाये और वहीं ठहराया जाये, जो मकान पहले से ही उन्होंने अखबारी
कर्मचारियों के लिए ले रखा है। मुझे किसी तरह की परेशानी न हो, ऐसा निदेश
उन्होंने अपने कर्मचारी को दिया।
उसी दफ्तर के एक हिस्से में अखबार के लिए कार्यालय बना था। अभी कोई वहां
आया नहीं था, इसलिए पूरी तरह चमक-दमक बनी हुई थी। मैं एक कुर्सी पर बैठा।
एसी की ठंडक, शांत वातावरण। एकबारगी लगा कि एक नयी दुनिया में आ गया हूं।
मन बड़ा खुश हुआ।
फिर वह सज्जन मुझे उस फ्लैट पर ले आये, जहां मुझे अपने और साथियों के साथ
रहना था। वे अभी आये नहीं थे। लकड़ी के घर वाले प्रांत में आरसीसी छत वाला
पक्का सुंदर फ्लैट। उन्होंने मुझसे पूछा कि ओढ़ने-बिछाने की क्या सामग्री
मेरे पास है। मैंने बताया तो उनका जवाब था कि इससे तो काम नहीं चलेगा।
यहां ठंड काफी है। फिर उन्होंने मालिक को बताया। मालिक ने उन्हें कहा कि
अपना बिस्तर, जो समेट कर वहां रखे हो, दे दो। मेरे आने से पहले शायद वह
वहां रह रहे थे। उन्होंने होल्डाल खोला और गद्दे-रजाई निकाल कर दे दिये।
मेरा बिस्तर तैयार।
वह चले गये तो अपने नये दफ्तर और जीवन की शुरुआत के बारे में मैंने रात
में कई लोगों को लिखे पत्र में जिक्र किया। ये पत्र कुछ घर के लिए थे और
कुछ मित्रों को।
इसमें एक पत्र मैंने सारण संदेश के मालिक आमोद कुमार जैन को भी लिखा था।
उसमें एक तरह से मैंने उनको ताने दिये थे कि 350 रुपये पर आप मुझसे अखबार
और प्रेस का सारा काम कराना चाहते थे। अब मैं 1400 रुपये मासिक पर सिर्फ
पत्रकार हूं। आपने मेरी मजबूरी का फायदा उठाना चाहा, पर भगवान ने आपकी
मंशा पर पानी फेर दिया। बाद में, मेरे एक मित्र ने बताया कि मेरे पत्र के
मजमून ने आमोद बाबू को काफी व्यथित किया था।
दो-तीन दिनों बाद बाकी मित्रों का गुवाहाटी आना शुरू हो गया। उनमें एक को
छोड़ बाकी मित्रों के नाम अभी तक याद हैं। उनमें एक हैं अजित अंजुम,
जिन्हें मैनेजिंग एडिटर के रूप में आप न्यूज 24 चैनल में देखते रहे हैं।
अब शायद उन्होंने ठिकाना बदल लिया है। दूसरे थे हिमांशु शेखर। हिमांशु जी
हम सब में बड़े थे। सबसे छोटी उम्र के तब थे अजित अंजुम। हिमांशु जी के एक
बड़े भाई हिन्दुस्तान, पटना के विज्ञापन प्रबंधक थे। तीसरे मित्र थे,
रत्नेश कुमार। वह आज भी गुवाहाटी में जमे हुए हैं। शायद पूर्वांचल प्रहरी
में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेवारी निभा रहे हैं। चौथे मित्र सुनील सिन्हा
थे, जो खेल पत्रकार हैं और शायद अब भी मध्यप्रदेश में कहीं किसी अखबार
में नौकरी कर रहे हैं। एक और लड़का पीटीएस के काम के लिए आया था। मैथिल
युवक था। तीन कमरों में चार लोग रहते थे। शुरू के कुछ दिनों तक होटल में
सभी खाते थे, पर बाद में खाना बनाने की व्यवस्था हम लोगों ने कर ली। तय
हुआ कि खुद से बनायेंगे। बनने भी लगा। चार लोगों के लिए कम से कम 20-22
रोटियां रात में बनतीं। दिन में मौका नहीं मिलता तो बाहर ही खा लेते।
रोटियां बनाने के बारे में भी एक दिलचस्प किस्सा है। मैं गांव का आदमी था
सो, रोटियां थोड़ी मोटी मुझ से बन जातीं। अजित अंजुम शहरी और
संपन्न-संभ्रांत घर के थे, इसलिए वह पतली रोटियां बनाते। हम दोनों में
इसी मोटी-पतली रोटी बनाने को लेकर अक्सर तकरार होती रहती। वह कहते कि
जान-बूझ कर मैं मोटी रोटियां बनाता हूं।
हमारे मालिक गोवर्धन अटल आरएसएस से जुड़े थे। शायद यही वजह थी कि उन्होंने
संघ से ताल्लुक रखने वाले चंद्रेश्वर जी को संपादक के रूप में चुना था।
अटल जी सबसे सीधा संवाद करते। उन्होंने सबको एक-एक हजार रुपये एडवांस
दिलाये और असम के सभी जिलों को सबके बीच बांट कर कहा कि वहां जायें और
भौगोलिक-सामाजिक स्थिति को समझें। मुझे नजदीक के दो जिले मिले थे नौगांव
व गुवाहाटी। गुवाहाटी में तो रहता ही था, नौगांव एक दिन में जाकर लौट
आया। सात दिन तक आने-जाने का बिल बना कर मैंने आधे से ज्यादा पैसे बचा
लिये और 500 रुपये मां को मनीआर्डर कर दिये।
प्रवास के दिनों में पर्व-त्योहार किस तरह पहाड़ से लगते हैं, इसका आभास
पहली बार काली के देश कामाख्या (गुवाहाटी) में कमाने गये हम पत्रकार
मित्रों को हुआ। चंद्रेश्वर जी के नेतृत्व और गोवर्धन अटल के स्वामित्व
में उत्तरकाल निकालने के लिए 19-20 फरवरी (1989) तक सभी साथी पहुंच गये
थे। साथियों का जिक्र पूर्व में हम कर चुके हैं। मार्च के पहले सप्ताह
में होली का त्योहार था। प्राय: सभी साथी पहली बार घर से बाहर उतनी दूर
परिजनों के बिना होली मनानेवाले थे।
होली की पूर्व संध्या पर डायनिंग रूम में सभी जुटे। हिमांशु शेखर, सुनील
सिन्हा, अजित अंजुम, मैं और डीटीपी का एक साथी, जो साथ ही रहता था। हम
लोगों के एक और मित्र थे रत्नेश कुमार, जो गुवाहाटी जाने के बाद पीलिया
से पस्त होकर डायनिंग में ही बिस्तर पर लेटे थे। उन सब में शादीशुदा मैं
ही था।
अपने-अपने घर की होली की यादें सभी सुनाने-बताने लगे। किसी को भाभी बिना
होली की बदरंगी सूरत सता रही थी तो किसी को परिवारजनों से विलग होली
बेमानी लग रही थी। मेरी मनोदशा कैसी रही होगी, यह बताने की जरूरत इसलिए
नहीं कि शादी के सात साल बाद पहली बार पत्नी और परिजनों से विलग मेरी यह
होली थी। अपनी पीड़ा को मैं शब्द दे पाने में इसलिए असमर्थ पा रहा हूं कि
अंतस की उपज पीड़ा का अंदाज उन्हीं को हो सकता है, जिनकी ऐसे हालात से
मुठभेड़ हुई हो। तकरीबन आधे घंटे तक सभी यादों में खोये रहे और भीतर से
सभी इतने कमजोर पड़ गये कि फफक कर सामूहिक रुदन-क्रंदन किसी को नागवार
नहीं लगा, सिवा रत्नेश के।
इसलिए कि रत्नेश की पटरी उनकी भाभी से नहीं बैठती थी। मां-बाप थे नहीं।
उन्हें एक तरह से होली में घर पर रह कर पीड़ित होने से गुवाहाटी में
पीलिया के प्रकोप में आकर बिस्तर से सटे रहना ही सहज लग रहा था। अलबत्ता
एक बात उन्हें असहज जरूर लगी, जिसका आगे मैं जिक्र करने वाला हूं।
अखबार तो निकल नहीं रहा था, इसलिए काम का दबाव-तनाव था नहीं। ऊपर से होली
की दो दिनी छुट्टी। दो दिनों की छुट्टी की एक तार्किक वजह थी। जिस दिन
असमी लोग होली खेलते, उसके अगले दिन बिहारी या यों कहें हिन्दीभाषी समाज
की होली होती। असमी लोग पहले दिन की होली को रंग डे और दूसरे दिन को कीचड़
डे कहते थे। दरअसल हिन्दीभाषी प्रदेशों में जिस तरह हुड़दंगी होली खेली
जाती है, वैसा और कहीं नहीं होता। हिन्दीभाषियों का मन सिर्फ रंग से तो
भरता नहीं, इसलिए वे नाली के कीचड़ उछाल-लगा कर जी भर होली खेलते।
घंटे-डेढ़ घंटे के रुदन-क्रंदन के बाद होली मनाने की तैयारी पर विमर्श
शुरू हुआ। सुनील सिन्हा पाकशास्त्री निकले। उन्होंने कहा कि वह मालपुआ और
मटन बना देंगे। केला, दूध, मैदा, चीनी, मसाला वगैरह की फेहरिश्त बन गयी।
खर्च का बंटवारा सब में कर दिया गया। लेकिन आम राय बनी कि ऐसी होली का
क्या मतलब, जब मन ही न बहक जाये। मन बहकाने का सामान यानी दारू को भी
सूची में स्थान मिल गया। सारा सामान शाम को खरीद कर आ गया। हमारी होली तो
अगले दिन मननी थी। उस शाम सामान्य खाना बनने लगा।
शाम ढली, रात ने दस्तक दी तो सबके मन में दारू गटकने की बेचैनी भी बढ़ने
लगी। आश्चर्य यह कि तब कोई नशे का आदी नहीं था। अगर किसी ने पहले कभी पी
भी थी तो वह गिनती में एक-दो बार ही। लेकिन बेचैनी शायद इस वजह से भी थी
कि सब अपनों से विलग होकर होली मनाने का गम भुलाना चाहते थे। रात चढ़ती
गयी और नौसिखुए पियक्कड़ों की टोली दो घूंट अंदर जाने के बाद लड़खड़ाती रही।
नाचती-गाती रही। ढोल-मजीरे की जगह थाली ने ली। थाली की थाप और
होली-जोगीरा के बेसुरे अलाप ने इस कदर बेसुध किया कि आगे की कहानी का
सिर्फ एक विंदु ही याद रह गया है। कालबेल लगातार बज रही थी। आधी रात का
वक्त। सभी अपने में मस्त। अचानक मेरे कान में बेल की आवाज पड़ी तो सबको थम
जाने को कहा। कपड़े संभाल कर गेट खोला तो अड़ोस-पड़ोस के कई असमिया परिवार
के लोग खड़े दिखे। कई आवाजें एक साथ गूंजी- यह क्या तमाशा है। रात में
इतना शोरगुल। मैंने सारी कहा और बताया कि हमारे यहां ऐसी ही होली की
परंपरा है। अब नहीं होगा। लोग चले गये और उसके बाद कौन कहां बेसुध पड़
गया, स्मरण नहीं।
जिसके मकान में हम रहते थे, वह भी असमिया ही थे। खुद लकड़ी के काटेज में
