पाहन ला देवहु दस रुपया, नहीं दिया तो जान पर आफत आ गयी

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भीड़ में किसी ने गाड़ी के टार पर धारदार हथियार से हमला कर दिया। टायर पंक्चर
भीड़ में किसी ने गाड़ी के टार पर धारदार हथियार से हमला कर दिया। टायर पंक्चर
  • मंगलेश तिवारी मुफलिस

पाहन ला देवहु, दस रूपया। नहीं दिया तो जान पर आफत आ गयी। किसी तरह 50 रुपये दंड और 100 रुपये की बख्सीश देकर बचे। घटना सारंडा जंगल की है। ओड़िशा और झारखंड के बार्डर इलाके में सफर करने वाले एक पत्रकार मंगलेश तिवारी मुफलिस ने अपनी व्यथा का वर्णन फेसबुक पर किया है। आप भी पढ़ें, उन्हीं के शब्दों में-

पाहन ला देवहु, दस रूपया। शराब के नशे में धुत एक 65 वर्षीय वृद्ध के मुंह से निकले ये शब्द इतने खतरनाक साबित होंगे, हमने कल्पना भी नहीं की थी। हम ओजडिशा के सुदूर ग्रामीण इलाके में अति नक्सल प्रभावित सारंडा के घने जंगलों में करीब 60 किलोमीटर अंदर थे।

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सिंगल रोड देखकर पहले ही हमारे साथियों ने इस रास्ते से नहीं चलने का मन बनाया। लेकिन, मैंने अनुरोध ठुकरा दिया। हालांकि सोचने में रोमांचकारी लगने वाली यह यात्रा बहुत ही खतरनाक यात्रा साबित हुई। 60 किलोमीटर की यात्रा के बाद हम लोग झारखंड और ओड़िशा की सीमा पर मौजूद सुंदरगढ़ जिले के कुआरमुंडा इलाके में थे। हमने पढ़ा था कि इन जंगलों पर नक्सलियों का राज है। इसके आसपास इलाक़ों जैसे खूंटी, गुमला, लोहरदग्गा, सिमडेगा और लातेहार में माओवादियों से अलग हुए धड़ों का भी असर है। लेकिन, हमारे दिमाग में यह बात नहीं रही कि हम उसी इलाके में हैं।

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इसका पहली बार आभास तब हुआ, जब बहुत हॉर्न देने के बाद भी गंवई बाजारों पर खड़े लोग साइड नहीं दे रहे थे। ऐसा अमूमन हमारे इलाके में कम ही होता है। इसलिए डर लगने लगा था। फिर भी हम आगे बढ़ते जा रहे थे। पहाड़ों के बीच से बने रास्तों में हम जितनी तेज गाड़ी चला सकते; चला रहे थे। पहाड़ों के पीछे सूरज डूबने को बेकरार था। इधर, रास्ता खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। हम जानते थे कि पहाड़ों में रात जल्दी हो जाती है। इसलिए जल्दबाजी में हम गांव के रास्ते को पार कर मुख्य सड़क पर आना चाहते थे।

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अंधेरे का आगोश बढ़ते जा रहा था। अंततः अचानक ही सूरज डूब गया। रास्ते में गांव मिलते। एकाध दुकानें दिखती। दो चार लोग दिखते। कहीं भी बिजली नहीं थी। ड्राइवर को लेकर हम पांच लोग थे। जिनमें मुझे छोड़कर कोई बाइ-रोड राउरकेला नहीं गया था। रांची से राउरकेला जाते हुए हम जिस रास्ते से गुजरे थे वह थोड़ा खराब था। ड्राइवर कम उम्र का था। ड्राइविंग तो ठीक कर रहा था लेकिन, पहाड़ व जंगलों के लिए अनुभवहीन था। रास्ता भटकने का डर न हो। इसलिए हमने गूगल बाबा का सहारा लिया था। गूगल के अनुसार राउरकेला से झिरपानी होते हुए एक रास्ता निकल रहा था जो कोयल नदी पर बने पुल पार करने के बाद नदी के किनारे-किनारे गांव के रास्ते होते हुए तोरपा तक ले जाता था। तोरपा से पहले सम्भवतः कोलिबेरी नामक जगह पर वह रोड मुख्य सड़क को जुड़ता था। फिर मुख्य सड़क खूंटी जिले के रास्ते रांची तक ले जा रही थी। हमने सोचा कि रात है तो गांव के रास्ते ही चलना ठीक होगा। हालांकि यह मेरी बहुत बड़ी भूल थी। क्योंकि हमारे भेजे में यह बात नहीं आई कि इस रास्ते मे सारंडा के जंगलों वाले गांव हैं। जहां आज भी आदिवासी और आदिम जनजातियाँ निवास करती हैं। खैर, चूंकि गांव के रास्ते राउरकेला से रांची तक जाने का फैसला मेरा ही था, इसलिए हम इस पर कोई तर्क न देना चाहते थे ना ही सुनना।

