विपक्षी एकता चुनाव से पहले संभव नहीं दिखती

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लोकसभा चुनाव के लिए हो रही विपक्षी एकता की कोशिश कितनी कामयाब होगी, यह तो समय बतायेगा, लेकिन एक बात साफ है कि अपने-अपने तेवर और अंदाज से कोई पीछे हटने को तैयार नहीं दिखता। Mayawati ने कल के प्रेस कांफ्रेंस में भाजपा पर विष वमन तो किया, लेकिन विपक्षी एकता के लिए सम्मानजनक समझौते की शर्त थोप दी। चेतावनी भी दे डाली कि अगर समझौता सम्मानजनक नहीं हुआ तो वह अकेले चुनाव मैदान में उतरेंगी।

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उधर लखनऊ में मायावती शर्त रख रही थीं तो दलितों के दूसरे रहनुमा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम माझी बिहार में राजद (RJD), कांग्रेस (Congress), हम (HAM) व एनसीपी (NCP) के महागठबंधन में अकेले लोकसभा की 20 सीटों पर लड़ने का दावा ठोक रहे थे। विपक्ष की यह स्थिति उन दो राज्यों में है, जिनके सहारे दिल्ली का रास्ता कोई दल तय करता है। यानी बिहार और उत्तर प्रदेश दो बड़े राज्य हैं, जिनमें दलों की स्थिति उनका दिशा और दशा तय करती है।

बिहार के हालात पर गौर करें तो विपक्षी एकता की धुरी बने राजद में ही तमाम तरह के मुश्किलात हैं। अव्वल तो लालू प्रसाद (Lalu Prasad) के जेल में जाने के बाद तेजस्वी को नेता मान कर अभी तक दल की एकता बरकार है। पर, उनके अपने ही घर में एकता नहीं दिखती। लालू के दूसरे लाल समय-समय पर अपना कमाल दिखाते रहते हैं। कभी पार्टी के नेताओं पर ही सवाल खड़ा करते हैं कि उनकी उपेक्षा की जा रही है तो कभी यह कहते हैं कोई माई का लाल नहीं, जो उन्हें पार्टी में दरकिनार कर सके। तनातनी का आलम यह है कि हफ्तेभर पहले राजद के वरिष्ठ नेताओं की हुई बैठक से वह नदारद रहे।

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राजद का एक बड़ा संकट यह है कि लालू प्रसाद की गैरहाजिरी में वरिष्ठ नेता लालू परिवार के तेजस्वी-तेज प्रताप जैसे जूनियर नेताओं को ढोने के लिए तैयार होंगे, इसमें संदेह है। अभी तक जगदानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, अब्दुल बारी सिद्दीकी जैसे नेता अगर राजद के साथ बने हुए हैं तो इसकी वजह पार्टी का जनाधार और लालू प्रसाद का नेतृत्व रहा है। लालू की गैरमौजूदगी में उनका मोह सिर्फ जनाधार का है। नेतृत्व के नाम पर नवेलों को वे स्वीकार शायद ही कर पायेँ। संकेत यही लगते हैं कि जितना हल्ला विपक्षी एकता के लिए मचा है, वह चुनाव से पहले संभव नहीं दिखती।

 

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