रहते थे और आरसीसी घर किराये पर दे रखा था। दिन में होशोहवास में सुनील
जी ने मालपुआ और मटन बनाया। हम लोगों ने मकान मालिक को भी खिलाया। वह
सुस्वादु भोजन से इतने आह्लादित थे कि रात की घटना पर उन्होंने कोई
नाराजगी नहीं जतायी। उल्टे यह कहा कि दरवाजा खोलना ही नहीं चाहिए था।
अगले दो-तीन दिनों तक दफ्तर जाना हुआ। चंद्रेश्वर जी आ चुके थे। तब हम
यही जानते थे कि अखबारनवीसों के लिए संपादक ही सब कुछ होता है। मालिक का
कोई मतलब नहीं। लेकिन मालिक रोज शाम को अलग-अलग सबसे काम-धाम पूछते। काम
भी एसाइन करने लगे थे। इससे खफा होकर अजित अंजुम ने कह दिया कि हम काम
करेंगे तो संपादक के नेतृत्व में, आपके नहीं। मालिक को यह बात नागवार लगी
तो उन्होंने इस्तीफे की पेशकश कर दी। बाहर निकले, सबको बताया और आमराय
बनी कि सामूहिक इस्तीफा दे दिया जाये। हम लोगों ने दिन में ऐसा ही किया।
इस्तीफा देकर अक्सर लोगों को परेशान और चिंतित होते देखा है। खुद को भी
इसी जमात में तब अपने को पाया था। इसलिए कि घर की उम्मीदें मेरी नौकरी न
रहने पर टूट जातीं। घर-परिवार और गांव-जवार के लोगों के सपने चकनाचूर हो
जाते। पर भीड़ या समूह का एक समाजशास्त्र होता है। इसके नियम-कानून मानें
तो एक का फैसला सामूहिक स्वीकृति-सहमति का हकदार-दावेदार बनता है। मैंने
भी समूह के समाजशास्त्र का किरदार निभाना पसंद किया। बाकी साथियों के
चेहरों पर खुशी का कारण यह था कि अब वे अपने देस लौट रहे थे। परदेस की
पीड़ा से मुक्ति मिल रही थी। इस आनंदातिरेक में सबने सिनेमा देखने का
फैसला किया। शायद उसी साल राम तेरी गंगा मैली हो गयी फिल्म रिलीज हुई थी।
वही फिल्म सबने देखी। सुबह सबको ट्रेन पकड़नी थी। मैंने गुवाहाटी से
उन्हीं दिनों शुरू हो रहे पूर्वांचल प्रहरी में किस्मत आजमाने का फैसला
किया। सबसे कहा कि मैं एक-दो दिन रुक कर निकलूंगा। गांव के लोग यहां है,
उनसे मिलजुल कर ही जाऊंगा। हालांकि इसके पीछे मेरी कुटिलता दूसरी नौकरी
तलाशने की थी। रातभर नींद भी नहीं आयी।
यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि अगर संपादक की अस्मिता की लड़ाई में सहयोगी
कुर्बान हो गये तो संपादक ने भी इसकी भरपाई अपनी नौकरी की कुर्बानी देकर
की। चंद्रेश्वर जी ने भी इस्तीफा दे दिया। उन्होंने उसी साल गुवाहाटी से
शुरू हो रहे सेंटिनल में विशेष संवाददाता के रूप में हफ्तेभर के भीतर
ज्वाइन कर लिया। सेंटिनल के संपादक मुकेश कुमार बने थे। चंद्रेश्वर जी को
दिल्ली रहना था।
मेरे साथी घर लौट चुके थे। मैं अकेला नौकरी की तलाश में जमा था।
चंद्रेश्वर जी उत्तरकाल के दूसरे साथियों को सेंटिनल ज्वाइन करा चुके थे।
यद्यपि गुवाहाटी के लिए मेरा चयन चंद्रेश्वर जी ने ही किया था, लेकिन
होली के दिन दारू पीने की बात उन्हें पता चल गयी थी और इस बात को लेकर वह
मुझसे नाराज थे। यह उनके साथ सेंटिनल गये मेरे एक साथी ने बताया था। जब
कहीं बात नहीं बनी तो आखिरकार मैंने घर लौटने का भारी मन से निर्णय लिया।
टिकट कट गया। जिस दिन निकलना था, उसी दिन चंद्रेश्वर जी ने घर पर
बुलवाया। जाते ही उन्होंने कहा- दारू पीते हो। ऐसी संगत कैसे बन गयी। मैं
चुप। जब उनका बोलना बंद हुआ तो मैंने हिम्मत जुटा कर सिर्फ इतना ही कहा-
मुझे इसी बात की खुशी है कि घर से हजार किलोमीटर दूर भी नजर रखने वाला
कोई गार्जियन है। इतना सुनते ही उनका गुस्सा खत्म। कहा- जाओ, मुकेश से
मिल कर आज ज्वाइन कर लो। टिकट वापस कर दो। खुशी से इतरा कर मैं सेंटिनल
के दफ्तर पहुंचा और मुकेश जी से मिला। उन्होंने कहा कि आज से आपकी
ज्वाइनिंग हो गयी। 2300 रुपये मिलेंगे। आप टिकट वापस मत कीजिए। पटना जाकर
और लोगों को ले आइए।
किस पल क्या होगा, कोई नहीं जानता। मासिक 1400 की तनख्वाह पर गुवाहाटी
गया था और दो महीने के अंदर ही यह रकम 2300। एक नौकरी छोड़ दूसरी खोजने की
तमाम कोशिशें नाकाम रहीं, पर कुछ घंटे में ही दूसरी नौकरी मिल गयी। वह भी
पहले से अच्छी तनख्वाह पर।
अहं, अहंकार और अभिमान में एक नकारात्मक भाव छिपा होता है, पर कई दफा अहं
आत्मविश्वास का पर्याय बन जाता है और अभिमान में स्व समाहित रहता है।
हड़बड़ी में इस बारीकी को न समझ पाने की भूल अक्सर लोगों से हो जाती है।
अटल के अखबार (प्रस्तावित) उत्तरकाल को अलविदा कहते जिस तेवर का अजित
अंजुम ने परिचय दिया था और सबने उनके फैसले पर सहमति जतायी, उसे तब मैंने
उनके अहं के नकारात्मक भाव से आंका था। संपादक से ज्यादा मालिक को तरजीह
देने का कौशल अपनाये बगैर अजित ने संपादक को सर्वोपरि स्वीकार करने की
मालिक को ही चुनौती दे डाली। सामूहिक इस्तीफे का निर्णय हुआ और सभी ने
इस्तीफा दे दिया। नौकरी करने की मजबूरी के कारण इस्तीफे से असहमति के
बावजूद मानस ने अजित का ही साथ देने की सलाह दी।
आगे चल कर अजित अंजुम की कामयाबी ने मेरी यह धारणा और पुख्ता कर दी कि
उनमें अभिमान नहीं, स्वाभिमान का भाव था, जिसने नौकरी छोड़ने की स्थिति
पैदा की।
बहरहाल, मैं गुवाहाटी में जम गया। लेकिन एक बात सबसे ज्यादा अखरती कि घर
से आने के बाद, फिर कब जाना होगा। सेंटिनल के मालिक राजखोवा की बीवी एमडी
थीं। एक-दो बार पट्टी पढ़ा कर उनसे छुट्टी तो ले ली, पर यह बराबर संभव
नहीं था। इसलिए गुवाहाटी छोड़ने के लिए मेरे जैसा हर बाहरी व्यक्ति
लालायित रहता।
बहरहाल, सेंटिनल ज्वाइन करने के बाद मुकेश जी के आदेश पर मैं और आदमी की
तलाश में पटना रवाना हुआ। पटना पहुंचा तो पता चला कि सुनील सिन्हा की
शादी का रिसेप्शन है। उन्हें मिल कर गुवाहाटी में सेंटिनल में काम करने
का आमंत्रण दिया तो बेकार चल रहे सुनील जी को शादी का यह गिफ्ट जैसा लगा।
वहीं जुटे सुधीर सुधाकर और दूसरे साथियों को भी गुवाहाटी में काम के अवसर
की बात बतायी और अपने गांव सीवान के लिए निकल गया।
हफ्ते भर में कई लोग गुवाहाटी पहुंचे। जो नाम स्मरण में हैं, उनमें सुधीर
सुधाकर, अपूर्व गांधी, ओंकारेश्वर पांडेय, फजल इमाम मल्लिक और कुमार भवेश
शामिल थे। जो पहले पहुंचे, वे सेंटिनल आ गये, बाद के मित्रों को पूर्वांच
प्रहरी में जगह मिल गयी।
सेंटिनल गुवाहाटी में मेरा दूसरा ठिकाना था। वहां जो साथी मिले, उनमें
बलराम सिंह (फिलवक्त विश्वमित्र, कोलकाता), विजय मिश्र, अरुण अस्थाना,
वाजपेयी (पूरा नाम याद नहीं आ रहा), दिनकर कुमार (संप्रति सेंटिनल के
संपादक), भवान घिमिरे, संगीता, पांडेय (पूरा नाम भूल रहा, अभी वह
पूर्वांचल प्रहरी में हैं) की स्मृति अब भी बनी हुई है।
बलराम जी को अपना दूसरा गुरु मानता हूं। उन्होंने मुझे अनुवाद की कला
सिखायी। वह पहले पेज की खबरें तैयार करते थे। तब हिन्दी न्यूज एजेंसी
वहां नहीं थी। पीटीआई की खबरें आती थीं। बलरामजी को मैं खबरें अनुवाद कर
देता और वह उसमें अपेक्षित सुधार कर कंपोजिंग के लिए भेजते। बाद में मैं
बिजनेस पेज का प्रभारी बन गया। हिन्दी का विद्यार्थी होते हुए बिजनेस पेज
पर काम करना चुनौती थी, पर अंत तक मैंने इसे बखूबी निभाया।
अक्तूबर 1989 में उषा मार्टिन प्रबंधन ने प्रभात खबर का अधिग्रहण किया
था। तब रांची ही एकमात्र संस्करण था। हरिवंश जी प्रधान संपादक बनाये गये
थे। मेरे कई मित्र थे, जिनमें फजल इमाम मल्लिक (फिलवक्त जनसत्ता,
दिल्ली), शैलेंद्र, जयनारायण प्रसाद (फिलवक्त जनसत्ता, कोलकाता) का नाम
मुझे अब भी याद है, जो कहा करते थे कि हरिवंश से उनकी जान-पहचान है। वे
जब चाहें, प्रभात खबर जा सकते हैं। तब मैं सोच में पड़ जाता कि मेरा कोई
परिचित नहीं है मीडिया में सिवा देवेंद्र मिश्र के।
जनवरी 1990 की शायद बात है। मैंने एक अंतरदेशीय खरीदा। उसमें हरिवंश जी
को पत्र लिखा। किन-किन पेजों पर काम कर चुका हूं। मैं आपसे अपरिचित हूं,
पर आपका नाम काफी सुना है। मेरा बायोडाटा इस प्रकार है।
बायोडाटा में एक मानवीय भूल मुझसे हो गयी थी, जिसका खामियाजा मुझे बाद
में किस रूप में भोगना पड़ा, यह आगे आप जान जायेंगे। जून में गांव गया था।
गांव से जून के आखिर में वापसी हुई थी। पता नहीं क्यों, उस बार घर से
लौटते वक्त मैं खूब रोया। बड़की माई (चाची) और मां की याद सबसे ज्यादा आ
रही थी। पत्नी और बच्चों को छोड़ कर आना तो स्वाभाविक तौर पर कष्टदायक था
