वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क ने पत्रकारिता में रहते हुए समाज सेवा में भी बड़ी भूमिका निभाई है। कोलकाता में उनके सामाजिक सरोकारों का जिक्र उनकी प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- में दिखती है। उनके सामाजिक कार्यों को रेखांकित करती आज की कड़ी
कामयाबी की कहानी अगर अपने जीवन की कहूं तो इसमें कोलकाता का सबसे बड़ा योगदान है। चिकनी सड़कों पर चलते सभी को देखा-सुना-पाया है, पर ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर जो चल कर आगे बढ़ा हो, वास्तविक अर्थों में कामयाब उसे ही कहते हैं। मैं खुद को ऐसी ही राह का राही मानता हूं। खुद को देखता हूं तो कोलकाता में न सिर्फ एक पत्रकार की भूमिका में अपने को पाता हूं, बल्कि एक समाजसेवी की झलक भी मेरे अंदर दिखती है। कई ऐसे उदाहरण गिनाने को मेरे पास हैं, जब मैंने समाजसेवा की ओर कदम बढ़ाया और समाज ने भी दिल खोल कर साथ दिया। मेरा अपना मानना है कि जब सरकार सहयोग करने में अपने को असहाय मानने लगे, तब समाज ही साथ देता है।
कोलकाता में पत्रकारिता करते मैंने एक अभियान चलाया हिन्दी स्कूलों में। हिन्दी स्कूलों के जिन छात्रों ने मैट्रिक और इंटरमीडिएट की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी और आर्थिक रूप से उनके अभिभावक आगे की उनकी पढ़ाई के लिए सक्षम नहीं थे, वैसे छात्रों को सम्मानित करने का। उन्हें आर्थिक सहायता देकर आगे की पढ़ाई सुनिश्चित कराने का। उन दिनों अखबार ऐसे काम नहीं करते थे। मैंने टाप मैनेजमेंट को सुझाव दिया था कि ऐसा कोई ट्रस्ट बना दिया जाये, जिसमें समाज से मैं धन संग्रह करूंगा और छात्रों की पढ़ाई के लिए उससे सहयोग किया जाएगा। प्रबंधन को शायद मेरा यह प्रस्ताव नहीं जंचा। तब मैंने कुछ लोगों को लेकर हिन्दीभाषियों का एक एनजीओ बनाया और उसके जरिये सहयोग की ठानी।
सहयोग के इस काम में अपरोक्ष तौर पर धन संग्रह का काम मेरा था और प्रभात खबर उसका मीडिया पार्टनर होता। मेरे इस तरह के काम में सर्वाधिक सहयोग बसंत कुमार बिरला का रहा। श्री सीमेंट के मालिक ने भी एक बार 75 हजार रुपये का योगदान दिया था। इस काम में मेरा हिडेन एजेंडा प्रभात खबर का प्रचार करना था। संगोष्ठियां भी आयोजित होती थीं, जिसमें प्रो. अमरनाथ (कलकत्ता यूनिवर्सिटी के तब प्रोफेसर), कृपाशंकर चौबे (संप्रति महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर), डा. मोहन (अभी दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर), चंद्रकला पांडेय (तब राज्यसभा सदस्य और कलकत्ता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर), दिनेश चंद्र वाजपेयी (डीजीपी से अवकाश लेने पर बंगाल लोकसभा के सदस्य) जैसे वरिष्ठों की सहभागिता सामान्य बात थी।
अपने समाजसेवा के कामों का उल्लेख करते समय मैं दो घटनाओं का उल्लेख करना चाहूंगा। एक दिन सुबह लुंगी-गंजी पहने एक आदमी ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी। दरवाजे पर गया तो उसने बांग्ला में बताया कि उसका बच्चा बीमार है, हार्ट में प्राब्लम है, इलाज कराना है। मदद की जरूरत है। ऐसे लोग अक्सर बंगाल में शनिवार-रविवार को बहुतायत मिल जाते हैं। मैंने जेब में हाथ डाला तो 20 रुपये थे। मैंने उसे दिया तो उसने लेने से मना किया और कहा कि आप से बात करने आया हूं। मैंने उसे अंदर बुला कर बिठा लिया। उसने बताया कि वह रिक्शा चला कर अपना परिवार पालता है। उसके 12 वर्षीय बेटे के दिल में छेद जैसी कोई बीमारी है। पहले स्थानीय डाक्टरों को दिखाया, फिर उसे कलकत्ता मेडिकल कालेज में दिखाया। डाक्टर ने कहा है कि जितनी जल्दी हो, आपरेशन करा लो, वर्ना बाद में यह गंभीर हो जायेगा और बच्चे की जान भी जा सकती है। उसने सारे कागजात मेरे सामने रख दिये।
मैं डाक्टर तो था नहीं, जो सारी बातें पर्ची से समझ पाता। उसने इलाज करने वाले एक डाक्टर का नाम बताया। फिर किसी तरह उस डाक्टर का मोबाइल नंबर तलाश कर मैंने उन्हें फोन किया और बीमारी की गंभीरता के बारे में पूछा। डाक्टर ने कहा कि रोज सैकड़ों पेसेंट आते हैं, इसलिए बता नहीं सकता, पर अगर समय दिया है तो निश्चित ही बीमारी गंभीर होगी। मैंने उस आदमी से कहा कि कल अपने बच्चे को लेकर आये।
