और गांव की गंध छोड़ चल पड़े काली के देस कामाख्या

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बहुतेरे पाठक ओमप्रकाश अश्क के वर्तमान से तो परिचित हैं, पर उनका अतीत कितना संघर्षपूर्ण रहा है, इसकी झलक उनकी प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- में दिखती है। वैसे यह अंश पहले के अंश का पुनर्पाठ है, जो पाठकों की सुविधा के लिए टुकड़े-टुकड़े में यहां दिया जा रहा हैः

मेरे गांव का बाजार सड़क किनारे बसा है। इससे बाजार लंबा दिखता है। जब बाजार के करीब पहुंचा तो मेरा छोटा भाई खड़ा मिला। उसने मेरे हाथ में एक टेलीग्राम दिया, जिसे देवेंद्र जी ने भेजा था। संदेश था- कम आन फोर्थ
पाजिटिवली (4 को हर हाल में पहुंचो)। तार मुझे 4 को ही मिला था। मैंने कहा कि चार तो आज बीत गया। अब जाने का क्या फायदा। मेरे छोटे भाई ने जिद की कि फिर भी मैं जाऊं। मैंने कहा कि अभी तो किराये के पैसे भी नहीं हैं
तो उसने कहा कि इसकी व्यवस्था उसने कर दी है। मेरी ससुराल से उसने पैसे उधार ले लिये थे। बहरहाल उसकी जिद पर मैं उसी रात पटना के लिए निकल गया। अगली सुबह देवेंद्र जी के डेरे पर पहुंचा। उन्होंने कहा कि उनके मित्र
चंद्रेश्वर जी गुवाहाटी से अखबार निकालने जा रहे हैं। कल इंटरव्यू था। फिर भी चलिए देखते हैं। नाश्ते के बाद स्कूटर से देवेंद्र जी मुझे चंद्रेश्वर जी के घर ले गये। उस वक्त वह दाढ़ी बनाने बैठे थे। देवेंद्र जी ने मेरा परिचय उनसे कराया और कहा कि इस लड़के को अपने साथ ले जायें। उन्होंने कहा कि संयोग है कि मालिक की फ्लाइट कल कैंसल हो गयी। वह अभी पटना में ही हैं। मैं दोपहर में आशियाना टावर पहुंचूं। कितने पैसे मांगने हैं, यह उन्होंने समझा दिया।

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मैं आशियाना टावर पहुंचा। चंद्रेश्वर जी पहले से वहां मालिक के पास बैठे हुए थे। मालिक ने मुझे बुलाया और कहा कि हिन्दी और अंगरेजी में कुछ भी लिख कर ले आओ। जाहिर बात थी, गांव का होने के कारण अंगरेजी में विचार
लिखना सीखा नहीं था। हिन्दी में जरूर सौ-दो शौ शद लिखे और देने चला गया। अब अंगरेजी में लिखने के लिए मैं लौटने लगा। मेरी हैंडराइटिंग देखते ही उसने पीछे से आवाज दी। मैं मुड़ा तो पूछा कि पहले तुमने कहीं अप्लाई किया
था। मैंने बताया कि हिन्दुस्तान में एक वर्गीकृत विज्ञापन छपा था, उसके बाक्स नंबर में आवेदन डाला था। फिर उन्होंने पूछा कि कोई बुलावा आया था? मैंने बताया कि गेरुआ रंग के अक्षरों में कोई अनजान भाषा का लेटर पैड था
और जिस तारीख को बुलाया गया था, वह बीत चुकी थी। इसलिए उस पर ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने कहा- बैठो। फिर उन्होंने बताया कि वह लेटरहेड असमिया में था और मैंने ही तुम्हारे आवेदन की हैंडराइटिंग देख कर तुम्हें बुलाया
था। अभी तुम्हारी राइटिंग देखी तो सब कुछ याद आ गया। बातें होने लगीं। अंगरेजी में कुछ लिखने का पिंड छूट गया। उन्होंने कहा कि कितने पैसे लोगे। जैसा मुझे सिखाया गया था, मैंने तीन हजार कह दिया। उन्होंने कहा कि अभी तुम्हें 1400 मिलेंगे और छह महीने बाद 3000 मिलने लगेंगे। तुम कब तक ज्वाइन करोगे। सामने होली थी तो मैंने कहा कि होली के बाद। इस पर उन्होंने कहा कि किसी भी हाल में तुम्हें 19 फरवरी को गुवाहाटी पहुंचना है। होली का इंतजार न करो। तुरंत मेरा लेटर टाइप हुआ और उसमें 1400 रुपये की तनख्वाह लिख दी गयी।