ही। हफ्ता-दस दिन बीते होंगे। रांची से प्रभात खबर का एक टेलीग्राम मिला।
वह तारीख 3 जुलाई 1990 थी। 4 तारीख को हरिवंश जी ने रांची बुलाया था। मैं
बड़ा परेशान था। तब रांची के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं थी। एक साथी की मदद
से मैं टेलीफोन बूथ गया और वहां से पहली बार एसटीडी काल हरिवंश जी को
किया। उन्हें अपनी परेशानी बतायी और पहुंचने के लिए वक्त मांगा। यह भी
उन्हें बताया कि हाल ही में छुट्टी से लौटा हूं। अब और छुट्टी नहीं
मिलेगी। आप आश्वस्त करें तो मैं नौकरी छोड़ कर आ सकता हूं। उन्होंने
तनख्वाह पूछी तो बता दिया कि 2375 रुपये मिलते हैं और मुझे 2500 रुपये
चाहिए। उन्होंने हामी भर दी और कहा कि हफ्ते भर में आ जाइए। खुशी का कोई
ठिकाना नहीं। अपने सूबे में ही लौट रहा था वेतन से बिना कोई समझौता किये।
सैलरी का चेक मिल गया था। मैंने बुद्धि भिड़ायी और एकाउंटेंट से कहा कि
गांव में पैसे की सख्त जरूरत है और चेक कैश होने में तीन-चार दिन लग
जायेंगे। इसलिए चेक वापस लेकर मुझे कैश पेमेंट कर दें। वह भला आदमी
निकला। कैश मिल गया। फिर पंखे, चौकी, बिछावन मैंने साथियों को सौंपे और
रांची के बजाय सीवान के लिए रवाना हो गया। योजना थी कि घर पर यह खुशखबरी
देकर रांची निकल जाऊंगा। विदाई भोजन शैलेंद्र जी (अभी जनसत्ता, कोलकाता
के संपादक) के यहां हुआ।
किस्मत और कुदरत कब कौन करामात या करिश्मात कर दे, कोई नहीं जानता। अतीत
के अनुभव और वर्तमान के हालात इसी जुमले की तसदीक करते नजर आते हैं। घर
से भाग कर चाय की दुकान तक पहुंचे नरेंद्र मोदी देश की सत्ता के सर्वोच्च
शिखर पर विराजमान होंगे, कभी न उन्होंने सोचा होगा या न उनके परिजनों ने।
ठेठ गांव में भैंस चराने वाले लालू प्रसाद या गोबर के उपले पाथने वाली
उनकी पत्नी राबड़ी के स्वप्न में भी यह विचार नहीं आया होगा कि वे
घर-परिवार या समाज तक ही सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि बिहार जैसे सूबे की
सूबेदारी भी उनके नसीब में लिखी है। तलाश करें तो अर्श से फर्श और फर्श
से अर्श नपर आने-दिखने वाले लोगों की एक बड़ी जमात मिल जायेगी। भाग्य पर
भरोसा न करने वाले इससे भले सहमत न हों, पर हमारी इस तार्किक तहरीर का
जवाब भी शायद ही उनके पास हो। और को छोड़ भी दें तो कम से कम मैं अपने को
इन्हीं भाग्यवादियों की कतार में पाता हूं।
गांव के एक अति सामान्य परिवार में जन्म लेने के बाद होश संभालते अभाव की
अट्टालिका को सामने खड़ा पाया था। त्रासद स्थितियां बिन बुलाये सामने आ
जातीं। पिता उत्तर प्रदेश की एक चीनी मिल में साधारण मुलाजिम थे। आठवीं
की परीक्षा पास की तो पूरे स्कूल में मेरा नंबर सबसे ज्यादा था। यह एक
सुखद अनुभूति थी मेरे लिए और मेरे घरवालों के लिए भी। संयोगवश पिताजी
अस्वस्थ होने के कारण घर आये हुए थे। 12 दिसंबर की रात खाना खाने के बाद
एक ही कमरे में हम सभी सोने की तैयारी कर रहे थे। पिताजी ने कहा- तुम कोई
रोजगार करो। मैंने सीधे मना कर दिया और अपनी पढ़ाई जारी रखने की इच्छा
जतायी। उन्होंने कहा- पढ़ाई के लिए मैं पैसे नहीं दूंगा। मैंने भी तल्खी
में जवाब दे दिया- पैसे नहीं देंगे, तब भी पढ़ूंगा। तब अपने आत्मविश्वास का
कारण मुझे खुद भी मालूम न था।
किस्मत ने मेरे साथ पहला दगा किया। अलसुबह पिताजी ने बेचैनी महसूस की और
हमारी आंखों के सामने ही अंतिम सांस ली। बाप-बेटे की मीठी बकझक कुछ घंटों
में ही वास्तविकता में बदल गयी। परिवार में मां के अलावा भैया अभिभावक बन
गये। वह उम्र में मुझसे तीन साल बड़े थे। पढ़ाई-लिखाई में उनका मन नहीं
लगता था। मैट्रिक फेल हो गये थे। पिता जी ने अपनी फैक्टरी में उन्हें
अप्रेंटिस के तौर पर रखवा दिया था। तनख्वाह थी 150 रुपये मासिक। मुझसे
छोटे तीन भाई और एक बहन।
पिता की मौत के बाद फैक्टरी से जो पैसे मिले, वे भैया की शादी में खर्च
हो गये। उनकी तनख्वाह भी इतनी कम कि अपना ही खर्च चलाना मुश्किल। ऐसी
हालत में छोटे भाइयों, बहन और खुद की पढ़ाई के खर्च का तो मुझे बंदोबस्त
करना ही था, घर के जरूरी खर्च की जिम्मेवारी भी मेरे सिर आ पड़ी।
मैंने रास्ते तलाशे। स्कूल ने मेरे लिए बुक बैंक से किताबों की व्यवस्था
करा दी। मेरिट कम पोवर्टी स्कीम के तहत 15 रुपये का वजीफा मिलने लगा।
मैंने अपने से नीचे के क्लास के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया।
संयुक्त परिवार था, पर परिवार की हालत ऐसी नहीं थी कि मुझे मदद मिल पाती।
चाचा के साथ खेती में भी हाथ बंटाने लगा। इस तरह परिवार चलाने का ककहरा
बचपन में ही सीखने को मिल गया। कई दफा 58 की उम्र में जब अपने बच्चों के
संग बैठ कर बाल सुलभ आचरण करता हूं तो पत्नी टोकती हैं। आप भी बच्चा बन
गये हैं। तब सोचता हूं कि ऐसा क्यों होता है। जवाब भी मिलता है- बचपन में
तो बुढ़ापे की जिम्मेवारी कंधों पर आ गयी। ऐसे में मुझे अपने बचपन की कोई
शरारत याद ही नहीं आती। लगता है कि होश संभालने के बाद जिस तरह मैंने
1967 का अकाल करीब से देखा और 13 साल की उम्र में पिता की मौत का साक्षात
दर्शन किया, उसमें बचपन की शरारत या जवानी के अल्हड़पन की तो कोई गुंजाइश
ही नहीं बची।
दसवीं कक्षा में आते-आते समाज में सम्मान और कुछ पैसों के लोभ में मैं
रिपोर्टर बन गया। वह समय इमरजेंसी का था। खबरों के लिए टैबलायड साइज के
साप्ताहिक से ढाई रुपये प्रति कालम की दर से भुगतान होता। कविता के लिए
चार और लेख के लिए तब 10 रुपये मिलते। महीने में मेरी औसत आय 15 रुपये के
आसपास होती। पत्रकार बन कर इस कदर इतराया कि स्कूल का टापर होने के
बावजूद मैट्रिक की परीक्षा में छह नंबर से फर्स्ट डिवीजन छूट गया।
स्कूल में मेरे सबसे पसंदीदा शिक्षक थे केदार नाथ पांडेय। वह हिन्दी
पढ़ाते थे। अभी बिहार से एमएलसी हैं। दूसरी या तीसरी बार चुनाव जीते हैं।
पत्रकारिता में किसी मुकाम तक मैं पहुंचा तो इसमें पांडेय जी का ही हाथ
मैं मानता हूं। इसलिए कि कविता-लेख लिखने का सिलसिला उनकी ही निगरानी में
शुरू हुआ। भाषा की समझ उन्हीं के द्वारा लाइब्रेरी से जबरन दी गयी
किताबों को पढ़ कर आयी। जब वे लाइब्रेरी से किताबें मुझे देते तो तब यह
नहीं समझ पाता कि इनका मेरी पढ़ाई से क्या मतलब है। मन-बेमन से किताबें पढ़
कर लौटा देता। मुझे अब भी याद है कि उन्होंने मुझे पहली किताब राहुल
सांकृत्यायन की- तुम्हारा क्षय हो- दी थी। तार्किक ढंग से समाज पर
कुठाराघात करने वाली सांकृत्यायन जी की उस किताब का मेरे मन पर गहरा असर
पड़ा था। उसके बाद किताबों का सिलसिला शुरू हो गया। कई किताबें उस वक्त
मैं पढ़ गया था, जिसका फायदा मुझे बीए (आनर्स) करते समय मिला।
बहरहाल, पांडेय जी मेरे खराब रिजल्ट के लिए पत्रकारिता को जिम्मेवार ठहरा
रहे थे। उन्होंने सलाह दी कि बिहार के कालेजों में अच्छी पढ़ाई नहीं होती
है, इसलिए मैं उत्तर प्रदेश के किसी कालेज में दाखिला लूं। मैंने उनकी
सलाह पर रामकोला (तब देवरिया जिले में था) में जनता इंटर कालेज में
दाखिला लिया।
यहां मुझे सर्वाधिक कष्ट इस बात से था कि मेरी पत्रकारिता छूट गयी थी।
संयोगवश 1977 में यूपी के इंटर कालेजों में लंबी हड़ताल चली और मुझे वहां
से खिसकने का बहाना मिल गया। मैं वापस आ गया। इंटर में नामांकन के लिए
मैंने एक आवेदन प्राचार्य के नाम लिखा और सीधे गोपेश्वर महाविद्यालय,
हथुआ के तबके प्राचार्य भोलानाथ सिंह से मिला। मेरे आवेदन में भाषा और
व्याकरण की कोई गलती न पाकर वह खुश हुए और मेरे सीधे नामांकन का आदेश दे
दिया। मैंने उनसे अपनी दो परेशानी बतायी। पहला यह कि मेरे सारे
प्रमाणपत्र रामकोला के कालेज में जमा हैं और दूसरा यह कि मेरे पास महज 20
रुपये हैं। उनकी सलाह थी कि मैट्रिक का ओरिजिनल सर्टिफिकेट जब आयेगा तो
उसकी सत्यापित प्रति जमा करा देना। तब ओरिजिनल सर्टिफिकेट सालभर के बाद
ही आते थे। नामांकन शुल्क माफ करते हुए उन्होंने महज 20 रुपये में ही
एडमिशन करा दिया। आश्चर्य की बात है कि उसके बाद मैंने उसी कालेज से बीए
तक की पढ़ाई की, पर किसी ने कभी सटिफिकेट नहीं मांगा।
हथुआ में नामांकन हो जाने के बाद मुझे पत्रकारिता करने का मैका भी मिल
गया। मैंने मीरगंज (जहां से सारण संदेश निकलता था) में 19 रुपये मासिक पर
