AMIT शाह के दौरे में NDA के घटक दलों को कुछ नहीं मिला

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पटना। अमित शाह के एक दिवसीय बिहार दौरे का हासिल उनके खाते में तो जबरदस्त ढंग से जाता दिख रहा है, लेकिन भाजपा के सहयोगी दलों को इसमें ज्यादा खुश होने लायक कुछ नहीं दिखता। शाह के दौरे से वोटरों के मानस परिवर्तन की उम्मीद करना तो निहायत बेमानी है। शाह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। अगले साल लोकसभा का चुनाव है। जाहिर है कि अमित शाह की यात्रा का मकसद चुनावी तैयारियों को लेकर ही रहा होगा।

जहां तक बिहार का सवाल है तो यहां एनडीए के भीतर सहयोगी दलों की बयानबाजी दो मुद्दों को लेकर थी और अमित शाह इसके समाधान के लिए कोई संकेत नहीं दे पाये। अलबत्ता अपने दलीय कार्यकर्ताओं में उन्होंने जबरदस्त उत्साह भरा है। कार्यकर्ता इस बात से ज्यादा उत्साहित हैं कि अंतरराष्ट्रीय योग दिवस से किनारे रहने वाले जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार उनके साथ चाय पीने जरूर पहुंचे। ये वही नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने नरेंद्र मोदी का सीएम रहते विरोध किया। गुजरात दंगे के के कारपण उन्होंने नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी का विरोध इस हद तक किया कि उनके बिहार आगमन पर निर्धारित भोज भी अचानक रद्द हो गया। बिहार के बाढ़ पीड़ितों के लिए मोदी द्वारा भेजा गया राहत कोष का चेक भी नीतीश ने लौटा दिया था।

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जदयू कैंप ने ही बिहार में चुनाव के वक्त नीतीश को बड़ा भाई मानने की आवाज बुलंद की थी। सीटों की शेयरिंग में बड़े भाई को बड़ा हिस्सा मिलने की बात भी जदयू ने ही उठायी। कम्युनलिज्म का विरोध मरते दम तक करने की बात नीतीश कुमार ने ही की। इन दोनों सवालों के जवाब जदयू को शाह ने अपनी यात्रा के दौरान नहीं दिये।

नीतीश का अपना कोई जातीय आधार नहीं है, जिससे वह चुनाव में करिश्मा दिखा सकें। अलबत्ता उन्होंने हर पाकेट में अपने नये जनाधार की नींव रखी। मुसलमानों में पसमांदा (पिछड़ों) की बात की, दलितों में महादलित श्रेणी बना कर उसमें अपनी जगह बनायी। नरेंद्र मोदी का विरोध कर मुसलमानों में पैठ बनायी। बेटियों को पोशाक-साइकिल देकर महिलाओं में अपनी जगह बनयी।

एनडीए में रहते उन्हें जिन चुनौतियों से दो-चार होना पड़ेगा, उनमें लोजपा के कारण दलित वोट के असली वारिस रामविलास पासवान बनने की कोशिश करेंगे। मुसलिम वोट तो भाजपा की संगत के कारण आने से रहे। अपनी बिरादरी में उपेंद्र कुशवाहा उनके लिए चुनौती हैं। शराबबंदी कानून का सर्वाधिक दंश दलित-पिछड़े परिवारों ने झेला है, जिनके कमाऊ व्यक्ति जेलों में बंद हैं। महिलाएं-बच्चे इस कष्ट का बदला लेने से अपने से रोक पायेंगे? यानी जदयू को पाने के लिए अमित शाह के दजौरे में कुछ भी नहीं दिखा, सिवा तारीफ के।

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भाजपा के कार्यकर्ता बूथ स्तर तक जा रहे हैं। उनकी तैयारी जमीनी स्तर पर चल रही है और सहयोगी अभी इसी शंका में दुबले हो रहे कि उन्हें कितनी सीटें मिलेंगी। इसलिए यह मान लेना कि शाह के दौरे के बाद एनडीए में खटास का समापन हो गया, जल्दबाजी होगी।

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