मेरी खुशी का पारावार नहीं था। कहां 340 रुपये और कहां 1400। मैं लेटर लेकर अपने गुरु देवेंद्र जी के पास पहुंचा। होली तक मोहलत की उनसे पैरवी करायी। उन्होंने मालिक से आग्रह किया कि 10-15 दिनों में मैं इसे हिन्दुस्तान में ट्रेनिंग दे दूंगा। इस पर मालिक ने कहा कि वह वहीं मुझे काम सिखा देंगे। बहरहाल घर लौटा तो परिवार में इस कदर खुशी का माहौल बना कि उसे याद कर सिर्फ महसूस किया जा सकता है। पत्नी के चेहरे पर इस बात की खुशी थी कि अब उनका पति बेरोजगार नहीं। विधवा मां के चेहरे पर रौनक इसलिए कि बेटा अब इतना पैसा कमायेगा। चाचा, चाची (बड़का बाबूजी और बड़की माई) और छोटे भाइयों में गजब की खुशी। गांव-जवार में भी यह आश्चर्य भरी खुशी की
खबर फैल गयी कि मुन्ना मास्टर अब अच्छी तनख्वाह पर कमाने जा रहा है। यानी दैनिक अखबार में कैरियर की शुरुआत करने के लिए काली के देश कामाख्या जाने की बुनियाद मेरी तैयार हो गयी।

अब तक इस बात से अनजान था कि पत्रकारिता के सफर में मंजिल कभी नहीं
मिलती। अलबत्ता पड़ाव दर पड़ाव भटकाव खूब होता है। यह जानता भी कैसे? अभी
पत्रकारिता में प्रवेश की अधिकतम उम्र 25 साल बतायी जा रही है। मैं तो
तकरीबन 30 साल की उम्र पूरी कर किसी पड़ाव के लिए रवाना हुआ था। दो पड़ाव
जो स्कूल-कालेज के दिनों में मिले थे, वे गांव के इर्द-गिर्द ही थे। औकात
में भी उन पड़ावों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता। इसलिए कि वे
प्रकृति से साप्ताहिक और जिलों के अखबार थे। दैनिक अखबार में मेरे प्रवेश
का गुवाहाटी, जिसे मैं अक्सर काली के देश कामाख्या कहता हूं, पहला पड़ाव
था।

अगर इंसान की औसत उम्र 100 साल मान ली जाये तो यह कहा जा सकता है कि मैं
अपने जीवन का करीब एक तिहाई गांव की माटी के मोहक गंध में बिताने के बाद
शहर की नयी गंध सूंघने निकला था।

गांव में था तो जाहिर है कि संगी-साथी भी गंवई ही होंगे। औरों को फिलवक्त
छोड़ भी दें तो दो लोगों को कभी नहीं भूल पाऊंगा, जो खैनी खिलाने वाले और
मेरे हर काम में राय-मशविरा देने वाले होते थे। इनमें एक थे वकील राउत और
दूसरे शिवशंकर साह। बिहार का हूं, इसलिए किसी की पहचान कराने के लिए उसकी
जाति का जिक्र आवश्यक है। हालांकि कभी मैंने जातिगत भावना से कोई काम
नहीं किया, सिर्फ अपनी शादी को छोड़ कर। जातिगत भावना से मुझे इतना परहेज
था कि अब तक अपने नाम के साथ जाति सूचक उपनाम से मैंने परहेज किया है।
बच्चों के नाम के साथ भी अपना ही उपनाम जोड़ रखा है। अपने दो मित्रों की
जाति बताने के पीछे भी मेरा मकसद छिपा है। एक मित्र शिवशंकर साह गोंड
जाति से थे, जो पारंपरिक तरीके से भूंजा भुनने का काम करती रही है।
हालांकि अब इस जाति के लोग भी  दूसरे पेशे से जुड़ गये हैं। नौकरी करने
लगे हैं। दूसरे मित्र वकील रावत, गद्दी जाति के थे। गद्दी जाति के लोग उस
जमात से आते हैं, जिनके नाम हिन्दू होते थे, इबादत अल्लाह की करते थे और
पेशा दूध-दही बेचने वाले ग्वालों जैसा था। इनके इतिहास के बारे में तो
ज्यादा नहीं पता, लेकिन अनुमान लगाया कि पूर्व में ये हिन्दू रहे होंगे
और कभी दबाव या मजबूरी में इसलाम धर्म कबूल कर लिये होंगे। शायद यही वजह
रही कि पुरानी पीढ़ी के लोग अपना नाम हिन्दुओं की तरह ही रखते थे। हालांकि
अब इनके वंशजों के नाम भी मुसलिम नामों की तरह रखे जाने लगे हैं।
इन दो मित्रों की जाति-बिरादरी बताने के पीछे मेरी मंशा यही थी कि शुरू
से ही मैं जाति प्रथा का विरोधी और सर्वधर्म समभाव का समर्थक रहा। बदलते
काल और परिस्थितियों में भी मेरे अंदर यह भाव अभी तक अक्षुण्ण है, यह कम
से कम मेरे लिए गर्व की बात है।