एक कमरा किराये पर लिया। एक और लड़के को पार्टनर बनाया। खाने का सामान घर
से आता था। लकड़ी के बुरादे का चूल्हा था। अखबार मालिक का लड़का टिंबर मिल
चलाता था, इसलिए बुरादे कभी मुफ्त तो कभी सस्ते में मिल जाते। कालेज से
लौटते ही मैं अखबार के दफ्तर पहुंच जाता। खाली दिनों में भी दफ्तर जाता।
अब अपने को मैं सक्रिय पत्रकार मानने लगा था। एक संवाददाता से मैं निज
संवाददाता हो गया था। मुझे अखबार का पहचानपत्र भी मिल गया था।
उन दिनों अक्षर गिन कर हेडिंग लगाने की कला देवेंद्र मिश्र जी ने मुझे
सिखायी। दोपहर में वह एक दुकान पर खाने जाते थे। अक्सर साथ लेकर जाते और
पावरोटी के साथ एक गिलास दूध मिल जाता। मेरे ट्यूशन पढ़ाने का क्रम मीरगंज
में भी जारी रहा। अपने एक शिष्य को मैं अब भी नहीं भूल पाता हूं। वह था
प्रदीप तिवारी। बड़ा होनहार। मेरे साथ रह कर उसने खबरें लिखने की कला भी
सीखी। बाद में बीएचयू पढ़ने गया। कुछ दिनों तक अखबार में नौकरी भी की, पर
असमय मौत ने उसे बुला लिया।
इंटर में मैंने साइंस विषय ले रखे थे, पर सच्चाई यह थी कि मुझे इन विषयों
से लगाव नहीं था। मैंने इंटर की परीक्षा कैसे पास कर ली, मुझे न तब याद
था और न अब याद है। शायद मेरी आकर्षक लिखावट और अच्छी भाषा का कमाल था,
जिसने इंटर की परीक्षा पास करने में मेरी मदद की। इस बार भी मैं सेकेंड
ही आया था। लेकिन इस बार सेकेंड आने की मुझे खुशी थी, इसलिए कि मैं अपनी
औकात समझता था। मैंट्र्कि में सेकेंड आना जरूर खला था। खैर, अब मैंने तय
कर लिया था कि साइंस नहीं पढ़ना है। इसीलिए बीए में मैंने हिन्दी आनर्स
लेना ही बेहतर समझा। अब बीए में मेरा उसी कालेज में एडमिशन हो गया।
मेरे जीवन के संघर्ष का अगला अध्याय बीए में दाखिले के साथ शुरू हुआ।
आनर्स के लिए 22 लोगों ने विभागाध्यक्ष को आवेदन दिया था। उनमें मैं ही
साइंस का छात्र था। आवेदन की शुद्धता को देखते हुए तब के विभागाध्यक्ष ने
मेरे बारे में कहा था कि यही लड़का आगे निकलेगा। सबके आवेदन में
अशुद्धियां है, पर साइंस का छात्र होने के बावजूद इसके आवेदन में कोई
त्रुटि नहीं। नामांकन हो गया।
इस बीच आर्थिक तंगी गहराने के कारण मैंने मीरगंज का डेरा छोड़ दिया था और
गांव रहने लगा था। घर से कालेज की दूरी 10 किलोमीटर थी। साइकिल के अलावा
कोई सीधा साधन नहीं था। मेरे पास साइकिल भी नहीं थी। कुछ दिनों तक
साथियों की साइकिल पर दोहरी सवारी कर मैं कालेज जाता रहा। लेकिन बाद में
मैं साथियों के लिए बोझ बन गया। जिसे कालेज जाना होता, वह भी यह कह कर
कन्नी काट लेता कि आज उसे नहीं जाना है। मैं घर में बैठे-बैठे बोर होता।
बाहर निकलो तो लोग पूछते कि कालेज नहीं गये? एक-दो दिन तो बहाना चल जाता,
पर रोज-रोज यह संभव नहीं था।
इस दौरान खुद को व्यस्त रखने के लिए मैंने एक कोचिंग क्लास शुरू की।
बेकार चल रहे अपने से सीनियर कुछ लोगों की एक टीम बनायी और आमदनी को
बराबर-बराबर बांट लेने का फैसला हुआ। कोचिंग चलने लगा। पर, इससे भी मेरी
समस्या का समाधान नहीं निकल पाया। कोचिंग क्लास स्कूल की छुट्टी के बाद
ही चलते। यानी चार-साढ़े चार बजे तक मुझे घर में ही दुबके रहना पड़ता।
मेरा गांव कैलगढ़ एस्टेट के तहत आता है। एक दिन मैं एस्टेट की एक पुरानी
बिल्डिंग के पास खड़ा था। उसमें ऊपरवाले तल्ले पर हाईस्कूल के शिक्षक रहते
थे। नीचे वाला बरामदा खाली था। दो कमरे भी थे, पर उसमें कुछ सामान रखे
हुए थे। मैंने वर्षों से जमी धूल को वहां पड़े एक पुराने झाड़ू से साफ करना
शुरू किया तो फर्श ठीक दिखी। मैंने वहीं तय किया कि इस बरामदे में बच्चों
का एक स्कूल शुरू करता हूं। यह शायद दिसंबर 81 का समय था। जनवरी 82 से
स्कूल की तैयारी शुरू कर दी। गांव के मुखिया से आग्रह किया कि सड़क किनारे
किसी पेड़ की लकड़ी मिल जाये तो मैं फर्नीचर बनवा लूं। पेड़ तो नहीं मिला,
पर पेड़ की एक मोटी डाल का बंदोबस्त हो गया। फर्नीचर बन गये और मुखिया जी
के घर के सात-आठ लड़कों को लेकर स्कूल शुरू कर दिया। फिर छात्रों की
संख्या बढ़ने लगी और यह करीब डेढ़-दो सौ के पास पहुंच गयी। ठेठ गंवई इलाके
में यह तब अद्भुत प्रयोग माना गया। यूनीफार्म पहने बच्चे जब पीटी-परेड
करते या गिनती-पहाड़े, अंगरेजी कविताएं दोहराते दिखते तो लोग आकर्षित
होते। लोगों को लगता कि बिगड़ैल बच्चे भी यहां सुधर जायेंगे। मेरी गिनती
काफी अनुशासित और सख्त शिक्षक के रूप में होने लगी। यही वह स्कूल था,
जिसने मुन्ना को मुन्ना मास्टर बना दिया।
1982 आते-आते स्कूल का काफी नाम होने लगा। पत्रकार के रूप में मेरी जो
विशिष्ट पहचान बनी थी वह मुन्ना मास्टर के रूप में और आदरणीय बन गयी।
स्कूल से सबकी तनख्वाह देने के बाद मेरे पास ढाई-तीन सौ बच जाते। स्कूल
का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि कुछ न कुछ रुपये रोज ही हाथ में होते।
इसी साल मेरी शादी का प्रस्ताव आया। परिवार का बंटवारा हो चुका था। फिर
भी मेरे चाचाजी ही मालिक थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि शादी के इस प्रस्ताव
पर क्या किया जाये। मैंने संकेतों में यह कह कर हामी भर दी कि आप देख
लीजिएगा।
शादी तय हो गयी। मेरी शर्तों के मुताबिक तय हुआ कि दहेज नहीं लेंगे। आपको
जो देना हो, भले दें, पर मांग नहीं है। दूसरी शर्त थी कि शादी में गहने
लेकर हम नहीं जायेंगे। आप चाहें तो अपनी ओर से भले दे दें। इन्हीं शर्तों पर
1983 में 20 मई की तिथि तय हुई। शादी के खर्च स्कूल की कमाई से निकल आये।
स्कूल के छात्र भी बाराती बने। संयोग रहा कि शादी के बाद मुझे सारण संदेश
में सह संपादक के रूप में 220 रुपये मासिक की नौकरी मिल गयी। यानी आमदनी
में एक और इजाफा। लेकिन माली हालत हमेशा जोड़-तोड़ से काम चलाने वाली ही
रही। इस हालत में परिवर्तन 1989 से आया। लेकिन किस्मत ने फिर दगा किया।
जुलाई 1990 तक तो सबकुछ खुशगवार हो गया, पर अगस्त 1990 के बाद फिर संकटों
के भंवर में फंस गया।
हरिवंश जी के बुलावे और उनसे यह भरोसा मिल जाने के बाद कि मुझे 2500
रुपये माहवारी मिलेंगे, मैं रांची पहुंचा था। बस से उतरने के बाद करीब 10
बजे प्रभात खबर के दफ्तर पहुंचा। वहां मेरी पहली मुलाकात गोपी कृष्ण
उपाध्याय से हुई। वह संपादकीय विभाग में थे। उनकी ड्यूटी 10 बजे दिन से
लगती थी। शायद डाक संस्करण के लिए काम करते थे। उन्होंने हरिवंश जी कमरा
दिखा दिया। मैं अंदर गया। उस कमरे में दो टेबल सामानंतर लगे थे। एक पर
बुजुर्ग सज्जन और दूसरे पर हरिवंश जी विराजमान थे। मैंने अपना परिचय दिया
और हरिवंश जी से मिलने की बात कही। तब तक मैं न हरिवंश जी को पहचानता था
और न वह मुझे। संयोग से मैंने हरिवंशजी की ओर ही मुखातिब होकर अपना परिचय
दिया था। उनका हुलिया मुझे संपादक जैसा लगा। इसलिए कि चेहरे पर दाढ़ी थी।
संयोग से मैं भी दाढ़ी रखता था। हरिवंश जी ने बैठने को कहा। थोड़ी पूछताछ
के बाद उन्होंने कहा कि आपको टेस्ट देना पड़ेगा। यह सुनते ही मुझे अपने एक
साथी का कहा जुमला याद आ गया, जो अपने साथ फिट बैठता देख मैंने दोहरा
दिया। मैंने कहा – मैं जमीन पर हूं, आसमान में नहीं। टेस्ट देकर नौकरी
मांगने की मेरी उम्र बीत चुकी है। रखना है तो रखिए, वर्ना मेरे पास नौकरी
है।
हालांकि यह जुमला दोहराते वक्त मुझे अच्छी तरह मालूम था कि गुवाहाटी की
नौकरी छोड़ कर आया हूं। वह पल भर चुप रहे। फिर कहा कि आप संपादकीय विभाग
में बैठिए, शाम को बात करते हैं। मैं बाहर आ गया और गोपी कृष्ण उपाध्याय
के पास जाकर बैठ गया।
इस बीच तब समाचार संपादक का दायित्व निभा रहे हरिनारायण सिंह दफ्तर पहुंच
चुके थे। हरिवंश जी ने उन्हें बुलाया और पता नहीं क्या बात की। वह बाहर
निकले तो मुझे अपने पास बुलाया और मेरे बारे में बड़े प्रेम भाव से
जानकारी ली। बात ही बात में उन्होंने कहा कि हरिवंश जी से आपकी बात तो
शाम में होने वाली है ना। मेरे हां कहने पर उन्होंने इलुस्ट्रेड वीकली की
एक प्रति थमायी और कहा कि तब तक इसका अनुवाद कर दीजिए। वह इंटरव्यू
संभवत: वीपी सिंह या देवीलाल का था पूरे पांच पेज का। इलुस्ट्रेड वीकली
की साइज भी बड़ी थी। मैंने ले लिया और अनुवाद करने बैठ गया। चार बजे तक
