वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की, संस्मरणों पर आधारित प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- की धारावाहिक कड़ी लगातार आप पढ़ रहे हैं। इस पर अपना फीडबैक आप उनके मेल आईडी- [email protected] पर भेज सकते हैं
उम्र के जिस पड़ाव पर बुढ़ापे का सरकारी सनद मिलता है, उससे कुछ ही फासले पर खड़ा हूं। अगले वर्ष वह शौक भी शायद पूरा हो जाये। शायद शब्द ने यकीनन आपको हैरत में डाल दिया होगा, पर सच यही है दोस्तो, जिसे मैंने सहज स्वीकार लिया है, शायद के सहारे। पास बैठे कब गुजर गये या साथ खड़ा व्यक्ति कहां गया, कौन कब चला जाये, इस जिज्ञासा-आशंका से इसी यथार्थ का तो बोध होता है। यानी मैं बीस बरस पहले मसलन चालीस से कुछ महीने कम उम्र का तब रहा होऊंगा। बात अगस्त 1997 से जून 1999 की कर रहा हूं। बढ़ती उम्र के साथ समृति दोष संभावित है। भरसक स्मृति के इस दोष से बचने का प्रयास कर रहा हूं। सभी साथी कंप्यूटर पर काम करें, इसका श्रेय पटना प्रभात खबर में मुझे ही जाता है, यह मैं गर्व के साथ कहता-मानता हूं और मेरे तब के साथी भी इसे बेमन से ही सही, कबूल जरूर करते होंगे।
तब प्रभात खबर के पटना दफ्तर में अजय कुमार (फिलवक्त स्टेट एडिटर, बिहार) और रजनीश उपाध्याय (अभी प्रभात खबर, मुजफ्फरपुर के संपादक) को छोड़ डेस्क या रिपोर्टिंग का कोई भी साथी कंप्यूटर पर काम करने को केवल आपरेटरों का एकाधिकार समझता था। मैंने यह कला मजबूरी में ही सही, पर छह साल पहले जनसत्ता के कोलकाता संस्करण में काम करते हुए सीख ली थी। इसे मेरी दूरअंदेशी कहिए या चमड़े का सिक्का चला देने के अधिकार के साथ मिली सल्तनत का कमाल, मैंने संपादकीय के हर विभाग के साथियों के लिए कंप्यूटर सीखने को अनिवार्य बनाने का नोटिस निकाल दिया। इसके लिए महीने भर की मोहलत दी। हर हफ्ते रिमाइंड भी करता रहा कि अब इतने दिन और बचे हैं, महीना शेष होने में। जो साथी कंप्यूटर पर काम नहीं करेंगे, उनकी जरूरत नहीं रहेगी।
मेरे इस नोटिस का असर हुआ। एक-दो को छोड़ तकरीबन सभी साथी कंप्यूटर पर काम करने लगे थे। मसलन खबर लेखन से संपादन तक का काम संपादकीय के साथी कंप्यूटर पर करने लगे। रिपोर्टिंग के एक साथी रघुवीर राय जी (अब दिवंगत) ने मेरी नोटिस को गंभीरता से नहीं लिया। रिमाइंडर को भी सिरे से खारिज करते रहे। महीना पूरा हो गया और वे कंप्यूटर पर नहीं बैठ पाये। इसी बीच हरिवंश जी आये तो तो मैंने इसकी जानकारी उन्हें दी। उन्होंने कहा कि ठीक है, मैं बात करता हूं। पता चला कि रघुवीरजी को बुला कर हरिवंश जी ने उनका हिसाब करा दिया। जितना मुझे याद है, रघुवीर जी काफी सुलझे व्यक्ति थे और तब शायद भाजपा की बीट देखते थे। कद-काठी में दबंगता थी। इससे एक संदेश साथियों में साफ-साफ गया कि जिनके नेतृत्व में आप काम कर रहे हैं, उनकी इच्छा के विरुद्ध आप नहीं चल सकते।
कंप्यूटर सीखने का प्रसंग आया तो मिथिलेश कुमार सिंह (जिन्हें आज भी मैं बड़े भाई से ज्यादा लंगोटिया यार की तरह पाता हूं) का जिक्र न करना बेईमानी होगी। वे भी कंप्यूटर से कतराते रहे। पर, सख्ती की वजह से आखिरी हफ्ते में वह कंप्यूटर पर बैठने लगे थे। अलबत्ता उनकी स्पीड किसी ककहरा सीखने वाले बच्चे की मानिंद थी। वह उम्र दो साल और अध्ययन में हमसे काफी आगे थे। उनके ज्ञान और लेखन शैली का आज भी मैं कायल हूं। राष्ट्रीय सहारा, पटना के संपादक पद पर दो साल रहे, फिर रिटायरमेंट के अंतिम दिनों में साल भर के लिए वह दिल्ली लौट गये थे। इसलिए कि उनका परिवार वहीं रहता था।