गुवाहाटी की ट्रेन मेरे निकटवर्ती स्टेशन सीवान से रात में 11 बजे के
आसपास खुलती थी। तब एक ही ट्रेन थी। स्टेशन गांव से 14 किलोमीटर दूर। तब
इतने वाहन भी नहीं थे। गांव में बमुश्किल एक-दो साइकिलें तब होती थीं।
सड़कों पर सवारी वाले वाहन तो इक्का-दुक्का ही होते थे, जो सिर्फ दिन में
चलते और शाम ढले सड़कें सुनसान। ऐसे में किसी को स्टेशन जाना हो तो वह
पैदल ही जाता। चोर-उचक्कों की सक्रियता को ध्यान में रखते हुए लोग अपने
आने-जाने का समय तय कर लेते।

मुझे स्टेशन तक छोड़ने के लिए मेरे ये दोनों मित्र तैयार हुए। सवारी गाड़ी
को ध्यान में रख कर हम लोग शाम ढलने से पहले ही घर से निकल गये थे। रात
करीब 8 बजे तक हम लोग सीवान स्टेशन पर थे। तय हुआ कि मुझे ट्रेन पर बिठा
कर ही वे लोग सवेरे लौटेंगे। स्टेशन पर चादर बिछा कर तीनों बैठ गये।
बिछुड़ने की दुख भरी बातें बतियातें, भविष्य की योजनाओं पर चर्चा करते और
मन-बेमन से बार-बार खैनी की खिल्ली खाते हम लोग गाड़ी के आने का इंतजार
करने लगे।

जहां तक मुझे याद है कि वह तारीख थी 17 फरवरी 1989। इसलिए कि मुझे हर हाल
में 19 फरवरी को गुवाहाटी पहुंचने के लिए मालिक गोवर्धन अटल ने कह दिया
था। मेरे पास गांव के जुलाहों की बुनी एक दमदार दरी थी और ओढ़ना के लिए
ससुराल से मांग कर लायी गयी एक शाल। आप अनुमान लगा सकते हैं कि फरवरी की
ठंड को रोकने के लिए ये ओढ़ने-बिछाने के सामान पर्याप्त नहीं रहे होंगे।
फिर भी नौकरी पा जाने का एक उत्साह सारी कमियों-परेशानियों पर भारी था।
उत्साह ने परिजनों से बिछुड़ने की मर्मांतक पीड़ा का भी हरण कर लिया था।
बहरहाल, ट्रेन आयी और मैं मित्रों से विदा लेकर उस पर सवार हुआ। याद नहीं
कि तब ट्रेन में रिजर्वेशन की परंपरा थी या नहीं। या फिर मुझे ही इसका
ज्ञान नहीं था। यह याद नहीं कि मैं रिजर्वेशन वाली सीट पर बैठा या जनरल
बोगी में। खैर, चल पड़ी ट्रेन काली के देश कामाख्या की ओर।

अनजान शहर की यात्रा और वह भी पहली बार। ट्रेन में मेरा एक साथी बना
गोरखपुर का एक अनजान युवक। वह भी गुवाहाटी जा रहा था।  मुझमें और उसमें
फर्क इतना भर था कि वह पहले से वहां आता-जाता था और मैं पहली बार जा रहा
था। मुझे बड़ा संबल मिला। रास्ते में बोलते-बतियाते कब आंख लग गयी, पता
नहीं चला। भोर हुई और आंख खुली तो हम लोग एक अनजान स्टेशन न्यू जलपाईगुड़ी
में थे। लोगों की जुबान पर एनजेपी की गूंज थी। पता चला कि ट्रेन अब आगे
नहीं जायेगी। इसके कारणों का पता करने साथ वाला युवक नीचे उतरा। वहां
चारों तरफ एक अनजान भाषा में लोग बातें कर रहे थे। मुझे कुछ भी समझ में
नहीं आ रहा था। यह भी मालूम नहीं था कि वह अनजान लगने वाली भाषा कौन-सी
थी। बाद में जब बंगाल गया तो जाना कि वह बांग्ला भाषा थी, जिसमें एनजेपी
स्टेशन पर लोग बात कर रहे थे।

लड़का जब लौटा तो उसने बताया कि बोडो आंदोलनकारियों ने एक हजार घंटे का
बंद बुलाया है। इसलिए अब ट्रेन आगे नहीं जायेगी। जिन यात्रियों को वापस
लौट जाना है, उनके टिकट वापस लेकर पैसे लौटाये जा रहे हैं या वापसी के
नये टिकट जारी किये जा रहे हैं।