अनुवाद कर डाला। कापी हरिनारायण जी को दे दी। वह बोले, बैठिए आते हैं और
अनूदित कापी लेकर हरिवंश जी के कमरे में चले गये। मेरे सुंदर अक्षर और
करीब ठीकठाक अनुवाद ने हरिवंश जी को आकर्षित किया। लेकिन उन्होंने मेरे
बारे में जो धारणा बना ली थी कि घमंडी लगता हूं, उसका इजहार भी हरिनारायण
जी से कर दिया। हरिनारायण जी ने सफाई दी कि वैसा तो नहीं लग रहा।
इसलिए कि चार-पांच घंटे उनके साथ मैंने बिताये थे और बातचीत भी कुछ देर
की थी। बहरहाल, हरिवंशजी ने मुझे बुलवाया और कहा कि आपका टेस्ट हो गया।
पहले तो मैं समझ नहीं पाया कि कब हुआ, पर बाद में समझा कि शायद अनुवाद का
काम मेरा टेस्ट ही था। तनख्वाह पर बात आयी तो उन्होंने कह दिया कि आपको
2500 रुपये ही मिलेंगे। साथ ही यह भी बताया कि आज कोई साइन करने वाला
अधिकारी नहीं है, इसलिए मेरा नियुक्ति पत्र वह डाक से भिजवा देंगे।
उन्होंने मेरा घर का पता ले लिया और गुवाहाटी आने-जाने का किराया दिलवा
दिया। नौकरी पक्की होने पर मैं काफी खुश हुआ। इस बीच आठ बज गये थे।
हरिनारायण जी से मैंने कहा कि मुझे धुर्वा जाना है। कैसे जाऊंगा।
उन्होंने मुझे गाड़ी से छुड़वा दिया। पर, इलाके से अनजान होने के कारण मुझे
गंतव्य तक पहुंचने में काफी वक्त लगा। धुर्वा में मेरी पट्टीदारी के दो
चाचा रहते थे। उन्हीं में एक के घर मुझे जाना था। खैर, पहुंच गया चाचा के
घर रात 10 बजे तक। सुबह अखबार देखा तो मेरे द्वारा अनूदित इंटरव्यू छप
गया था। साथ में एक पीस बाईलाइन भी छपा था। वीपी सिंह के इस्तीफे की
अटकलों को केंद्र कर कई लोगों ने लिखा, उनमें एक पीस मेरा भी था। यह देख
और खुशी हुई।
अगले दिन मैं बस से गांव लौट गया था। लौटने के बाद एक-एक दिन नियुक्ति
पत्र के इंतजार में कट रहे थे। सप्ताह बीत गया। मुझे एक अगस्त तक ज्वाइन
करना था। पत्र नहीं पहुंचा तो मन खटका और मैं एक अगस्त को रांची चला।
रांची पहुंच कर दफ्तर गया तो संयोग से पहली मुलाकात फिर गोपीकृष्ण
उपाध्याय से हुई। वह भोजपुरी में बात करते थे और खैनी खाते थे। मेरे में
भी ये दोनों गुण थे। समानधर्मा होना आदमी को करीब लाता है। उन्होंने
बताया कि आपका सेलेक्शन तो हो गया है, पर कोई अड़चन है, वह हरिवंश जी ही
बता पायेंगे।
हरिवंश जी आये तो उनसे मिला। उन्होंने बताया कि मैंने अपने बायोडाटा में
अपेक्षित वेतन 1500 रुपये मांगा है, जबकि तय 2500 रुपये हुआ है। पर्सनल
ने आब्जेक्शन कर दिया है। मैंने कहा कि यह कैसे हो सकता है कि मैं 2375
रुपये पा रहा था और 1500 रुपये मांगूगा। उन्होंने कहा कि ऐसा ही है और
मैं जानता हूं कि आप झूठ नहीं बोल रहे, पर मजबूर हूं। पर्सनल का काम देख
रहे अधिकारी आरके दत्ता को उन्होंने बुलवाया। वह बायोडाटा की फाइल लेकर
आये। उन्होंने मेरा वह अंतरदेशीय पत्र दिखाया, जिसमें मेरा बायोडाटा भी
अंकित था। मेरे ही अक्षरों में। वास्तव में मैंने इतनी बड़ी मानवीय भूल की
थी कि कुछ कहते नहीं बना। आखिरकार वेतन 1500 रुपये ही तय हुआ। अलबत्ता
हरिवंश जी ने यह वादा किया कि मैं आर्टिकल-फीचर लिखूं और वह कोशिश करेंगे
कि मेरे हजार रुपये नुकसान की भरपाई हो जाये। मरता क्या न करता। मुझे तो
गुवाहाटी की नौकरी छोड़ कर रांची आने की असलियत मालूम थी। मैंने उन्हीं
शर्तों पर काम करना स्वीकार किया। मैंने नियुक्ति पत्र पहले लेने की जिद
भी नहीं की।
आप अनुमान लगा सकते हैं कि 10 हजार माहवारी खर्च के बजट वाले को 5 हजार
देकर काम चलाने को कह दिया जाये तो उसे कितने तरह के समझौते करने पड़ सकते
हैं। खासकर, तब, जब उसके सामने और कोई विकल्प न बचा हो। मेरी माली हालत
खराब हो गयी। कितने मजे में रह कर गुवाहाटी से मैं मां को हजार रुपये का
मनीआर्डर हर माह भेज दिया करता था। अब यह बंद हो गया। पैसे घर न पहुंचने
पर पत्नी को परेशानी होने लगी तो उसे अपने पास बुला लिया। तब तक चार
बच्चे हो चुके थे। बेटा और उससे छोटी बेटी साथ आये। दो बेटियां अपनी नानी
के पास रह गयीं। घर से आते वक्त पत्नी साथ में चूड़ा-सत्तू (मक्के का)
लेकर आयी थीं। हालांकि मैं इनमें किसी का कभी शौकीन नहीं रहा। प्रभात खबर
आकर मेरी त्रासदी यहीं खत्म नहीं हो गयी कि कम तनख्वाह मिलने लगी।
तनख्वाह की कोई निश्चित तिथि भी तब मुकर्रर नहीं थी। कभी 20 को तो कभी 23
को तनख्वाह मिलती। सबकुछ इतना गड्डमड्ड हो गया कि दिमाग काम नहीं कर रहा
था। पैसे की तंगी ने तो एक-दो दिन ऐसा कर दिया कि बच्चों को दूध की जगह
मांड़ पिला कर पत्नी ने काम चलाया। चावल के पैसे भी नहीं थे तो पत्नी ने
घर से लाये सत्तू की रोटी बना कर खिलाया। घर के किराये के 120 रुपये भी
समय पर नहीं देने के कारण मकान मालिक से किचकिच होती रहती थी। एक दिन तो
स्टोव जलाने के लिए केरोसिन नहीं था तो आधे लीटर में दो साथियों ने काम
चलाया। किस्मत अबतक कई रंग दिखा चुकी थी।
उस वक्त का एक दिलचस्प किस्सा है। हरिनारायण जी छुट्टी पर थे। ईरान-इराक युद्ध की खबर देर रात आयी तो सबकी सहमति से शाम में संजीव जी द्वारा तय लीड हम लोगों ने बदल ली। अति उत्साह में एडिट लिखने वाली टीम के सदस्य अनुज ने अविनाश ठाकुर पर दबाव डाला कि एडिट भी बदल देना चाहिए। तब दो संस्करण छपते थे। डाक में पहला एडिट छप चुका था। अविनाश जी अनिर्णय की स्थिति में थे। उन्होंने मुझे देखा तो मैने कहा कि अखबार में एक ही एडिट होना चाहिए। जो डाक में छप गया है, उसे ही जाने दें। अनुज नाक-भौं सिकोड़ने लगे। अविनाश जी ने उनकी बात मान ली। आनन-फानन में उन्होंने एडिट लिखा और सिटी संस्करण में परिवर्तित एडिट छप गया।
दूसरे दिन संजीव जी आये तो लीड बदल लेने के लिए बधाई दी। तब तक उनका ध्यान बदले एडिट पर नहीं गया था। चूंकि कैंटीन में ही चाय-नाश्ता होता था, इसलिए सुबह में 11 बजे तक मैं भी पहुंच चुका था। बधाई मुझे ही पहले मिली। इसी बीच एडिट पेज देखने वाली शादां नियाजी ने सिटी में बदला एडिट देख लिया। वह संजीव जी के पास पहुंची। उन्हें बताया। इस पर वह भड़क गये। मुझे बुला कर पूछा तो मैंने बड़ी ही बेचारगी के साथ सफाई दे डाली। यह कहते हुए कि आप लोगों की नजर में मैं भले ही औरों से ऊपर या अलग हूं, पर मेरा पद इतना छोटा है कि किसी को रोक पाना मेरे वश की बात नहीं। मैंने सलाह दी थी अविनाश जी को, लेकिन अनुज जी की जिद को वह रोक नहीं पाये। मैं तो बच गया, पर अविनाशजी को क्या-क्या सुनना पड़ा होगा, यह उन्हें मिले शोकाज से मालूम हो गया। अनुज को सजा के तौर पर एडिट लिखने वाली टीम से हटा दिया गया।
मैं अपनी बदहाली को लेकर हमेशा उदास रहता था। चुपचाप खबरें एडिट करता और खामोशी से पेज बनवाता। संजीव जी के कमरे में जब कभी जाता, वह मेरे और परिवार के बारे में जानकारी हासिल करते। मेरी तनख्वाह वाली गड़बड़ी को लेकर दुखी भी होते। मेरी मनोदशा को शायद सबसे ज्यादा उन्होंने पढ़ा था। मेरे बारे में उनकी चिंता का एक ही उदाहरण काफी है। कलकत्ता से जनसत्ता का संस्करण शुरू हो रहा था। कई अखबारों में विज्ञापन निकला था। मित्रों ने दफ्तर में आने वाले अखबारों से विज्ञापन कुतर लिये थे। उन दिनों जनसत्ता के मुंबई संस्करण में काम करने वाले पंकज जी (उनकी उपाधि मुझे नहीं मालूम, पर इतना जानता हूं कि वह भी प्रभात खबर के शुरुआती दिनों में साथ थे) से देर रात बात हो रही थी। मैंने वैसे ही पूछ लिया कि पंकज जी, क्या जनसत्ता में हम लोगों की नौकरी नहीं लग सकती। उन दिनों जनसत्ता पत्रकारिता की बाइबिल के समान था। उन्होंने कहा, क्यों नहीं? विज्ञापन निकला है, अप्लाई कीजिए। अखबार टटोले तो पता चला कि जिन अखबारों के बीच से कुछ काटा गया है, वह जनसत्ता का ही विज्ञापन था।
बड़ी पसोपेश में पड़ा। किसी से मैं खुला तो था नहीं, इसलिए इस बारे में पूछूं किससे। दूसरे दिन एडिट के सिलसिले में संजीव जी के कमरे में गया। विषय पर बात खत्म हुई तो आम दिनों की तरह संजीव जी ने मेरे बारे में बातचीत शुरू कर दी। मैंने अपनी पीड़ा उनसे साझी की तो उन्होंने कहा कि कहीं और क्यों नहीं कोशिश करते हैं। मैंने कहा कि जनसत्ता में वेकेंसी निकली है, पर उसकी कटिंग नहीं मिल रही। दफ्तर के अखबारों से लोगों ने काट लिया है। इस पर उन्होंने तपाक से कहा कि मेरे घर आता है, मैं ला दूंगा। दूसरे दिन उन्होंने कटिंग ला दी। मैंने आवेदन कर दिया। टेस्ट होना था, पर मुझे समय की सही जानकारी नहीं थी। मैं गांव चला गया था। इसी बीच टेस्ट का टेलीग्राम धुर्वा वाले मेरे चाचा के घर के पते- डीटी 2472- पर पहुंच गया।