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अंधेरा घना हो गया था। इधर गाड़ी में पेट्रोल कम ही बचा था और रास्ता भी थोड़ा खराब मिल रहा था। खुटगांव और उर्मि होते हुए हम करीब 15 किलोमीटर और बढ़े तो सिग्लन लॉस्ट होने से गूगल मैप क्रैश कर गया। नेटवर्क गायब। अब रास्ते का भी नहीं पता नहीं चल पा रहा था। पीछे लौटने का विकल्प हम बहुत पहले ही छोड़ चुके थे। गाड़ी में 67 किलोमीटर जाने तक का ईंधन था। चुकी इंटरनेट के अनुसार अब हम तोरपा से महज 28-30 किलोमीटर दूर थे। इसलिए हमारी कोशिश भी यही थी कि पीछे 80 किलोमीटर जाने का कोई मतलब नहीं है। हालांकि नेटवर्क गायब होने से रास्ता पहचानना मुश्किल होने लगा। गांव में एक जगह कई रास्ते दिखने लगते। अब यह निर्णय नहीं हो पा रहा था कि हम किस रास्ते से जाएं। कोई रास्ते में मिलता भी नहीं जिससे कुछ पूछ सकें। हम सभी अब बहुत डरने लगे थे। जंगलों में रात को अनजाने आवाज से डर बढ़ते जाता है। यहीं हो भी रहा था। पेट्रोल कम जले इसलिए हमने गाड़ी का एसी बंद कर दिया था। शीशे खुले थे। अब भी हम बहुत तेजी से भागे जा रहे थे। ताकि जल्द से जल्द मुख्य रास्ते पर पहुँच जाएँ। क्योंकि मुख्य सड़क पर पहुँचे बगैर हमारी सांसे अटकी पड़ी थी।

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अचानक बीच सड़क पर एक वृद्ध दिखा। उसपर लाइट या हॉर्न का प्रभाव नहीं था। हमने उसे रास्ते से हटने के लिए कहा। लेकिन, एक झटके में वृद्ध ने गाड़ी में अपना हाथ फंसा लिया। हमारे पास उसे घसीटने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। क्योंकि हमने सुना था कि सुनसान रास्तों में यात्रियों को लूटने के लिए लुटेरे बच्चे, महिला या वृद्ध को ऐसे ही रोड पर भेज देते हैं फिर गाड़ी रोकते ही लूटपाट करते हैं। इसलिए मेरा निर्णय भी यही था कि बुड्ढा को घसीट कर आगे निकला जाय। लेकिन, न चाहते हुए भी हमारे सहयात्रियों की उदारता के कारण हम उसकी बात सुनने समझने को मजबूर हुए। यहाँ एक बात बताना जरूरी है कि जब भी आप लंबे सफर में जाएँ तो आपके सहयात्री ऐसे होने चाहिए जिनमें कोऑर्डिनेशन अच्छा हो। केमिस्ट्री खराब होने से बहुत दिक्कत होती है। हमारी परेशानी की यह भी एक बड़ी वजह रही। हमारे सहयात्री इस बात की गंभीरता को समझ नहीं पा रहे थे कि जब हमने कहा कि आगे बढ़ना चाहिए तो वे वृद्ध की बात समझने लगे। उसने कहा: *पाहन ला देवहु दस रुपया*  इस शब्द का अर्थ हमे पता नहीं था। पुनः पूछा कि क्यों दें..? तो उसने वहीं बात दुहरायी। इस बार पाहन शब्द सुनने पर हमने कहा कि हम तुम्हारे पाहुन हैं। हमही को दे दो न बीस रुपये। इसी पर वह बुड्ढा चिल्लाने लगा। मुझे लगा यह लूट गैंग वाला ही है। दस रुपये देने के लिए जब पर्स निकालेंगे तो छीनाझपटी शुरू होगी। अतः हमने ड्राइवर को आगे बढ़ने को कहा। लेकिन, इतने में वह बुड्ढा अधिक शोर मचाने लगा।