एक बार मन में खुशी इस बात की हुई कि इसी बहाने अब घर लौट जाने को
मिलेगा। लेकिन क्षण भर में यह विचार झटका खा गया। अरे, कितनी उम्मीदों के
साथ बच्चों, पत्नी, मां, भाइयों और मित्रों ने मुझे विदा किया था। 30 साल
की उम्र में किसी को नौकरी मिलने की बात पत्थर पर दूब जमने जैसी थी। अगर
मैं घर लौट गया तो लोगों की उम्मीदों का क्या होगा। बड़े पसोपेश में पड़ा
था। तभी साथी युवक ने आकर बताया कि यहां से एक बस जा रही है। अगर बस से
चलना चाहें तो चलिए। टिकट वापस करने का भी समय नहीं मिला। लंबी लाइन थी
और देर करने पर बस के छूट जाने का खतरा था।

हड़बड़ी में सामान लेकर उस युवक के साथ हो लिये। वह बस स्टैंड पहुंचा और
मुझसे सौ रुपये का नोट लेकर मेरे लिए टिकट खरीद लाया। वहीं मैंने रुपये
का नाम टाका सुना। सौ में कितने वापस हुए या कुल लग गये, न उस लड़के ने
मुझे बताया और न मैंने उससे पूछा ही। इसलिए कि एक अनजान लोक में वही मेरा
तारणहार बना था। न भूगोल-इतिहास का ज्ञान था मुझे और न भाषा-बोली की
जानकारी ही। उसके साथ मैं बस में सवार हो गया। मुझे इतना याद है कि
रास्ते में धुबड़ी मिला था, जहां से मैंने खैनी का पत्ता खरीदा था। उसके
बाद ऊंचे पहाड़-जंगल के रास्ते बस दौड़ती रही और मैं इस अज्ञात भय से
परेशान होकर प्राकृतिक नजारे का अवलोकन करता रहा कि जब यह लड़का उतर
जायेगा तो मेरा क्या होगा।

शाम चार बजे तक बस गुवाहाटी पहुंच गयी थी। मुझे फांसी बाजार (फैंसी
मार्केट) जाना था। लड़के ने उसके निकट ही मुझे उतर जाने को कहा और बताया
कि बगल में ही है फांसी बाजार। किसी से पूछ लीजिएगा। बिहारी लोग
शहरों-नगरों के नाम अपनी उच्चारण क्षमता व सुविधानुसार बना लेते हैं। यह
फामसी बाजार से जाना। फैंसी कहने में तकलीफ होती थी, इसलिए फांसी नाम रख
लिया। बाद में बंगाल गया तो इसे और शिद्दत से महसूस किया। लोगों ने
टीटागढ़ का नाम ईंटागढ़, डायमंड हार्बर का नाम दामिल बाबड़ा, अंगरेजों के
जमान से सेना छावनी रहा दमदम कैंटोनमेंट को गोराबाजार और बैरकपुर को
बारिकपुर बना लिया।

बहरहाल, फांसी बाजार में मेरे गांव के गद्दी लोगों के कुछ रिश्तेदार रहते
थे। मैं उन्हीं लोगों का पता-ठिकाना लेकर गया था। वे सब्जी के आढ़तिया
कारोबारी थे। यह मुझे पहले से नहीं पता था। सिर्फ यही बताया गया था कि वे
सब्जी बेचने का काम करते हैं।

पूछपाछ कर मैं उनमें से एक तक पहुंच गया। तब वह अपनी आढ़त पर बैठे थे। शाम
के साढ़े चार बज रहे होंगे। उन्हें अपनी पहचान बतायी तो बड़े प्रेम से
मिले। मुझे बिठाया और चाय मंगा दी। फिर वह अपने काम में मशगूल हो गये।
इसके बाद गांव-जवार का जो वहां आया, उसने मुझे देख कर उनसे मेरे बारे में
पूछा और फिर एक चाय का आर्डर देकर सभी वहां से जाते रहे। अपने काम करते
रहे।