संजीव जी को टेस्ट की तिथि मालूम हुई तो वह काफी परेशान हुए। तब मोबाइल का जमाना था नहीं, इसलिए वह मुझे सूचित भी नहीं कर सकते थे। गांव में टेलीफोन तब सोचा भी नहीं जा सकता था। उन्होंने जनसत्ता में तब काम कर रहे और प्रभाष जोशी के करीबी आलोक तोमर से बात की। आलोक जी ने उनको बताया कि पहले टेस्ट में अच्छे लोग नहीं मिले हैं, इसलिए फिर टेस्ट हो सकता है। उनको कहिए कि फिर से आवेदन भेजें और बतायें कि पारिवारिक कारणों से पहले टेस्ट में शामिल नहीं हो पाये थे। मैंने वैसा ही किया। तब प्रभाष जी के पीए रामबाबू होते थे। हफ्ते भर में रामबाबू का टेलीग्राम मिला, जिसमें कलकत्ता में टेस्ट के लिए बुलाया गया था। टेस्ट के लिए छुट्टी कैसे लूं, यह बड़ी समस्या थी। इसलिए कि मैं झूठ बोल कर जाना नहीं चाहता था।
काफी सोच-विचार के बाद मैंने तय किया कि हरिवंश जी को बताऊं। मैं सीधे उनके पास गया और आवेदन करने से लेकर टेस्ट के लिए काल लेटर आने तक की बात बता दी। उस हरिवंश जी को टेस्ट की बात मैंने बतायी, जिनसे एक बार मैं कह चुका था कि टेस्ट देकर नौकरी की मेरी अब उम्र नहीं रही। बहरहाल, उन्होंने खुशी से कहा- जाओ, भगवान करे तुम कामयाब हो जाओ। यह भी पूछा कि कैसे जाओगे। मैंने कहा कि बस से। तब उन्होंने कहा कि बस से थकान होगी, तुम ट्रेन से जाओ। कहो तो मैं टिकट कनफर्म कराने के लिए किसी से कह दूं। मैंने कहा कि नहीं, मैं कर लूंगा। वैसे मैं कलकत्ता बस से ही गया। बस ने सुबह 8 बजे तक कलकत्ता ग्रेट ईस्टर्न होटल के सामने उतार दिया। उसी होटल में टेस्ट होना था।
जिस वक्त मेरी बस कलकत्ता पहुंची थी, उस समय आसापस एक-दो फुटपाथी चाय-नाश्ते की दुकानों के अलवा सब बंद था। होटल के बाहर इस छोर से उस छोर तक चहलकदमी के अलावा कोई काम न था। इसी दौरान मैंने एक आदमी को अपनी ही तरह उतने ही दायरे में टहलते देखा। उस आदमी की उम्र मुझसे थोड़ी ज्यादा थी, पर दाढ़ी मेरी ही तरह थी। मन ही मन मैंने उसमें और अपने में काफी समानता देखी। बाद में जब हम लोगों का इंटरव्यू के बाद सेलेक्शन हुआ तो पता चला कि टेस्ट के दिन मिला आदमी कोई और नहीं, प्रभातरंजन दीन थे। वह पटना से आये थे। तब आज अखबार में काम करते थे। जब साथ काम करने लगे तो अपनी उस अपरिचय की स्थिति में भी आंतरिक परिचय की चर्चा अक्सर हम करते। उनसे नजदीकी दो ही मुलाकातों में इतनी बढ़ गयी कि सेलेक्शन के बाद उसी शाम वह पटना लौट रहे थे तो मैंने अपने सेलेक्शन की सूचना का एक पत्र देवेंद्र मिश्र जी के नाम उनके ही हाथों पठाया था।
टेस्ट देकर उसी शाम मैं रांची के लिए निकल गया था। अगले दिन हरिवंश जी ने पूछा कि टेस्ट कैसा गया। मैंने ठीक कहा और साथ में संशय भी जोड़ा कि पता नहीं, होगा भी या नहीं। तब उन्होंने कहा था कि विश्वास रखो, हो जायेगा। महीने भर बाद ही इंटरव्यू के लिए बुलावा आ गया। इस बीच दिल्ली में प्रभात खबर के विशेष संवाददाता के रूप में नियुक्त कृपाशंकर चौबे जी से फोन पर अक्सर बात होती रहती थी। इंटरव्यू लेटर आने के पहले उन्होंने ही बताया था कि आपका सेलेक्शन हो गया है। तब मुझे यह मालूम नहीं था कि इतनी आंतरिक जानकारी कृपाजी मेरे लिए क्यों जुटा रहे हैं। दरअसल एक टेस्ट दिल्ली में हुआ था, जिसमें वह भी शामिल हुए थे।
जनसत्ता का इंटरव्यू 30 सितंबर 1991 को था। मैंने फिर बस का टिकट कटाया। तब तक मुझे मालूम नहीं था कि प्रभात खबर से इंटरव्यू के लिए किन-किन लोगों को बुलाया गया है। मुझे दो दिनों की छुट्टी लेनी थी। 2 अक्तूबर को अवकाश था। मैं इंटरव्यू का टेलीग्राम लेकर हरिवंश जी के पास पहुंचा। उन्हें इंटरव्यू के बारे में बताया। वह खुश थे। मुझे शुभकामनाएं दीं और कहा कि जाओ, देखो- क्या होता है। वैसे तुम्हारा हो जाना चाहिए। मैंने तो छुट्टी ले ली। इंटरव्यू कलकत्ता के होटल ताज बंगाल में होना था। दूसरे दिन पूछ-पता कर वहां पहुंच गया। वहां जाने पर देखा कि रांची प्रभात खबर से विनय विहारी सिंह, जो उस वक्त चीफ सब एडिटर थे और संडे सप्लीमेंट- रविवार का काम देखते थे, वह भी पहुंचे थे। रविवार के लिए फ्रीलांस के तौर पर विनय जी के सथ काम करने वाले युवक रंजीव भी थे। परिचितों में फजल इमाम मल्लिक भी थे। मेरा उनसे परिचय गुवाहाटी से था।
सुबह नौ बजे से इंटरव्यू शुरू हुआ। होटल ताज बंगाल के फर्स्ट फ्लोर पर इंटरव्यू चल रहा था। एक-एक कर लोगों को बुलाया जा रहा था। लोग जाते और खुश होकर लौटते। पता ही नहीं चलता कि कोई छंट भी गया या सबका हो गया। देखते-देखते दोपहर हो आई। बिना खाये-पीये इंटरव्यू का इंतजार और उससे भी खतरनाक स्थिति- क्या होगा की मनोदशा। भूख से सिर दुखने लगा। बाहर निकले और अफरातफरी में फुटपाथ से पूड़ी लेकर हड़बड़ी में अंदर धकेला। फिर भाग कर आये, यह पूछते हुए कि कहीं मेरा नंबर तो नहीं आया था। जब पता चला कि अभी नहीं तो थोड़ी राहत जरूर हुई, लेकिन उससे भी ज्यादा घबराहट इस बात को लेकर थी कि ज्यादातर लोग इंटरव्यू दे चुके थे या देकर जा चुके थे। चार बजने को थे। मन घबराया कि सब सीटें भर जायेंगी तो मेरा क्या होगा। एक तरह से
निराश हो गया था। मुंह लटकाये बैठा था कि पौने पांच बजे के करीब मेरा बुलावा आया। भूख-प्यास से तो बिलबिला ही रहा था, इंटरव्यू की घबराहट ऊपर से। अंदर गया।
दो लोग बैठे थे। एक तो प्रभाष जोशी खुद थे और दूसरे कवि त्रिलोचन जी के पुत्र अमित प्रकाश सिंह थे। बाद में जाना कि अमित जी न्यूज एडिटर की हैसियत से आये थे। प्रभाष जी ने अपने अंदाज में पूछा- अश्क जी, आपका उपेंद्र नाथ अश्क से क्या रिश्ता है?
मैंने जवाब दिया- कोई नहीं
फिर अश्क नाम क्यों रखा? कहीं कविता तो नहीं लिखते?- यह प्रभाष जी का सवाल था।
मैंने स्वीकारा- कविता लिखने की वजह से ही मैं अखबार तक पहुंचा। बचपन में कविताएं लिखता था।
प्रभाष जी का प्रतिप्रश्न- अब भी लिखते हैं?
मेरा जवाब- जी नहीं, अखबार में आकर संवेदनाएं बची ही कहां?
प्रभाषजी- कैसे?
मेरा जवाब- जब रिपोर्टर किसी बस दुर्घटना के बारे में सूचना देता है तो हमारा पहला सवाल होता है कि कितने मरे? अगर उसने कहा कि मरा कोई नहीं, पर 79 घायल हैं तो हमारा जवाब होता है कि छोटी खबर भेज दो। अगर उसने कहा कि 25 मरे हैं तो हम उछल पड़ते हैं कि आज की लीड मिल गयी। ऐसे संवेदनशून्य हो जाने पर कविता की गुंजाइश ही कहां बचती।
शायद मेरा जवाब उन्हें जंच गया। उनका अगला सवाल कि आप सिंह की जगह अश्क क्यों लिखते हैं।
मैंने बताया कि जिस चीज में प्रत्यक्ष दुर्गुण नजर आये, उसका परित्याग कर देना ही श्रेयस्कर है। सिंह लिखने पर किसी भी दफ्तर में जायें तो लोग यही समझते हैं कि राजपूत हैं। अगर दूसरी जाति का कोई अफसर हुआ तो बहाना बना कर काम लटका देता है। अश्क नाम से प्रथमदृष्टया यह पता नहीं चलता कि मैं किस जाति का हूं। संदेह का लाभ मिल जाता है।
यहां बताना प्रासंगिक होगा कि मैं यह जवाब बिहार की तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को ध्यान में रख कर दे रहा था। इसलिए कि बिहार में पल-बढ़-पढ़ कर जो अनुभूतियां हुई थीं, मैंने उसी को बयां किया। इसके बाद अमित प्रकाश जी ने पूछा कि आप लाइट इकोनामी पर लिखते हैं? मैंने कहा- नहीं।
अमित जी ने कहा- आपने जनसत्ता को तो एक लेख भेजा था इकोनामी पर? मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम। मैंने दो बार में दो लेख भेजे थे। एक असम में रहते हुए, जो छप गया था और दूसरा प्रभात खबर में रहते हुए, जो छपा नहीं था। उसका विषय मुझे याद है- आर्थिक उदारीकरण पर वह लेख था। प्रभात खबर में बिजनेस इनचार्ज की अनुपस्थिति में मैं बिजनेस पेज भी देखता था, इसलिए थोड़ा ज्ञान था। अमित जी ने अगला सवाल किया- आर्थिक उदारीकरण के बारे में पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार का क्या नजरिया है?
मेरा जवाब था- सिद्धांत रूप से यह सरकार विरोधी है, पर व्यावहारिक रूप से नहीं।
अमित जी ने पूछा- कैसे?
