वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की संस्मरणों पर आधारित पुस्तक का एक अंश
सहमति और संवाद का साथ मिल जाये तो जीवन में किसी तरह की समस्या का जन्म ही न हो। मेरा अनुभव तो यही कहता है। आप कोई फैसला लेने जा रहे हों और उसमें सबकी सहमति हो तो विवाद की गुंजाइश ही नहीं बचती। और, अगर समस्या हो तो संवाद से समाधान के छोर को पकड़ा जा सकता है। अगर ये दोनों संभव न हों तो समस्या जस की तस बनी रहने तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि विकराल रूप भी धारण कर लेती है। यह सिद्धांत हर व्यक्ति या संस्थान के साथ लागू होता है। धनबाद के लिए हरिवंश जी द्वारा मेरे तबादले में सहमति की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी, इसलिए कि यह उनका आदेश था। अपनी समस्याएं बता कर यानी संवाद स्थापित कर ताबदले से बचने या अन्य कोई उपयुक्त जगह तलाशने की संभावना बनती तो थी, पर हरिवंश जी से मेरे जैसे लोगों का संवाद आसान काम न था। धूमिल की ये पंक्तियां ऐसे प्रसंग के जिक्र में बरबस याद आती हैं- दाहिने हाथ की नैतिकता से बायां हाथ इस कदर दबा होता है कि जीवन भर…धोने का काम वहीं करता है। हरिवंश जी से आंख मिला कर बात करने का नैतिक साहस किसी में नहीं था। शायद यही वजह रही कि उनके कई संपादकों ने प्रभात खबर की नौकरी चोरी-चुपके छोड़ दी। उनमें मैं भी एक था। धनबाद से मेरे जाने के बाद अविनाश चंद्र ठाकुर को जीवनदान मिल गया, जिन्हें निकाल देने का मुझ पर दबाव था।
धनबाद में प्रभात खबर का प्रकाशन शुरू हो गया था। काम का दबाव तो था ही, ऊपर से अविनाश चंद्र ठाकुर को हटाने का हरिवंश जी का प्रेसर अलग था। हरिवंश जी कहीं बाहर की यात्रा पर दो-तीन दिन के लिए जा रहे थे। उन्होंने शाम को मुझे फोन किया कि दो दिन बाद वह लौट कर आयेंगे। इस बीच अविनाश चंद्र ठाकुर का इस्तीफा आ जाना चाहिए। मैं भारी मानसिक दबाव में था। एक तो ठाकुर जी मेरे पुरानी साथी थे, दूसरे तात्कालिक कारणों से उनमें शिथिलता भले आ गयी हो, पर वह काम करने में कोताह नहीं थे। तीन साल में कोई आदमी तीन तबादले झेल चुका हो, चौथे से किसी तरह बचा हो, जाहिर है कि काम के प्रति उसका मानस बन ही नहीं सकता।
बहरहाल, आसानसोल से लौटा ही था कि बड़ी मां की बीमारी की सूचना मिली और अपने अंशकालिक रिपोर्टर गौरीशंकर पांडेय की मदद से मैं मौर्य एक्सप्रेस का यात्री बन सीवान के लिए निकल गया। ट्रेन से उतर कर गांव के लिए चला। अपने गांव के बाजार में पहुंचते ही श्यामदेव काका (दोनों पैरों से दिव्यांग होने के कारण हम उन्हें लंगड़ काका कहते थे) का स्कूल दिख गया। ऊमस भरे दिन थे। मेरे बच्चे उनके स्कूल में उस वक्त पेड़ के नीचे बैठ कर पढ़ रहे थे, जब मैं उधर से गुजर रहा था। बच्चे मुझे देखते ही कक्षा छोड़ दौड़ते हुए मेरे पास आये। कभी यूनिफार्म में स्कूल जाने वाले अपने बच्चों को सामान्य कपड़ों में देख कर सिर पर सोच का पहला हथौड़ा पड़ा। घर गया तो पाया कि सबके चेहरे पर चमक लौट आई है।