शाम छह बजे के आसपास मुझे 12-13 साल के गांव से आये एक बच्चे के साथ मेरे
परिचित ने डेरा भिजवा दिया। डेरा क्या, एक खोली थी। चार बिस्तर लगे हुए
थे। सभी पर टाट के बोरे बिछे थे। एक चौकी थी, जिस पर एक नयी चादर लड़के ने
डाल दी और मुझे उस पर आराम करने के लिए कहा। तकरीबन 24 घंटे बाद अपनी
बोली-भाषा में बोलने-बतियाने वाला कोई उस अनजान शहर में मिला था। खाना
कहीं बाहर उस लड़के ने खिला दिया। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि इतना छोटा
बच्चा गांव से आकर यहां की बोली-भाषा सीख गया है। अपनी बोली भी नहीं भूला
है। इसका मनोविज्ञान मुझे बाद में समझ में आया। असम और बंगाल में लंबे
समय तक रहने के बावजूद मैं वहां की भाषा बोलने में असहज महसूस करता रहा।
भय होता कि कहीं गलत न बोल जाऊं। बच्चों में यह भय नहीं होता। यही कारण
था कि गुवाहाटी गया गांव का वह बच्चा असमिया धड़ल्ले से बोल लेता था।
खाने के बाद मैं आराम करने घर में आ गया। मेरे गांव के आढ़त वाले रात 8-9
बजे आये और गांव-जवार का विस्तार से हाल-चाल पूछा। उन लोगों ने कहा कि
भोर में तीन-चार बजे सभी निकल जायेंगे। मैं अकेले ही घर में रहूंगा। घर
का किवाड़ अंदर से बंद रखूं, जब तक उनमें से कोई न आये। अनजान कोई भी आये
तो दरवाजा न खोलूं। इतनी हिदायतें सुन कर मैं घबरा गया। मन में हंस भी
रहा था कि इस खोली में कौन आयेगा और आया भी तो किसी को क्या मिलेगा। अपने
इसी भाव के कारण मैंने पूछ लिया कि ऐसा क्यों? तब उनमें से एक ने
टेढ़े-मेढ़े फोल्डिंग काट पर बिछे बोरे को हटाया। पूरे बिस्तर पर छोटे-बड़े
इतने नोट बिखरे थे कि एक बार मुझे लगा कि मैं सपना देख रहा हूं। वास्तविक
जीवन में मैंने पहली बार उतने नोट देखे थे।

गुवाहाटी की पहली रात मैंने उसी खोली में गुजारी। दूसरे दिन उस छोटे
बच्चे के साथ रिक्शे पर बैठ कर अपने अप्वाइंटमेंट लेटर में लिखे पते पर
पहुंचा। शायद वह जगह आठगांव थी। पूछा तो पता सही निकला। एक असमिया सज्जन,
जो मालिक के सीमेंट डिवीजन का काम संभालते थे, ने बताया कि मालिक अभी
बाहर हैं और उनके आने में दो-तीन दिन लगेंगे। मुझे बिठा कर उन्होंने
मालिक से फोन पर बात की। मालिक ने उन्हें बताया कि मुझे दफ्तर की जगह
दिखा दी जाये और वहीं ठहराया जाये, जो मकान पहले से ही उन्होंने अखबारी
कर्मचारियों के लिए ले रखा है। मुझे किसी तरह की परेशानी न हो, ऐसा निदेश
उन्होंने अपने कर्मचारी को दिया।

उसी दफ्तर के एक हिस्से में अखबार के लिए कार्यालय बना था। अभी कोई वहां
आया नहीं था, इसलिए पूरी तरह चमक-दमक बनी हुई थी। मैं एक कुर्सी पर बैठा।
एसी की ठंडक, शांत वातावरण। एकबारगी लगा कि एक नयी दुनिया में आ गया हूं।
मन बड़ा खुश हुआ।

फिर वह सज्जन मुझे उस फ्लैट पर ले आये, जहां मुझे अपने और साथियों के साथ
रहना था। वे अभी आये नहीं थे। लकड़ी के घर वाले प्रांत में आरसीसी छत वाला
पक्का सुंदर फ्लैट। उन्होंने मुझसे पूछा कि ओढ़ने-बिछाने की क्या सामग्री
मेरे पास है। मैंने बताया तो उनका जवाब था कि इससे तो काम नहीं चलेगा।
यहां ठंड काफी है। फिर उन्होंने मालिक को बताया। मालिक ने उन्हें कहा कि
अपना बिस्तर, जो समेट कर वहां रखे हो, दे दो। मेरे आने से पहले शायद वह
वहां रह रहे थे। उन्होंने होल्डाल खोला और गद्दे-रजाई निकाल कर दे दिये।
मेरा बिस्तर तैयार।

वह चले गये तो अपने नये दफ्तर और जीवन की शुरुआत के बारे में मैंने रात
में कई लोगों को लिखे पत्र में जिक्र किया। ये पत्र कुछ घर के लिए थे और
कुछ मित्रों को।