मैंने कहा- ज्योति बसु हर साल विदेश दौरे पर जाते हैं। हर बार उनकी विदेश यात्रा की आफिसियल मुलाकातों में उद्योगपति स्वराजपाल जैसे लोगों का नाम होता है। जाहिर है कि वे विदेशी निजी पूंजी आमंत्रित करने का आग्रह करते होंगे।
मैंने देखा कि मेरे जवाब को प्रभाष जी बड़े ध्यान से सुन रहे थे। अगला सवाल अब प्रभाष जी का था। वैसे भी प्रभाष जी का किसी को परखने का तरीका मुझे भाने लगा था। उनका अगला और सपाट सवाल था- अभी आपको कितने रुपये मिलते हैं?
मेरा भी सत्य, सरल और सीधा जवाब था – 1800 के करीब।
आप कितना चाहते हैं वेतन?
मेरा जवाब- मुझे कलकत्ता के बाजार का भाव मालूम नहीं कि कितना महंगा या सस्ता है शहर। आप जो उचित समझें, तय कर दें।
इसके बाद उन्होंने कहा कि कल 83, बीके पाल एवेन्यू आ जाइए।
मैं लौटने लगा तो दरवाजा खोलते वक्त प्रभाष जी की आवाज कानों में पड़ी कि यह लड़का अपने यहां बिजनेस का असिस्टेंट एडिटर बन सकता है। चलिए बिजनेस का तो हो गया, अब खेल का देखते हैं। मेरे बाद फजल इमाम मल्लिक की बारी थी। वह ऊपर आ रहे थे। मैंने उनको हिंट किया- आप सिर्फ स्पोर्ट्स की बात करेंगे। उसी में अब जगह खाली है। बहरहाल, वह भी खेल के लिए सेलेक्ट हो गये। फजल से मेरी नजदीकी गुवाहाटी से थी। जब हम गुवाहाटी में थे तो फजल मेरे ही साथ रहते थे। बाद में उनकी पत्नी मनु आईं, तब भी कुछ दिन हम एक ही मकान में रहे। जब फजल की चर्चा चल ही रही है तो उनके बारे में एक प्रसंग का जिक्र जरूरी लगता है।
फजल ने हिन्दू लड़की से विवाह किया था। उनकी पत्नी मनु ने विस्तार से बताया था कि कैसे नाटकों के मंचन के दौरान वह फजल के करीब आईं और परिजनों द्वारा तय की गई स्वजातीय शादी छोड़ कर भाग गईं। फजल से शादी की। दोनों को पुलिस ने परेशान भी किया। जब लफड़े से मुक्त हुए तो दोनों साथ रहने लगे। फजल ने मनु पर कभी यह दबाव नहीं डाला कि वह इसलाम धर्म कबूल कर लें, बल्कि यह छूट दे दी कि वह हिन्दू रीति रिवाज से अपने पर्व-त्योहार मनायें। मनु ने ही बताया था कि वह फजल के साथ एक बार उनके घर गईं तो वहां का इसलामी आचरण उन्हें रास नहीं आया और वह फजल के साथ लौट गईं। काफी दिनों से इस बात को लेकर फजल की अपने घर वालों से बात भी नहीं होती थी।
जनसत्ता में जब हम सेलेक्ट हो गए तो प्रभाष जी ने अगले दिन 83, बी.के. पाल एवेन्यू स्थित जनसत्ता के दफ्तर आने को कहा। रात में कहां ठहरें, इस बात को लेकर मैं परेशान था। फजल ने बताया कि उनका एक मित्र यहीं रहता है। वह बिहार का ही था और शायद जान बाजार की एक मसजिद में रहता था। फजल के साथ मैं चल पड़ा और उस मित्र के ठिकाने पर हम पहुंचे। मुझे तब तक या यों कहें कहें कि अभी तक किसी मसजिद में ठहरने का वह पहला मौका था। सामान रख कर कुछ देर तक हम लोग मसजिद कैंपस में ही बने एक कमरे के बाहर बरामदे में फर्श पर बैठे। रात में खाने के लिए वह लड़का हम लोगों को लेकर चांदनी चौक के एक होटल में गया। वह शबीर होटल था। होटल का मुसलिम नाम देख कर मेरे मन में भारी संशय हुआ। तब मुझे पता नहीं था के नानवेज खाने के लिए कलकत्ता के कुछ नामी-गिरामी होटलों में वह शुमार था। वहां बड़ी संख्या में आज भी हिन्दू खाना खाते हैं। नो बीफ का बोर्ड देख कर थोड़ी राहत हुई, पर पूरी तरह नहीं।
उस लड़के ने मुझसे पहले ही पूछ लिया था कि नानवेज खाते हैं ना। मेरे हामी भरने पर ही शायद वह हमें वहां लेकर गया था। उसने आर्डर दिया। मेरे लिए रोटी और मटन आ गया। मटन के बड़े पीस देख कर मैं घबड़ाया। कुछ बोलते नहीं बन रहा था। कुछ देर ठहरा रहा, लेकिन जब उन्होंने कहा कि खाते क्यों नहीं तो बड़े रुंआसे मन से मैंने शोरबे से बमुश्किल एक रोटी खाई, मटन छुआ तक नहीं। यह कह कर कि मन ठीक नहीं लग रहा है। वोमेटिंग जैसा लग रहा है। जो लड़का हमें लेकर गया था, शायद उसने मेरी मनोदशा भांप ली।
होटल से निकलने के बाद उसने एपल खरीद लिया। घर लौटने पर उसने कहा कि आपने खाना जानबूझ कर नहीं खाया। मैं समझ गया था, इसीलिए आपके लिए एपल खरीद लिया। मैंने ईमानदारी से उसे अपने मन का संशय बता दिया। फिर उसी ने बताया कि उस होटल में हिन्दू लोग भी खाते हैं और वहां गलत चीजें परोसी नहीं जाती हैं। अगले दिन हमलोग बीके पाल एवेन्यू पहुंचे। वहां प्रभात खबर के साथी विनय विहारी सिंह मिले। वह पहले टेस्ट में शामिल हुए थे, इसलिए उनका इंटरव्यू पहले ही हो गया था। उन्हें हम लोगों के साथ सिर्फ यह सूचना देने के लिए बुलाया गया था कि उनका सेलेक्शन हो गया है। रंजीव भी मिले, जो प्रभात खबर के लिए तब फ्रीलांसिंग करते थे।
प्रभाष जी ने इंडियन एक्सप्रेस के लेटर पैड पर अपने हाथ से आफर लेटर लिखा और सबको दिया। जितने लोगों को आफर लेटर मिले, उनमें दो ही श्रेणी बनी थी- उप संपादक और रिपोर्टर। अलबत्ता सीनियरिटी के हिसाब से इंक्रीमेंट का जिक्र उसमें जरूर था। मुझे जो आफर लेटर मिला, उसमें बच्छावत के ग्रेड वन के वेतनमान और एक इंक्रीमेंट का जिक्र था। कुछ को दो इंक्रीमेंट भी मिले थे। आफर लेटर के हिसाब से पता किया तो वेतन करीब 3500 रुपये बनता था। जाहिर है कि मेरी खुशी परवान चढ़ी होगी। इसलिए कि 2375 की नौकरी छोड़ कर मैं प्रभात खबर में अपनी ही गलती से 1500 रुपये पर फंस गया था। एक और रोचक प्रसंग।
प्रभात खबर में रहते सजने-संवरने की कल्पना ही बेमानी थी। इसलिए कि जरूरत भर के तो पैसे मिलते नहीं थे, साज-शृंगार पर खर्च तो दूर की कौड़ी थी। हालत यह थी कि जो सैंडल पहन कर मैं इंटव्यू देने कलकत्ता के ताज बंगाल होटल पहुंचा था, वह एड़ी की तरफ से आधा घिस चुका था। चूंकि एड़ी का हिस्सा ज्यादा सख्त होता है, इसलिए चलते समय यह महसूस ही नहीं हो पाता था कि चप्पल तो आधी ही बची है। शायद यह भी वजह थी कि घर से आफिस ही आना-जाना होता था। फुल पैंट की मोहरी चौड़ी थी, इसलिए चप्पल की घिसावट किसी को दिखती भी नहीं थी। मुझे चप्पल घिसने का एहसास तब हुआ, जब होटल के फर्श पर बिछे कालीन की नरमी एड़ी को मिली। अचानक इस अनुभव ने चप्पल निकाल कर देखने को विवश किया था। जब असलियत का पता चला तो समझ में आया कि मेरी स्थिति कैसी है।
खैर, सेलेक्शन का लेटर लेकर मुझे बस से रांची लौटना था। बस बाबूघाट से खुलने वाली थी। मुझे वह लोकेशन पता नहीं था। विनय जी और रंजीव शायद ट्रेन से लौटने वाले थे। मैंने विनय जी से आग्रह किया कि मुझे बस स्टैंड तक छोड़ दें। शाम में तीनों एक साथ बस अड्डे के लिए निकले। बाबूघाट जाने के लिए रोड क्रास करना था। दोनों तरफ से वाहनों की भाग-दौड़ मेरे लिए नई बात थी। इसलिए कि महानगर में मैं पहली बार गया था। मुझे लगा कि सड़क पार नहीं कर पाउंगा। फिर सोचा कि सड़क पार करने में इतनी झल्लाहट मुझे इस शहर में हो रही है तो नौकरी कैसे यहां कर पाऊंगा। विनय जी आगे, बीच में मैं और पीछे रंजीव हुए। किसी तरह सड़क पार की। रास्ते में विनयजी और रंजीव की झल्लाहट की बातें भी सुनीं। विनय जी की झल्लाहट इस बात को लेकर थी कि वह प्रभात खबर में चीफ सब एडिटर थे और जनसत्ता में उपसंपादक का पद मिला। पैसे का भी उन्हें ज्यादा लाभ नहीं हुआ था। रंजीव को इस बात की तकलीफ थी कि उनका सेलेक्शन ट्रेनी के रूप में हुआ था और वह भी खेल रिपोर्टर के तौर पर। उनकी रुचि पालिटिकल बीट में थी। दोनों ने कहा कि वे ज्वाइन नहीं करेंगे। इससे मुझे भी थोड़ी तसल्ली हुई कि इस भीड़भाड़ वाले शहर से तो अपनी रांची भली। भले ही कम पैसे मिल रहे हैं।
दो अक्तूबर को हम रांची लौटे। उस दिन छुट्टी थी। अखबार बंद था या मेरा साप्ताहिक अवकाश था, याद नहीं। यहां यह बताना आवश्यक है कि प्रभाष जी ने जो आफर लेटर दिया था, उसमें सात अक्तूबर तक ज्वाइन कर लेने को कहा गया था। ज्यादा सोच-विचार का वक्त भी नहीं बचा था। तीन अक्तूबर को आफर लेटर लेकर मैं हरिवंश जी से मिला। उन्होंने पूछा कि क्या हुआ तो मैंने आफर लेटर उनको दे दिया। आश्चर्यजनक ढंग से वह दुखी होने के बजाय खुश थे। उन्होंने पूछा कि अब क्या सोचा है? मैंने जवाब दिया- आप से ही पूछ कर टेस्ट और इंटरव्यू में गया था। अब आप ही बताइए कि क्या करना चाहिए।