अगले दिन वह फिर उसी वक्त पहुंचा। साथ में बच्चा भी था। बच्चे को इसलिए बुलाया था कि उसका बाप कहीं झूठ तो नहीं बोल रहा। मेरा आवास तीसरे तल्ले पर था। लिफ्ट नहीं है, इसलिए उसे सींढ़ी से आना पड़ा। ऊपर आने के बाद मैंने बच्चे की हालत देखी। शायद उत्साह में उसने जल्दी-जल्दी सींढ़ी चढ़ने की कोशिश की थी, इसलिए हांफ रहा था। मुझे बड़ा अपराध बोध हुआ। उसे बिठा कर पानी पिलाया, बिस्किट खिलाया। अब मुझे यकीन हो गया था कि वास्तव में उसे गंभीर बीमारी है। मैंने उसके बाप से बच्चे की फोटो मांगी। फोटो उसके पास नहीं थी, लेकिन मेडिकल के लिए किसी चैरिटी अस्पताल का आई कार्ड था, जिसमें उसकी मासूम- सी तस्वीर लगी थी। मैंने वह कार्ड ले लिया कि अगले दिन लौटा दूंगा। उसे अगले दिन अकेले आने को कहा।
घर से दफ्तर पहुंचने में ट्रेन और मेट्रो से मुझे घंटे भर का समय लगता था। इस दौरान सोचता रहा कि कैसे उसकी मदद करूं। किसी से खुद पैसे मांगू या कोई और तरीका हो सकता है। अंततः मैंने एक खबर बनायी। आपरेशन का खर्च सरकारी हास्पिटल ने 35 हजार बताया था और निजी अस्पताल में 75 हजार रुपये खर्च आता। खबर का कंटेंट अब तक याद है। मैंने लिखा कि आपके कुछ रुपये इस मासूम बच्चे की जान बचा सकते हैं। आप पान-बीड़ी-सिगरेट-गुटखा और दूसरी गैरजरूरी चीजों पर जितना खर्च करते हैं, उसमें कटौती कर सहयोग कर सकते हैं। प्रभात खबर सिर्फ माध्यम है, आप सहयोग की राशि एनजीओ (जो मेरी देखरेख में ही चलता था) को भेज सकते हैं। संपर्क के लिए मैंने अपना नंबर दिया। खबर मेरे नाम से पहले पेज पर ऐंकर छपी।
अगले दिन मुझे उम्मीद थी कि मेरी साख और बच्चे की मासूमियत को देख लोग जरूर सहयोग के लिए आगे आयेंगे। दुर्योगवश मेरा मोबाइल रात में डिस्चार्ज होकर बंद हो गया था। बच्चे का बाप आया, तब तक कहीं से कोई फोन मेरे पास नहीं आया था। मुझे अपनी साख पर आश्चर्य हो रहा था कि मेरे लिखने पर भी लोग मदद के लिए आगे नहीं आये। मैंने दुखी मन से उसे यह कर जाने को कहा कि कल कोई इंतजाम जरूर हो जायेगा। मेरे इस जरूर शब्द के पीछे आत्मविश्वास का भाव यह था कि कुछ व्यवसायी लोगों से जरूरत बता-समझा कर मांगूंगा।
उसके गये पांच मिनट ही हुए होंगे कि मैंने मोबाइल उठाया कुछ लोगों से इस मुद्दे पर बात करने के लिए। देखा फोन स्विच आफ है। फिर चार्ज में लगा कर बाथरूम फ्रेश होने के लिए चला गया। लौट कर नाश्ते से पहले मैंने मोबाइल आन किया।
कब क्या हो जाये, कोई नहीं जानता। फोन आन करते ही पहला रिंग हुआ। हावड़ा से एक समाजसेवी और ऐड एजेंसी सुरेश भुवालका का फोन था। उन्बोंने बिना किसी भूमिका के कहा कि 6700 रुपये मैं अपनी संस्था की ओर से भेज रहा हूं। अभी उनसे बात हो ही रही थी कि कालवेटिंग में एक नंबर आया। उनका फौन काट कर मैंने उसे रिसीव किया। उधर से आवाज आयी, मेरा नाम एम जैन है। मैं रोज सन्मार्ग पढ़ता हूं। आज हाकर ने प्रभात खबर दे दिया और उसमें पहली खबर आपकी पढ़ी। आप उस बच्चे का इलाज बढ़िया अस्पताल में करायें, पूरे खर्च मैं उठाऊंगा। मैंने उनसे कहा कि ठीक है अस्पताल से बात कर शाम तक बताऊंगा। इसी बीच एक और नंबर काल वेटिंग में दिखा- कमल गांधी का। कमल गांधी तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु के बेटे के करीबी थे। उनका फोन रिसीव करते ही उनका एक लाइन का संदेश था, मैं 25 हजार रुपये का चेक भेज रहा हूं। आगे कुछ कहता, इससे पहले ही उन्होंने फोन काट दिया। उसके बाद खई फोन आये, जिन्होंने मदद का आश्वासन दिया। मैंने सबके नाम नोट कर लिये।
मेरी खुशी का पारावार नहीं। नाश्ता-खाना सब भूल गया। तैयार होकर आफिस के लिए निकल गये। आफिस जाने पर पता चला कि वहां भी कई लोगों ने फोन किया था। सबके नंबर पर फोन कर उनसे मदद की रकम नोट कर ली। हिसाब किया तो पपौने चार लाख रुपये की मदद की पेशकश आ चुकी थी। (आगे क्या हुआ, पढ़ें कल)
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