दो-तीन दिनों बाद बाकी मित्रों का गुवाहाटी आना शुरू हो गया। उनमें एक को
छोड़ बाकी मित्रों के नाम अभी तक याद हैं। उनमें एक हैं अजित अंजुम,
जिन्हें मैनेजिंग एडिटर के रूप में आप न्यूज 24 चैनल में देखते रहे हैं।
अब शायद उन्होंने ठिकाना बदल लिया है। दूसरे थे हिमांशु शेखर। हिमांशु जी
हम सब में बड़े थे। सबसे छोटी उम्र के तब थे अजित अंजुम। हिमांशु जी के एक
बड़े भाई हिन्दुस्तान, पटना के विज्ञापन प्रबंधक थे। तीसरे मित्र थे,
रत्नेश कुमार। वह आज भी गुवाहाटी में जमे हुए हैं। शायद पूर्वांचल प्रहरी
में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेवारी निभा रहे हैं। चौथे मित्र सुनील सिन्हा
थे, जो खेल पत्रकार हैं और शायद अब भी मध्यप्रदेश में कहीं किसी अखबार
में नौकरी कर रहे हैं। एक और लड़का पीटीएस के काम के लिए आया था। मैथिल
युवक था। तीन कमरों में चार लोग रहते थे। शुरू के कुछ दिनों तक होटल में
सभी खाते थे, पर बाद में खाना बनाने की व्यवस्था हम लोगों ने कर ली। तय
हुआ कि खुद से बनायेंगे। बनने भी लगा। चार लोगों के लिए कम से कम 20-22
रोटियां रात में बनतीं। दिन में मौका नहीं मिलता तो बाहर ही खा लेते।
रोटियां बनाने के बारे में भी एक दिलचस्प किस्सा है। मैं गांव का आदमी था
सो, रोटियां थोड़ी मोटी मुझ से बन जातीं। अजित अंजुम शहरी और
संपन्न-संभ्रांत घर के थे, इसलिए वह पतली रोटियां बनाते। हम दोनों में
इसी मोटी-पतली रोटी बनाने को लेकर अक्सर तकरार होती रहती। वह कहते कि
जान-बूझ कर मैं मोटी रोटियां बनाता हूं।

हमारे मालिक गोवर्धन अटल आरएसएस से जुड़े थे। शायद यही वजह थी कि उन्होंने
संघ से ताल्लुक रखने वाले चंद्रेश्वर जी को संपादक के रूप में चुना था।
अटल जी सबसे सीधा संवाद करते। उन्होंने सबको एक-एक हजार रुपये एडवांस
दिलाये और असम के सभी जिलों को सबके बीच बांट कर कहा कि वहां जायें और
भौगोलिक-सामाजिक स्थिति को समझें। मुझे नजदीक के दो जिले मिले थे नौगांव
व गुवाहाटी। गुवाहाटी में तो रहता ही था, नौगांव एक दिन में जाकर लौट
आया। सात दिन तक आने-जाने का बिल बना कर मैंने आधे से ज्यादा पैसे बचा
लिये और 500 रुपये मां को मनीआर्डर कर दिये।

प्रवास के दिनों में पर्व-त्योहार किस तरह पहाड़ से लगते हैं, इसका आभास
पहली बार काली के देश कामाख्या (गुवाहाटी) में कमाने गये हम पत्रकार
मित्रों को हुआ। चंद्रेश्वर जी के नेतृत्व और गोवर्धन अटल के स्वामित्व
में उत्तरकाल निकालने के लिए 19-20 फरवरी (1989) तक सभी साथी पहुंच गये
थे। साथियों का जिक्र पूर्व में हम कर चुके हैं। मार्च के पहले सप्ताह
में होली का त्योहार था। प्राय: सभी साथी पहली बार घर से बाहर उतनी दूर
परिजनों के बिना होली मनानेवाले थे।

होली की पूर्व संध्या पर डायनिंग रूम में सभी जुटे। हिमांशु शेखर, सुनील
सिन्हा, अजित अंजुम, मैं और डीटीपी का एक साथी, जो साथ ही रहता था। हम
लोगों के एक और मित्र थे रत्नेश कुमार, जो गुवाहाटी जाने के बाद पीलिया
से पस्त होकर डायनिंग में ही बिस्तर पर लेटे थे। उन सब में शादीशुदा मैं
ही था।

अपने-अपने घर की होली की यादें सभी सुनाने-बताने लगे। किसी को भाभी बिना
होली की बदरंगी सूरत सता रही थी तो किसी को परिवारजनों से विलग होली
बेमानी लग रही थी। मेरी मनोदशा कैसी रही होगी, यह बताने की जरूरत इसलिए
नहीं कि शादी के सात साल बाद पहली बार पत्नी और परिजनों से विलग मेरी यह
होली थी। अपनी पीड़ा को मैं शब्द दे पाने में इसलिए असमर्थ पा रहा हूं कि
अंतस की उपज पीड़ा का अंदाज उन्हीं को हो सकता है, जिनकी ऐसे हालात से
मुठभेड़ हुई हो। तकरीबन आधे घंटे तक सभी यादों में खोये रहे और भीतर से
सभी इतने कमजोर पड़ गये कि फफक कर सामूहिक रुदन-क्रंदन किसी को नागवार
नहीं लगा, सिवा रत्नेश के।

