पटना। लोकसभा में तीन सदस्यों वाली पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालेसपा) प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा बार-बार दोहरा रहे हैं कि वह एनडीए में थे, हैं, और रहेंगे। वह वादा भी कह रहे कि 2019 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में होने वाले लोकसभा चुनाव में भी एनडीए के साथ ही रहेंगे। इसके बावजूद वह अपने बयानों और कामों से एनडीए को कठघरे में खड़ा करने से बाज नहीं आ रहे। लगता है कि वह एनडीए की खटिया खड़ी कर ही दम लेंगे। दो दिन पहले उन्होंने मध्यप्रदेश के लिए अपनी पार्टी के उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी। एनडीए में होने के नाते उन्हें भाजपा के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारने चाहिए थे। इसलिए कि वहां भाजपा सत्ता की दावेदार है। उसने अपनी सत्ता बचाने के लिए तमाम ताकत झोंक दी है। उन्होंने पहली सूची में 66 उम्मीदवारों के नामों की घोषणा की और कहा कि अभी और नाम तय करने हैं।
कुशवाहा ने एनडीए की कार्यशैली पर भी दबी जुबान सवाल उठाये। उन्होंने कहा कि बिहार में एनडीए की सरकार बनी, लेकिन रालोसपा के एनडीए में होने के बावजूद सरकार में कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला। यह बात उन्होंने कही तो आहिस्ते से, लेकिन इसी बहाने अपने मन की खटास और पीड़ा भी उड़ेल दी।
उससे पहले, जिस दिन नीतीश कुमार और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस कर यह घोषणा कर रहे थे कि बिहार में लोकसभा सीटों की संख्या एनडीए के सभी घटक दलों के सम्मान का ख्याल करते हुए बंटेगी और भाजपा-जदयू बराबर-बराबर सीटों पर लड़ेंगे, उसी वक्त संयोगवश कहें या तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक उपेंद्र कुशवाहा आरजेडी नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के साथ अरवल के सर्किट हाउस के बंद कमरे में चाय पी रहे थे। मुलाकात का ब्योरा न तेजस्वी ने दिया और न कुशवाहा ने। तेजस्वी ने यह कह कर मुलाकात के मकसद के सवाल को टाल दिया कि कुशवाहा को तो आरजेडी पहले भी अपने साथ आने का न्योता दे चुका है। दूसरी ओर कुशवाहा ने दिल्ली के अपने प्रेस कांफ्रेंस में सफाई दी कि मैं तेजस्वी के पास चाय पीने नहीं गया था, बल्कि वह मेरे कमरे में चाय पीने आये थे। मुलाकात को उन्होंने संयोगमात्र बताया।
सरदार पटेल की जयंती के अवसर पर पटना में एक कार्यक्रम में उन्होंने एक नया शिगूफा छोड़ा। उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार 2020 के बाद मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के इच्छुक नहीं हैं। उन्होंने कहा है कि इतनी लंबी अवधि तक मुख्यमंत्री रह लिये, अब आगे रहने की इच्छा नहीं है। हालांकि आधिकारिक तौर पर जदयू के किसी नेता या नीतीश कुमार ने इस बात की पुष्टि नहीं की है। कुशवाहा के इस कथन में कितनी सच्चाई है, यह तो वही जानें, पर इससे भ्रम की तो स्थिति वाकई बिहार एनडीए में पैदा हो गयी है।
कुशवाहा इसके पहले भी अपने बयानों से सुर्खियां बटोर चुके हैं। उन्होंने कई जगहों पर सभाओं में अपनी खीर पालिटिक्स की बात कही। उनकी पसंदीदा खीर के लिए यादव, कुशवंशी, दलित और सवर्णों का एक साथ आना जरूरी है। यादवों का दूध, कुशवंशियों का चावल, दलितों का तुलसी दल और सवर्णों का मेवा मिला कर स्वादिष्ट खीर बनाने की विधि उन्होंने सुझायी। तेजस्वी यादव ने इसे अपनी सहमति भी दे दी, इस संभावना से कि कुशवाहा राजद के साथ आना चाहते हैं।
एनडीए से उनके कोफ्त को इससे भी समझा जा सकता है कि केंद्र और राज्य में जिस एनडीए की सरकार है, उसके खिलाफ वह हल्ला बोल, दरवाजा खोल का अभियान चला रहे हैं। कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि कुशवाहा एनडीए नेताओं के मुंह में अंगुली डाल कर बोलने के लिए विवश कर रहे हैं। संभव है कि यह उनकी किसी रणनीति का हिस्सा हो। यह भी संभव है कि चर्चा में बने रहने के लिए वह टेढ़े रुख अपना रहे हैं।
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वैसे भाजपा के लिए कुशवाहा या पासवान जैसे छोटे घटक दलों को इग्नोर करना एनडीए की सेहत के लिए अच्छा नहीं माना जायेगा। राजनीतिक इतिहास में ऐसा भी उदाहरण मिला है कि रामविलास पासवान के छिटक जाने से वाजपेयी सरकार को पराजय झेलनी पड़ी थी। फिलवक्त हवा का रुख 2014 की तरह भाजपा के अनुकूल नहीं है। ऐसे में उसके लिए हर छोटे-बड़े सभी घटक दल महत्वपूर्ण हैं। उपेंद्र कुशवाहा की एक टीस यह भी है कि 2 सीटें जीतने वाली पार्टी के नेता को बराबरी का सम्मान और 3 सीट जीतने वाली रालोसपा के नेता को न बिहार सरकार में जगह और न प्रेस कांफ्रेंस के दौरान उसकी आवश्यकता किसी को महसूस हुई। प्रसंगवश यह भी जान लें कि प्रेस कांफ्रेंस के बाद वह हाल-चाल जानने के बहाने लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के नेता रामविलास पासवान के घर भी घूम आये।
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