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हमने वहाँ से भागने की नाकाम कोशिश की। चंद सेकेंडों में हमने पाया कि 40 से अधिक पारंपरिक हथियारों से लैस ग्रामीणों से हम घिरे हुए हैं। ग्रामीणों की संख्या बढ़ने लगी। मुझे जबरन गाड़ी से उतार लिया। यह देख हमारे अन्य साथी भी उतर गए। अब भी वह बुड्ढा उड़िया भाषा मे लोगों को एकत्रित करने के लिए चिल्लाए जा रहा था। चूँकी छह वर्ष पहले मैं एक वर्ष तक उड़ीसा में रहा था। इसलिए मैं भाषा समझ सकता था। हालांकि, बोलने की आदत छूट गयी थी। मैं टूटी-फूटी भाषा ही बोल पा रहा था। थोड़ी ही देर में करीब 150 की संख्या में ग्रामीण जुट गए। सब के अलग सुर थे। हम बुरी तरह फंस चुके थे। अक्ल फेल हो गई थी। हमारे पास माफी माँगने के अलावा कोई चारा नहीं था। हाथ जोड़कर हम मूर्ति की मुद्रा में खड़े थे। लाख मिन्नते कर रहे थे लेकिन उनपर कोई असर नहीं हो रहा था। भीड़ का आक्रोश बढ़ता जा रहा था। हमें लगने लगा कि अब मौत बेहद करीब है। रात के करीब साढ़े नौ बजे गए। इस मसले का हल नहीं निकला था। दरअसल वे चाहते क्या थे हम समझ नहीं पा रहे थे। समय के साथ बढ़ते जा रहे आक्रोश को शांत करने की एक उपाय सूझी। हमने कहा कि सरपंच को बुलाइये जो भी फैसला होगा हम मानने के लिए तैयार हैं। सरपंच बिक्रम उरांव को बुलाया गया। उसके आने के बाद थोड़ी राहत हुई। वह हिंदी बोल भी सकता था और समझ भी रहा था। हमने अपना परिचय दिया। आईडी कार्ड दिखाया। बताया कि पत्रकारिता के उद्देश्य से आये हैं।

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उसके हावभाव और व्यवहार से लगा कि उसने हमारी बात समझ ली है। लेकिन, गांव वालों के सामने वह उन्ही का पक्ष लेकर खड़ा दिखा। उसने यह कहते हुए 50 रुपया फाइन किया कि यह गांव मानकी प्रथा का है। (इस प्रथा के गांवों में पुलिस का प्रवेश भी निषेद्ध है) हमने 50 रुपये दिए। ऊपर से 100 रुपया और दिए। सरपंच (मुंडा राजा) ने गांव वालों को समझा दिया। हम अब राहत की सांस ले रहे थे। थोड़ी देर में भीड़ धीरे धीरे कम हो गयी। सभी लोग इधर-उधर निकल गए। जान बचाने के किये हम सबने भी ईश्वर का शुक्रिया अदा किया। अपनी गाड़ी में आये। और निकल लिए।

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करीब 3 किलोमीटर आगे बढ़ने पर हमारी गाड़ी का टायर ब्लास्ट कर गया। दुर्घटना से किसी तरह बचे। हमने पाया कि पीछे के टायर में दर्जनों जगह कट हैं। हमें यह समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि हमारी गाड़ी के टायर पर किसी ने धारदार हथियार से वार कर दिया था। स्टेपनी लगाकर किसी तरह आगे बढ़े। फिर 20 किलोमीटर चलने के बाद हमने एक झोपड़ीनुमा जगह पर विश्राम किया। यहां पशुपालक देवेन्द्र पाल से मुलाकात हुई। वे सिवान से थे। जब दूर देश में किसी अपने से मुलाकात होती है तो आदमी बड़ी सुकून महसूस होता है। हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ। जब हम देवेन्द्र से मिले तो लगा सच मे देव इंद्र से ही मुलाकात हो गयी हो। यहां हमने ने भरपेट पानी पी। देवेन्द्र हमारी समस्या से जब वाकिफ हुए तो उन्होंने बताया कि वहां से सुरक्षित बच निकलना काफी मुश्किल भरा है। आप सभी जिस तरह की घटना के बाद सुरक्षित आ गए हैं यह सुखद है। मानकी प्रथा के गांवों में मुंडा राजा की अनुमति लिए बिना कोई प्रवेश नहीं कर सकता। ये आदिम जनजातियाँ आज भी युद्ध कौशल में इतनी दक्ष हैं कि पुलिस का भी इनसे पार पाना सम्भव नहीं। अब हम राहत की सांस ले रहे थे। देवेन्द्र ने रात में यात्रा स्थगित कर रुकने का आग्रह किया। लेकिन, एक घंटे आराम करने के बाद वहां से निकल लिए। हम उसी रात को सुरक्षित रांची पहुंच गए।

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