पटना। बिहार की राजनीति में अगला नवंबर का महीना काफी उथलपुथल भरा रहने वाला है। सीटों के बंटवारे के सवाल पर एनडीए में उल्लेखनीय घमासान मचने वाला है। अनुमान यही है कि बिहार एनडीए 2014 के स्वरूप में ही रहेगा। यानी चुनाव तीन ध्रुवों के बीच लड़ने के आसार बन रहे हैं। न नीतीश झुकने को तैयार हैं और भाजपा अपनी औकात से कोई समझौता करना चाहती है। ऐसे में ननीतीश और भाजपा की राह जुदा हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं। भाजपा के उच्चपदस्थ सूत्रों के मुताबिक लोकसभा में जदयू को 12 सीटों से ज्यादा देने के मूड में भाजपा नहीं है। दूसरी ओर नीतीश कुमार 20 से कम सीटों पर मानने को तैयार नहीं हैं। यही वजह है कि भाजपा और जदयू अपनी अलग-अलग तैयारियों में जुटे हैं। अल्पसंख्यक, सवर्ण, दलित-पिछड़ों और महिलाओं-युवाओं को एक साथ साधने की नीतीश के जदयू ने शुरुआत कर दी है। लालू प्रसाद के राजद को छोड़ उन्होंने दोबारा जब भाजपा के साथ सरकार बनायी तो माना यह जा रहा था कि अल्पसंख्यकों के बीच उनकी पकड़ कमजोर पड़ जायेगी। जदयू भाजपा की पिछलग्गू पार्टी बन कर रह जाएगी।
बताते हैं कि प्रशांत किशोर के जदयू में आने और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जैसा जदयू में वरिष्ठ पद मिलने के पीछे उनकी सुझायी रणनीति पर नीतीश ज्यादा भरोसा कर रहे हैं। प्रशांत के जदयू ज्वाइन करने के पहले नीतीश कुमार थोड़ी नरमी जरूर बरत रहे थे, लेकिन अब वह भाजपा की बराबर की गति से चल रहे हैं। भाजपा ने सीट समझौते के प्रयासों के बावजूद हर क्षेत्र में बूथ स्तर तक अपनी तैयारी जारी रखी है। प्रशांत ने भी नीतीश को सभी सीटों को ध्यान में रख कर काम करने की रणनीति बनायी है। यही वजह है कि जदयू के सारे फ्रंटल आर्गनाइजेशन अचानक सक्रिय हो गये हैं।
नीतीश के बोल भी याचक या कमजोर अब नहीं रह गये हैं। मुसलमानों के कार्यक्रम में चार-पांच दिन पहले ही उन्होंने साफ कर दिया था कि आप लोग तनिक भी न घबरायें। मैं जिस किसी के साथ रहूंगा, पर आप लोगों की चिंता करना मेरी जिम्मेवारी है। हालांकि इसके पहले भी उन्होंने एक बार कहा था कि कम्युनलिज्म, करप्शन और क्राइम से कोई समझौता कभी नहीं करूंगा। कम्युनलिज्म की बात कहने का उनका मकसद साफ है। लालू प्रसाद के राजद को छोड़ उन्होंने दोबारा जब भाजपा के साथ सरकार बनायी तो माना यह जा रहा था कि अल्पसंख्यकों के बीच उनकी पकड़ कमजोर पड़ जायेगी। जदयू भाजपा की पिछलग्गू पार्टी बन कर रह जाएगी।
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अपने रणनीतिकार के सुझाव के बाद ही नीतीश ने गुजरात के मंत्री के साथ प्रस्तावित बैठक त्योहारों का कारण बताते हुए ऐन वक्त पर रद्द कर दिया। अगर त्योहार ही कारण था तो संभावित तारीख का भी ऐलान होता। दरअसल नीतीश को गुजरात में बिहारियों पर हमला नागवार गुजरा है। उन्होंने खुल कर इस मुद्दे पर अभी तक कुछ नहीं कहा, सिवा इसके कि उन्होंने वहां के मुख्यमंत्री रूपाणी से बात की है। नीतीश के मिजाज को भांपने-जानने वालों को यह अच्छी तरह पता है कि हर बार उनकी कामयाबी के पीछे गुजरात बड़ वजह रही है। तीन मौकों पर उन्होंने नरेंद्र मोदी का विरोध किया और बिहार की जनता ने उन्हें सिर-आंखों पर बिठाया। कभी गुजरात दंगों के कारण वह नरेंद्र मोदी के धुर विरोधी रहे तो, कभी बाढ़ राहत का इश्तेहार अखबारों में छपवाने पर नाराजगी जतायी। मोदी से उनकी खुन्नस इतनी गहरी रही है कि जब भाजपा ने मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो उन्होंने बिहार में वर्षों से भाजपा के साथ चल रहे गठबंधन को तोड़ दिया। उन्होंने सरकार दावं पर लगा दी, बनिस्पत नरेंद्र मोदी के समर्थक दल कहलाने के।
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जिस तरह सवर्ण भाजपानीत एनडीए से खफा हैं, उसका लाभ उठाने की तरकीब भी नीतीश ने निकाल ली है। प्रशांत किशोर को पार्टी के दूसरे नेताओं से ज्यादा तरजीह देकर उन्हें उपाध्यक्ष बनाने की रणनीति सवर्णों को साधने का हिस्सा माना जा रहा है। दलित और अल्पसंख्यकों को तो वह पहले ही साध चुके हैं। फिलवक्त उनसे लगाव पर जो संशय है, उन्हें उसे ही दूर करना है, जिसकी कवायद भी उन्होंने शुरू कर दी है।
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