जिद्द, जुनून और जिम्मेवारी के आगे घर-परिवार की भी परवाह नहीं की

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प्रभात खबर बिकने को तैयाार था। खरीदारों का हुजूम भी उमड़ा था। आखिरकार सौदा दैनिक जागरण की कंपनी के साथ तय हुआ, पर बिकने से प्रभात खबर बच गया। बता रहे हैं ओमप्रकाश अश्क
प्रभात खबर बिकने को तैयाार था। खरीदारों का हुजूम भी उमड़ा था। आखिरकार सौदा दैनिक जागरण की कंपनी के साथ तय हुआ, पर बिकने से प्रभात खबर बच गया। बता रहे हैं ओमप्रकाश अश्क

वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की प्रस्तावित पुस्तक की धारावाहिक कड़ी

मैं बचपन से ही जिद्दी, जुनूनी और जिम्मेवारी निभाने वाले स्वभाव का रहा हूं। इसके लिए कई बार इतना जुनूनी होता रहा कि घर-बार का भी कभी कोई फिक्र नहीं किया। मेरे बेटे ने एक दिन अपनी पीड़ा का इजहार कर दिया कि आप ने हम लोगों की चिंता  ही कितनी की है। उसे 28 साल की उम्र तक पहंचने के बावजूद इस बात का मलाल है कि मैंने उन लोगों के लिए कभी समय ही नहीं निकाला। सुबह सोते रहे तो बच्चे पैर छूकर स्कूल चले गये। जब वे स्कूल से लौटे तो मैं दफ्तर में था। रात दफ्तर से लौटा तो बच्चे सोते मिले। शनिवार-रविवार जैसे सप्ताहांत की साप्ताहिक छुट्टियां तक लेने से कतराते रहे। यह सब सिर्फ दो पैसों के लिये भले किया, पर बच्चों को समय न देकर कितना बड़ा गुनाह किया, वह बेटे के दुखी कर देने वाले सवाल से जाहिर था कि आप ने हम लोगों के लिए कितना समय दिया। न एडमिशन कराने खुद स्कूल गये, न कभी पैरेंट्स मीटिंग में जा पाये और न अन्य स्कूली आयोजनों में कभी शिरकत की। जिद्द और जुनून और जिम्मेवाारी की बात मैंने इसलिए कही थी कि काम के आगे मुझे कुछ भी नहीं सूझता था। धनबाद जाने का गुस्सा भी इस जिद के आगे परास्त हो गया। मेरे मनोमस्तिष्क में सिर्फ एक ही धुन सवार थी कि किसी तरह अखबार की शुरउआत हो जाये, फिर आगे की रणनीति बने।

इस बात का शिद्दत से अहसास तब हुआ, जब जून 1999 में मुझे धनबाद जाना पड़ा। धनबाद से 12+4 पेज का अखबार निकलना था। प्लेट बनाने की आधुनिक मशीन तब थी नहीं। छपाई की मशीन भी पुरानी और पटना से उखड़ कर लगी थी। यह वही बंधु मशीन थी, जो 1989 में प्रभात खबर के नये प्रबंधन को रांची में विरासत में मिली थी। प्रभात खबर के तब तीन ही प्रकाशन सेंटर चल रहे थे- रांची, जमशेदपुर और पटना। धनबाद उसमें नया जुड़ रहा था। तीनों सेंटर पर पन्ने तब पेस्टिंग प्रोसेस से बनते थे। धनबाद में इसे पेज मेकर पर बनाया जाना था। यानी पन्ना कटिंग-पेस्टिंग की बजाय कंप्यूटर स्क्रीन पर तैयार होना था।

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संपादकीय की छोटी टीम बनायी। दो नये लड़के कंप्यूटर के लिए रखे गये और एक आदमी- गहमान रांची से रिजेक्ट होकर धनबाद आये। संपादकीय डेस्क पर स्वयंप्रकाश, राकेश और एक-दो लड़के थे। रिपोर्टिंग के इनचार्ज अनुराग कश्यप (अभी प्रभात खबर धनबाद के संपादक), अभय सिंह, दिलीप दीपक, रामजी यादव और कतरास से मुस्तकीम जुड़े थे। इतने नाम स्मृति पटल पर अब भी तैर रहे हैं, इसलिए इनसे किसी न किसी बहाने अक्सर संवाद होता रहता है। हां, रेलवे और एजुकेशन बीट पर पार्ट टाइम गौरीशंकर पांडेय भी जुड़े थे। छोटी टीम के साथ पेज मेकर पर काम का अभ्यास शुरू हो गया।