उसी वक्त से एक बात मन में बार-बार उठने लगी कि मैं इतनी परेशानियों को झेल कर किसके लिए काम करता हूं। इन्हीं बच्चों के लिए ही न। जब बच्चे गांव के स्कूल में पेड़ के नीचे ही पढ़ेंगे तो मेरी नौकरी का क्या मतलब रह जाता है। हफ्ते भर तक निश्चिंत भाव से घर पर पड़ा रहा। आखिरकार एक कठोर निर्णय लिया, जिसके परिणाम के बारे में तब तनिक भी ख्याल नहीं आया। मैंने नौकरी छोड़ देने का फैसला कर लिया। विकल्प मेरे पास एक ही था। मैंने सात-आठ साल तक अपना स्कूल चलाया था। सोचा, उसी स्कूल को रिवाइव करेंगे, जहां मेरे बच्चे भी पढ़ लेंगे और खटाल खोल लूंगा, जिससे कुछ और आमदनी हो जायेगी। आमदनी के पूरे गणित का एक ही हासिल था- दस हजार रुपये की पगार के बराबर कमाना।
दस-बारह दिन बाद मैं पटना पहुंचा। इस्तीफा लिखा, जिसमें आग्रह किया कि पारिवारिक कारणों से मैं संस्थान छोड़ना चाहता हूं। पटना में नौकरी का बंदोबस्त होने तक (कम से कम एक माह) प्रिंट लाइन में मेरा नाम जाता रहे, तो कृपा होगी। प्रभात खबर के पटना दफ्तर से जाने वाले इंटरनल कूरियर में पत्र डाल दिया और अगले दिन किसी माध्यम से हिन्दुस्तान, पटना के प्रबंधकीय महकमे के सर्वोच्च अधिकारी वाईसी अग्रवाल से मिला। अभय सिन्हा तब हिन्दुस्तान चले गये थे। उन्होंने ही अग्रवाल साहब के पीए से मिला दिया। पीए ने अग्रवाल साहब से मुलाकात करा दी। तकरीबन 45 मिनट तक हम लोगों ने बात की। एक तरह से बात पक्की हो गयी रांची के लिए। इंबार्गो उनकी ओर से यही था कि यह काम संपादकीय विभाग का है, इसलिए अंतिम निर्णय वहीं से होगा, लेकिन वे मेरा नाम रांची से अगले साल लांच होने जा रहे हिन्दुस्तान के संपादकीय प्रभारी के रूप में अवश्य प्रस्तावित करेंगे। बाहर निकलने पर अभय जी ने मुझ से कहा कि इतनी देर तक वह किसी से बात ही नहीं करते। आप से अगर लंबी बात कर ली तो आप अब मिठाई बांटिए, आपका काम हो गया।
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मैं भी निश्चिंत और खुश होकर गांव लौट गया। इस्तीफे के बाद नैतिक बोझ भी सिर से उतर गया था। वैसे मैं खटाल और स्कूल की अपनी योजना पर भी काम कर रहा था। पैसे तो थे नहीं, सोचा कि फुल एंड फाइनल के बाद जो पैसे प्रभात खबर से मिलेंगे, उसी से काम आगे बढ़ाऊंगा।
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इधर मेरे इस्तीफे का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि धनबाद के संपादकीय प्रभारी की जगह खाली हो गयी और अविनाश चंद्र ठाकुर जी को लीज आफ लाइफ मिल गया। उन्हें ही प्रभारी का दायित्व सौंपा गया। हालांकि जिस तनाव में धनबाद में काम हो रहा था, उसे झेलना सबके वश की बात नहीं थी। पता चला कि अगले दूसरे या तीसरे महीने में अविनाश चंद्र ठाकुर को पारालिटिक अटैक हो गया। दो-तीन महीने आराम के बाद ही वह सामान्य हो पाये। इस बीच वहां संपादक के रूप में अनुराग अन्वेशी या राघवेंद्र को भेजा जा चुका था। (कल पढ़ें- और तब मेरे मन मुताबिक प्रभात खबर में पुनर्वापसी हुई)
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