इसलिए कि रत्नेश की पटरी उनकी भाभी से नहीं बैठती थी। मां-बाप थे नहीं।
उन्हें एक तरह से होली में घर पर रह कर पीड़ित होने से गुवाहाटी में
पीलिया के प्रकोप में आकर बिस्तर से सटे रहना ही सहज लग रहा था। अलबत्ता
एक बात उन्हें असहज जरूर लगी, जिसका आगे मैं जिक्र करने वाला हूं।
अखबार तो निकल नहीं रहा था, इसलिए काम का दबाव-तनाव था नहीं। ऊपर से होली
की दो दिनी छुट्टी। दो दिनों की छुट्टी की एक तार्किक वजह थी। जिस दिन
असमी लोग होली खेलते, उसके अगले दिन बिहारी या यों कहें हिन्दीभाषी समाज
की होली होती। असमी लोग पहले दिन की होली को रंग डे और दूसरे दिन को कीचड़
डे कहते थे। दरअसल हिन्दीभाषी प्रदेशों में जिस तरह हुड़दंगी होली खेली
जाती है, वैसा और कहीं नहीं होता। हिन्दीभाषियों का मन सिर्फ रंग से तो
भरता नहीं, इसलिए वे नाली के कीचड़ उछाल-लगा कर जी भर होली खेलते।
घंटे-डेढ़ घंटे के रुदन-क्रंदन के बाद होली मनाने की तैयारी पर विमर्श
शुरू हुआ। सुनील सिन्हा पाकशास्त्री निकले। उन्होंने कहा कि वह मालपुआ और
मटन बना देंगे। केला, दूध, मैदा, चीनी, मसाला वगैरह की फेहरिश्त बन गयी।
खर्च का बंटवारा सब में कर दिया गया। लेकिन आम राय बनी कि ऐसी होली का
क्या मतलब, जब मन ही न बहक जाये। मन बहकाने का सामान यानी दारू को भी
सूची में स्थान मिल गया। सारा सामान शाम को खरीद कर आ गया। हमारी होली तो
अगले दिन मननी थी। उस शाम सामान्य खाना बनने लगा।

शाम ढली, रात ने दस्तक दी तो सबके मन में दारू गटकने की बेचैनी भी बढ़ने
लगी। आश्चर्य यह कि तब कोई नशे का आदी नहीं था। अगर किसी ने पहले कभी पी
भी थी तो वह गिनती में एक-दो बार ही। लेकिन बेचैनी शायद इस वजह से भी थी
कि सब अपनों से विलग होकर होली मनाने का गम भुलाना चाहते थे। रात चढ़ती
गयी और नौसिखुए पियक्कड़ों की टोली दो घूंट अंदर जाने के बाद लड़खड़ाती रही।
नाचती-गाती रही। ढोल-मजीरे की जगह थाली ने ली। थाली की थाप और
होली-जोगीरा के बेसुरे अलाप ने इस कदर बेसुध किया कि आगे की कहानी का
सिर्फ एक विंदु ही याद रह गया है। कालबेल लगातार बज रही थी। आधी रात का
वक्त। सभी अपने में मस्त। अचानक मेरे कान में बेल की आवाज पड़ी तो सबको थम
जाने को कहा। कपड़े संभाल कर गेट खोला तो अड़ोस-पड़ोस के कई असमिया परिवार
के लोग खड़े दिखे। कई आवाजें एक साथ गूंजी- यह क्या तमाशा है। रात में
इतना शोरगुल। मैंने सारी  कहा और बताया कि हमारे यहां ऐसी ही होली की
परंपरा है। अब नहीं होगा। लोग चले गये और उसके बाद कौन कहां बेसुध पड़
गया, स्मरण नहीं।