दिन-रात कंप्यूटर की नयी तकनीक सीखने में बीतने लगे। आखिर में गेस्ट हाउस में रहने वाला मैं ही बचा था। साथ में पिउन प्रमोद थे। सुबह 10 बजे दफ्तर जाकर सर्वर आन करने का जिम्मा स्वयंप्रकाश का था। पासवर्ड गोपनीय था, इसलिए इसकी जानकारी मुझे थी और अति विश्वास के कारण मैंने स्वयंप्रकाश को इसे बता रखा था। हफ्ते-दस दिन में राकेश पिताजी की तबीयत खराब होने के बहाने चला गया और स्वयंप्रकाश बुखार से इस कदर पीड़ित हुए कि उन्हें घर लौटना पड़ा। अनुमान लगाया जा सकता है कि तब किन स्थितियों में काम हो रहा होगा।

इसी बीच पत्नी तब तक पैदा हो चुके पांच बच्चों में से दो के साथ धनबाद आयीं। स्टेशन लेने मैं गया था। मेरे बढ़े-बेढंगे बाल और लगातार छंटने वाली दाढ़ी बढ़ कर बेतरतीब हो चुकी थी। तनाव और अनिद्रा चेहरे पर झलक रही थी। सभी साथी मेरी इस हालत को रोज देखते होंगे, लेकिन कभी किसी ने कुछ नहीं कहा। पत्नियां इस मामले में बड़ी समझदार होती हैं। पहली ही नजर में पत्नी ने भांप लिया कि मैं बड़ी परेशानी से गुजर रहा हूं।

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सबको लेकर घर आया। कुछ ही देर में दफ्तर के निकलने की तैयारी करने लगा। मां-बाप के पास बच्चे रह कर अतिशय प्रसन्नता की अनुभूति करते हैं, लेकिन मेरे पास आये बच्चे मेरी दिनचर्या से इतना ऊब गये कि पत्नी ने घर पहुंचा देने की बात कही। मैंने बीमार चल रहे स्वयंप्रकाश को कहा कि आप भी घर चले जाइए और इन लोगों को सीवान तक पहुंचा दीजिएगा। उन्हें सोनपुर तक ही जाना था और परिवार को सीवान तक। बाद में मेरी पत्नी ने बताया कि स्वयंप्रकाश की तबीयत इतनी खराब थी कि उन्हें सोनपुर में ही उतर जाने और अकेले सीवान पहुंच जाने की आश्वस्ति दी।

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धनबाद के कार्यकाल के तीन महीने में एक चीज मैंने नोट की। अविनाश चंद्र ठाकुर के प्रति हरिवंश जी की सख्ती कुछ ज्यादा थी। इसकी वजह आज तक नहीं जान पाया। मेरे धनबाद जाते ही उनका तबादला देवघर ब्यूरो में कर दिया गया। वहां पहले से ही प्रभात खबर के प्रतिनिधि कोई वर्णवाल जी थे। ठाकुर जी का संकट यह कि उनका परिवार धनबाद में और वह देवघर में। हरिवंश जी को शिकायत मिली कि ठाकुर जी देवघर से हर हफ्ते दो-तीन दिन गायब रहते हैं। इसे आधार बना कर मुझे उन्होंने टास्क सौंपा कि तीन दिन के अंदर उन्हें हटा दें। मैं बड़ी पसोपेश में था। पुराने साथी थे।

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आसनसोल में पत्रकारों का कोई आयोजन था। मैं भी उसमें शामिल होने गया था। इसी बीच मेरे गांव से कोई फोन आया और किसी ने बताया कि मेरी बड़की माई (बड़ी मां) की तबीयत खराब है। दिन के साढ़े तीन बजे मैं आसनसोल से धनबाद लौटा तो अनुराग ने यह सूचना दी। फिर उन लोगों ने ही सलाह दी कि थोड़ी देर में ही कोई ट्रेन आने वाली है, जो सीवान तक जाएगी। रिजर्वेशन तो है नहीं, यह कहने पर गौरीशंकर पांडेय मुझे लेकर स्टेशन आ गये। ट्रेन खुलने ही वाली थी। उन्होंने किसी टीटीई से बात की और उसने बिठा लिया। बिना टिकट वह टीटीई मुझे बरौनी तक लेकर आया और कहा कि यहां ट्रेन कुछ देर रुकेगी, आप काउंटर से सीवान का टिकट ले लीजिए। मैंने कहा कि गेट पर चेक हो रहा है तो उसने खुद टिकट लाकर दे दिया। इस तरह मैं सीवान पहुंच गया।

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