उन्होंने कहा- पत्रकारिता की मुख्य धारा में शामिल होने का यह मौका है। तुम्हें जाना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने एक टिप्पणीं मेरे बारे में की, जिसे मैं अब तक गांठ बांध कर लिये फिरता हूं। उन्होंने कहा- तुम्हारे आचरण, तुम्हारी वाणी और तुम्हारे लेखन में जो संयम है, वह तुम्हें काफी आगे ले जायेगा। फिर उन्होंने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआती परेशानियों का जिक्र किया कि मुंबई में मेरी ही तरह उन्हें भी कई परेशानियां झेलनी पड़ी थीं। उन्होंने कहा- तुम्हारे पास समय नहीं है। तुम्हारा प्लान क्या है? जब मैंने बताया कि दो-तीन दिन के लिए गांव जाऊंगा, फिर रांची लौटूंगा और यहीं से कोलकाता के लिए निकलूंगा। इस पर उनका जवाब था- तब तो आज ही तुम इस्तीफा दे दो। मैं हिसाब करवा देता हूं।
इस्तीफा लिखने के लिए मैं बाहर निकला तो पता चला कि विनय जी और रंजीव भी चलने को तैयार हो गये हैं। बहुत खुश हुआ कि अपनों की कंपनी मिल गई। संपादकीय विभाग में हरिनारायण जी बैठे थे। उन्होंने कहा कि आप मत जाइए। हरिवंश जी से कह कर आपकी तनख्वाह तीन हजार करवा देता हूं। वहां भी करीब इतने ही पैसे मिलेंगे। मैंने कहा कि अगर हरिवंश जी चाहें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। वह हरिवंश जी के पास चले गए और मैं इस्तीफा लिखने बैठ गया। जब निकल कर आये तो मेरा इस्तीफा तैयार था। उन्होंने कहा कि आपको नहीं जाना है। मैंने सोचा कि शायद हरिवंश जी के कहने पर हरिनारायण जी ऐसा कह रहे हैं। मैं इस्तीफा लिये हरिवंश जी के पास चला गया। उन्हें देते हुए यह भी कहा कि आप चाहते हैं तो मैं नहीं जाऊंगा। लेकिन हरिवंश जी का जवाब हरि जी की बातों से से मेल नहीं खाया।
उन्होंने कहा- अभी तुम जाओ, मैं नहीं रोकूंगा, पर इतना वादा करो कि जिस दिन मैं तुम्हें पैसे देने लायक हो जाऊं, उस दिन आने से तुम मना नहीं करोगे। मैंने कहा, आप कहें तो अभी रुक जाता हूं। उन्होंने मना कर दिया। शाम तक मुझे पैसे मिल गये और रात की बस पकड़ कर मैं गांव के लिए निकल गया। हिसाब लेने के वक्त तक मैं हरिनारायण जी से कन्नी काटता रहा। मुझे बस तक छोड़ने संजय सिंह आये थे। ये वही संजय सिंह हैं, जो अभी भास्कर के जमशेदपुर संस्करण के संपादक हैं।
संजय सिंह से दोस्ती की भी एक कहानी है। वह प्रभात खबर के अंग्रेजी संस्करण में प्रूफ रीडर हुआ करते थे। घनश्याम श्रीवास्तव भी उनके साथ थे। 1989 में नए प्रबंधन के हाथ जब प्रभात खबर आया तो उसके अंग्रेजी संस्करण को बंद करने का फैसला हुआ। तकरीबन कुछ दिनों तक संस्करण सस्पेंड रहा। फिर सबको बुला कर प्रबंधन ने हिसाब थमाने की योजना बनाई। जो लोग हिन्दी प्रभात खबर में जाने के इच्छुक थे, उनके लिए दरवाजा खोल दिया गया। इसी दरवाजे से यशोनाथ झा, अनिल झा, घनश्याम श्रीवास्तव का प्रवेश तब प्रभात खबर में हो गया। कुछ लोग इस बात पर अड़े रहे कि अंग्रेजी संस्करण खुलवा कर ही रहेंगे। यूनियन बनी। संजय सिंह उसके सेक्रेटरी बनाये गये। कुछ दिन तो अकड़ में रहे, पर अपने कुछ साथियों को चुपचाप प्रभात खबर में काम करते देखा तो हताश हो गये। इसी हताशा के दौरान वह मेरे संपर्क में आये। कभी विज्ञापन तो कभी अंग्रेजी की कुछ सामग्री का अनुवाद कर दिया करते थे।
एक दिन पता चला कि अंग्रेजी वालों को थोक के भाव बुलाया गया है और उनको हिसाब देकर टरकाया जा रहा है। मैंने हरिनारायण जी के माध्यम से हरिवंश जी को कहलवाया कि संजय को हिन्दी में ले लिया जाये। हरिवंश जी उस दिन दफ्तर नहीं आये थे। शायद विवाद का भय रहा होगा। उन्होंने सूचना भिजवायी कि संजय को दफ्तर आने से आज मना कर दें। बाद में देखा जायेगा। मैंने संजय सिंह को मना कर दिया। शाम में उन्होंने बताया कि जिन्हें हिसाब थमा दिया गया था, वे उनके घर पहुंच कर हंगामा कर रहे थे। खैर, जब मेरे जनसत्ता जाने की बात पक्की हो गयी तो मैंने हरिवंश जी से मुलाकात के दौरान संजय को प्रभात खबर में ले लेने के लिए आग्रह किया था। उन्होंने तब यही कहा था कि देखेंगे। जब मैं जनसत्ता चला गया तो हरिवंश जी ने कलकत्ता आने पर मुझे बताया कि तुम्हारे लड़के का काम कर दिया है। मुझे याद नहीं आ रहा था कि किस लड़के का काम। पूछा तो उन्होंने बताया कि संजय के बारे में तुमने कहा था न, उसे ज्वाइन करा लिया है। संजय सिंह ने बाद में मुझे यह जानकारी दी थी। मेरे अंदर एक ऐसा गुण है, जिसकी हरिवंश जी मेरे संपादक बन जाने पर अक्सर तारीफ करते थे और अपने अंदर उसका अभाव महसूस करते थे। वह कहते कि मेरे अंदर धैर्य का भंडार है और वह अतिशय अधैर्यवान हैं।
मेरे अंदर धैर्य की एक सबसे बड़ी वजह शायद यह रही कि परिस्थितियों ने इतनी उठा-पटक मेरी जिंदगी में की, जिसमें धैर्य ने ही मुझे जिंदा रहने की तसल्ली दी। वर्ना बहन के विवाह में दहेज के लिए ससुरालियों का हड़बोंग मचाना, स्कूली जीवन में असमय अभिभावक की भूमिका का निर्वाह, परिवार की परविरिश की चिंता ने मुझे कब का लील लिया होता। आज जब मामूली परेशानी से घबड़ा कर किसी की आत्महत्या की खबर सुनता-पढ़ता हूं तो असमय अपनी परिस्थियों के खेल को धन्यवाद देता हूं, जिन्होंने प्रतिकूलताओं में भी जीने की कला सिखायी।
जीवन में मैंने दो बातों का शिद्दत से एहसास किया है। जिद और जद्दोजहद में बड़ा फर्क होता है। कई लोग जीत के लिए जिद्द करते हैं, जद्दोजहद से परहेज करते हैं। मैं जीत के लिए जद्दोजहद करता रहा रहा हूं, जिद्द कभी नहीं की। कभी ट्यूटर, तो कभी मास्टर या कस्बाई पत्रकार बन कर जीत के लिए मैंने जद्दोजहद की। महज जिद्द ठान कर बैठ नहीं गया। प्रभात खबर से मेरा पहला इस्तीफा अक्तूबर 1991 में हुआ था। अगस्त 1990 में मेरी ज्वाइनिंग हुई थी। यानी सवा साल के भीतर प्रभात खबर छोड़ दिया। इस्तीफे के बाद घर गया। खुशखबरी परिवार वालों को दी और दो दिन बिता कर पांच अक्तूबर को नई यात्रा के लिए निकला। पहले रांची आया और विदाई के बाद 6 अक्तूबर 1991 को कलकत्ता के लिए ट्रेन से रवाना हुआ।
विदाई के दिन का एक रोचक प्रसंग याद आ रहा है। सुबह हरिवंश जी से मिला और बताया कि आज रात निकल जायेंगे। उस दिन उन्होंने टेलीग्राफ का एक पेज दिया, जिसमें बढ़ती महंगाई पर सामग्री थी। उन्होंने कहा कि इसे बनवा दो। यह तबके संपादकों के साथ अपने मातहतों के रिश्ते होते थे। जो जा रहा है, उसे साधिकार कोई संपादक काम सौंप रहा है। मैंने अनुवाद कर सामग्री कंपोज कराई, प्रूफ पढ़ कर पेज बनवा दिया। तब पेज की पेस्टिंग होती थी। उसका लेआउट भी ठीक टेलीग्राफ की तर्ज पर बनवाया। पेज हरिवंश जी को दिखाया तो उसकी सुंदरता देख कर वह बहुत खुश हुए। इस तरह मैं सप्रेम प्रभात खबर से विदा हुआ।
अगले दिन रंजीव, विनय जी और मैं कलकत्ता पहुंचे। एक दिन तो होटल में गुजारा। पहली रात सेंट्रल एवेन्यू के किसी छोटे होटल में ठहरे। तीनों मित्र टैक्सी से बीके पाल एवेन्यू के लिए निकले। भाषा समस्या तो थी, पर रंजीव को थोड़ी आती थी। इसलिए कि उनकी ननिहाल बांकुड़ा में थी। वहीं आते-जाते उन्हें बांग्ला का ज्ञान हुआ था। हम लोग हिन्दी में बात कर रहे थे। उसी टैक्सी में सेंट्रल एवेन्यू से एक और सज्जन चढ़े, जो हमारी हिंदी में बातचीत सुन रहे थे। उन्होंने हिन्दी में ही पूछा- आपलोग कहां आये हैं? कलकत्ता में किसी अनजान के मुंह से हिन्दी सुन कर मन खुश हुआ। उन्हें शायद श्याम बाजार जाना था। उनसे हमलोगों ने जनसत्ता वाली बात बतायी तो उन्होंने हमें बता दिया कि यहां उतर कर बायीं तरफ सीधे चले जायें। दाहिनी ओर एक दुर्गा मंदिर मिलेगा, उसके पास ही बीके पाल एवेन्यू है। उन्होंने अपना नाम अक्षय उपाध्याय बताया। उनकी शुद्ध और स्पष्ट हिन्दी सुन कर तब मन को बड़ा सुकून मिला था। जब कलकत्ता रहने लगे, तब मालूम हुआ कि वह सेंट्रल एवेन्यू में खादी के कपड़ों की दुकान चलाते थे और कवि-लेखक के रूप में वहां उनकी पहचान थी। यह भी सुना कि उन्होंने किसी हिन्दी फिल्म के लिए गाने भी लिखे थे।
दिन भर हम लोग दफ्तर में रहे। कई जगहों से लोग आये थे, इसलिए पहला दिन मिलने-जुलने और जान-पहचान में ही चला गया। पहले ही दिन जो साथी मिले, उनमें पलाश विश्वास, सुमंत भट्टाचार्य, दिलीप मंडल, अनिल त्रिवेदी, गंगा प्रसाद, प्रकाश चंडालिया, साधना शाह, दिनेश ठक्कर, राजेश्वर सिंह, प्रमोद मल्लिक, प्रभात रंजन दीन, अरविंद चतुर्वेद, कृपाशंकर चौबे, मान्धाता सिंह, दीपक रस्तोगी, कृष्णा शाह (जो नाम याद आ रहे हैं) थे। उनमें सबसे एक्टिव सुमंत भट्टाचार्य दिखे। तब लगा कि वह शायद किसी बड़े ओहदे पर हैं, लेकिन बाद में पता चला कि वह तो मुझसे एक इंक्रीमेंट नीचे उपसंपादक बनाये गये थे। अमित प्रकाश सिंह समाचार संपादक और श्याम आचार्य संपादक बन कर आये थे।