जिसके मकान में हम रहते थे, वह भी असमिया ही थे। खुद लकड़ी के काटेज में
रहते थे और आरसीसी घर किराये पर दे रखा था। दिन में होशोहवास में सुनील
जी ने मालपुआ और मटन बनाया। हम लोगों ने मकान मालिक को भी खिलाया। वह
सुस्वादु भोजन से इतने आह्लादित थे कि रात की घटना पर उन्होंने कोई
नाराजगी नहीं जतायी। उल्टे यह कहा कि दरवाजा खोलना ही नहीं चाहिए था।
अगले दो-तीन दिनों तक दफ्तर जाना हुआ। चंद्रेश्वर जी आ चुके थे। तब हम
यही जानते थे कि अखबारनवीसों के लिए संपादक ही सब कुछ होता है। मालिक का
कोई मतलब नहीं। लेकिन मालिक रोज शाम को अलग-अलग सबसे काम-धाम पूछते। काम
भी एसाइन करने लगे थे। इससे खफा होकर अजित अंजुम ने कह दिया कि हम काम
करेंगे तो संपादक के नेतृत्व में, आपके नहीं। मालिक को यह बात नागवार लगी
तो उन्होंने इस्तीफे की पेशकश कर दी। बाहर निकले, सबको बताया और आमराय
बनी कि सामूहिक इस्तीफा दे दिया जाये। हम लोगों ने दिन में ऐसा ही किया।
इस्तीफा देकर अक्सर लोगों को परेशान और चिंतित होते देखा है। खुद को भी
इसी जमात में तब अपने को पाया था। इसलिए कि घर की उम्मीदें मेरी नौकरी न
रहने पर टूट जातीं। घर-परिवार और गांव-जवार के लोगों के सपने चकनाचूर हो
जाते। पर भीड़ या समूह का एक समाजशास्त्र होता है। इसके नियम-कानून मानें
तो एक का फैसला सामूहिक स्वीकृति-सहमति का हकदार-दावेदार बनता है। मैंने
भी समूह के समाजशास्त्र का किरदार निभाना पसंद किया। बाकी साथियों के
चेहरों पर खुशी का कारण यह था कि अब वे अपने देस लौट रहे थे। परदेस की
पीड़ा से मुक्ति मिल रही थी। इस आनंदातिरेक में सबने सिनेमा देखने का
फैसला किया। शायद उसी साल राम तेरी गंगा मैली हो गयी फिल्म रिलीज हुई थी।
वही फिल्म सबने देखी। सुबह सबको ट्रेन पकड़नी थी। मैंने गुवाहाटी से
उन्हीं दिनों शुरू हो रहे पूर्वांचल प्रहरी में किस्मत आजमाने का फैसला
किया। सबसे कहा कि मैं एक-दो दिन रुक कर निकलूंगा। गांव के लोग यहां है,
उनसे मिलजुल कर ही जाऊंगा। हालांकि इसके पीछे मेरी कुटिलता दूसरी नौकरी
तलाशने की थी। रातभर नींद भी नहीं आयी।

यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि अगर संपादक की अस्मिता की लड़ाई में सहयोगी
कुर्बान हो गये तो संपादक ने भी इसकी भरपाई अपनी नौकरी की कुर्बानी देकर
की। चंद्रेश्वर जी ने भी इस्तीफा दे दिया। उन्होंने उसी साल गुवाहाटी से
शुरू हो रहे सेंटिनल में विशेष संवाददाता के रूप में हफ्तेभर के भीतर
ज्वाइन कर लिया। सेंटिनल के संपादक मुकेश कुमार बने थे। चंद्रेश्वर जी को
दिल्ली रहना था।

मेरे साथी घर लौट चुके थे। मैं अकेला नौकरी की तलाश में जमा था।
चंद्रेश्वर जी उत्तरकाल के दूसरे साथियों को सेंटिनल ज्वाइन करा चुके थे।
यद्यपि गुवाहाटी के लिए मेरा चयन चंद्रेश्वर जी ने ही किया था, लेकिन
होली के दिन दारू पीने की बात उन्हें पता चल गयी थी और इस बात को लेकर वह
मुझसे नाराज थे। यह उनके साथ सेंटिनल गये मेरे एक साथी ने बताया था। जब
कहीं बात नहीं बनी तो आखिरकार मैंने घर लौटने का भारी मन से निर्णय लिया।
टिकट कट गया। जिस दिन निकलना था, उसी दिन चंद्रेश्वर जी ने घर पर
बुलवाया। जाते ही उन्होंने कहा- दारू पीते हो। ऐसी संगत कैसे बन गयी। मैं
चुप। जब उनका बोलना बंद हुआ तो मैंने हिम्मत जुटा कर सिर्फ इतना ही कहा-
मुझे इसी बात की खुशी है कि घर से हजार किलोमीटर दूर भी नजर रखने वाला
कोई गार्जियन है। इतना सुनते ही उनका गुस्सा खत्म। कहा- जाओ, मुकेश से
मिल कर आज ज्वाइन कर लो। टिकट वापस कर दो। खुशी से इतरा कर मैं सेंटिनल
के दफ्तर पहुंचा और मुकेश जी से मिला। उन्होंने कहा कि आज से आपकी
ज्वाइनिंग हो गयी। 2300 रुपये मिलेंगे। आप टिकट वापस मत कीजिए। पटना जाकर
और लोगों को ले आइए।

किस पल क्या होगा, कोई नहीं जानता। मासिक 1400 की तनख्वाह पर गुवाहाटी
गया था और दो महीने के अंदर ही यह रकम 2300। एक नौकरी छोड़ दूसरी खोजने की
तमाम कोशिशें नाकाम रहीं, पर कुछ घंटे में ही दूसरी नौकरी मिल गयी। वह भी
पहले से अच्छी तनख्वाह पर।

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