तब कंप्यूटर सेक्शन अलग होता था। आज की तरह हर टेबल या डेस्क पर कंप्यूटर नहीं होते थे। कंप्यूटर रूम में ही बैठ कर मिथिलेश जी सीखने लगे, बल्कि यह कहें कि अपना काम करने लगे। डेस्क के काम के अलावा उनके जिम्मे रोज एक संपादकीय लिखने का दायित्व था। तब दो संपादकीय जाते थे। एक रांची में लिखा जाता और दूसरा मिथिलेश जी लिखते। रांची में खुद हरिवंश जी या संपादकीय पेज प्रभारी श्रीनिवास जी एक संपादकीय लिखते और दूसरा मिथिलेश जी का होता। मिथिलेश जी के लिखे संपादकीय की भाषा-शैली इतनी जानदार होती कि मैं अक्सर उनसे कहता कि आप कहानी लिखिए। उसमें ज्यादा सफल होंगे। हालांकि उन्होंने अाज तक मेरे सुझाव पर अमल नहीं किया।
मिथिलेश जी ने संपादकीय से कंप्यूटर सीखने की शुरुआत की। एक अंगुली से खोज-खोज कर की दबाते। कोई अक्षर या मात्रा नहीं मिलने-दिखने पर उस वक्त के कंप्यूटर आपरेटर राजेश से पूछते- अरे राजेश, अनुस्वार कहां है रे। वह अपनी सीट पर ही बैठे-बैठे बताता- भैया, एक्स दबाइए। इसके साथ ही वह भुनभुनाते हुए मेरे सात पुस्त को अपने शब्दकोश की चुनिंदा गालियों से तारते रहते। एक बार मैंने सुन भी लिया था। हालांकि बाद के दिनों में उन्होंने बताया था कि अपने जीवन में अश्क का अगर कोई बड़ा एहसान मानता हूं तो वह है कंप्यूटर सीखने की मजबूरी। अगर कंप्यूटर तब नहीं सीखा होता तो शायद बाद के दिनों में पत्रकारिता मेरे वश की बात नहीं होती। दवा कड़वी होती है, पर नीरोगी होने का सुख भी वही प्रदान करती है। साथियों के कंप्यूटर सीखने की मेरी सख्ती का आकलन भी किसी तुगलकी फरमान के बजाय अगर कड़वी दवा के रूप किया जाये तो यह ज्यादा मुनासिब होगा।
हां, तो पटना प्रभात खबर से पंचोली जी की अघोषित विदाई से मुझे दुख से ज्यादा सुकून मिला था। इसलिए कि अनुत्पादक व्यक्ति संस्थान का हित साधक नहीं होता है। अलबत्ता रघुवीर जी का जाना मुझे काफी दुखी कर गया। बाद में पता चला कि वह हरिवंश जी के वह काफी प्रिय थे। अपने अधीनस्थ की हुक्म उदूली की सजा अपने ही प्रिय पात्र को देकर हरिवंश जी ने बड़ी सीख मुझे दे दी। उनका मानना था कि जिसको जिम्मेवारी सौंपी है, उसके आदेश को नकारना अनुशासनहीनता है। अपनत्व के कारण अगर वह उनको बनाये रखते तो इसका संदेश साथियों में कैसा जाता, आप सहज अनुमान लगा सकते हैं। तब तो यही कहा जाता कि अश्क के चिचियाने से कुछ नहीं होने वाला। अनुशासन टूट जाता। कारोबार खबर के दिनों से ही मैं उनको समझ गया था कि जो जिम्मेवारी जिसे सौंपते हैं, उसमें वह टांग नहीं अड़ाते। उसे योजना बनाने और उस पर अमल करने का पूरा अधिकार देते रहे। यह गुण बाद के दिनों में भी उनमें बना रहा।
प्रसंगवश, कारोबाार खबर शुरू करने के पहले की बात है। एक दिन कोलकाता में मैं और हरिवंश जी मेट्रो स्टेशन के प्लेटफार्म पर खड़े थे। उन्होंने कहा कि अश्क, एक मेरा भांजा है। उसके पिता जी नहीं हैं। ग्रेजुएशन कर चुका है। उसके लिए कहीं कोई काम देखना। मैंने कहा कि कारोबार खबर में ही रख लेते हैं। उन्होंने तपाक से मना किया कि भूल कर भी ऐसा मत करना। आगे भी यह ध्यान रखना कि अपने नाते-रिश्तेदारों को कभी साथ मत रखना। इसके वाजिब कारण भी उन्होंने बताये। कहा कि मान लो तुमने अपने भाई या भतीजे को रख लिया। वह बीमार होगा तो तुम उसकी देखरेख में लगोगे और तुम बीमार हुए तो वह तुम्हारी तीमारदारी में लगेगा। यानी एक के कारण दूसरे को भी छुट्टी लेनी पड़ेगी। उसके लिए तुमसे इसलिए कहा कि तुम्हारी जान-पहचान बिजनेस घरानों से है। उनके यहां कोई जगह मिल जाये तो कोशिश करना। इस सीख का मैंने अब तक पालन किया है। (जारी)
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