वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर, बने एडिटर- की यह कड़ी पुस्तक में दर्ज कुछ एक्सक्लूसिव तथ्यों-अंशों में से एक है।
इंसान के इल्म का रिश्ता उम्र से होता है। ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती है, आदमी के इल्म में भी उसी हिसाब से इजाफा होता है। 1976 में जिन दिनों हाईस्कूल में नौंवीं का छात्र था तो रिपोर्टर बन गया। घटना, तथ्य, पड़ताल और उसके बाद खबर बनाने का ककहरा सीखा। गलत खबर की बात तो सपने में भी नहीं सोची जा सकती थी। बड़ा होकर डेस्क का आदमी ज्यादा रहा, जहां शब्दों से खेलना सीखा, खबरों की सूचनाओं के पड़ताल के पैंतरे सीखे। शब्दों की इकोनामी जानी। इसमें कहीं भी फर्जीवाड़े की कला सीखने को मुझे नहीं मिली। अलबत्ता जनसत्ता के टेस्ट में एक काल्पनिक खबर जरूर लिखी थी, जो कोलकाता के बड़ाबाजार में आग लगने की घटना को लेकर थी। पटना प्रभात खबर में रहने के दौरान एक ऐसा मौका आया, जब सौ फीसद झूठी खबर फाइल हुई और जान-बूझ कर मैंने पास किया। यह अलग बात है कि वह खबर सिर्फ रांची संस्करण में ही शायद छपी। स्वीकारोक्ति को सुधार की पहली सीढ़ीं माना जाता है। इसलिए उम्र के इस पड़ाव पर फर्जीवाड़े के घटनाक्रम को उजागर कर अब मैं सुधार की कोई उम्मीद तो नहीं पाल सकता, अलबत्ता सत्य का सामना कर मानसिक तौर पर अपराधबोध के दबाव से मुक्त होना चाहता हूं। रिपोर्टिंग की एक और चूक रजनीश उपाध्याय से हुई थी, जिसके लिए विधान परिषद सदस्य ने अवमानना के लिए नोटिस भेजवाया। रजनीश के पिताजी ने मुझे पेशी से बचाया।
फर्जीवाड़े की घटना को इस तरह से भी आप समझ सकते हैं कि रिपोर्टर को खबर के लिए असाइनमेंट मिला। उसने कहा- ऐसा कहीं कुछ भी नहीं है। मैंने कहा कि किसी भी हाल में करना तो पड़ेगा ही, इसलिए काल्पनिक कापी बनाये। दो-ढाई सौ शब्दों की खबर रिपोर्टर ने फाइल कर दी, जो फिलवक्त उसी अखबार में वरिष्ठ पद पर हैं। मैंने शब्दों की बाजीगरी से उसे इस कदर तराशा कि पांच सौ शब्द की खबर बन गयी। रांची में वह छपी तो प्रधान संपादक की वाहवाही भी रिपोर्टर को मिली और अगले दिन फिर उसी तर्ज पर खबर खोजने का असाइनमेंट भी।
वाकया 1997 या 1998 के दुर्गापूजा के दौरान का है। रांची से तत्कालीन प्रधान संपादक हरिवंश जी का सुबह-सुबह फोन आया कि किसी रिपोर्टर को गंगा के किनारे श्मशान घाट शाम को भेजो। नवरात्र में तांत्रिक श्मशान घाटों में तंत्र साधना करते हैं। उनकी एक लाइव स्टोरी बनवा कर रांची भेजो। हरिवंश जी के आदेश को हम लोग तब ब्रह्म वाक्य मानते थे। हमने यह काम अपने एक वरिष्ठ रिपोर्टर को सौंपा। वह ईमानदारी से श्मशान घाट देर शाम गये भी और घंटे भर की तलाशी के बाद बैरंग लौट आये, यह कहते हुए कि वहां कुछ नहीं है। कहीं कोई तांत्रिक नहीं दिखा, सिवा घोर सन्नाटे के।
मैंने कहा कि खबर तो करनी ही पड़ेगी। फिर कुछ देर कल्पनाओं में तांत्रिक, चिता, खोंपड़ी, मंत्रोच्चार, शराब जैसी चीजों की कल्पना की गयी। हंसते-हंसते हम लोग लोटपोट भी होते रहे। बेमन से सबसे आखिर में संवाददाता महोदय (फिलहाल प्रभात खबर में ही वह संपादकीय में बड़े पद पर हैं) कल्पना पर आधारित खबर की रचना में जुट गये। देर से इसे फाइल करने के पीछे दो धारणाएं काम कर रही थीं। पहली कि खबर इतनी विलंब से जाये कि छपे ही नहीं। विलंब से फाइल करने के तर्क भी तलाश लिये गये थे कि रात के सन्नाटे में ही तो तंत्र साधना होती है। इसलिए खबर भेजने में देर हुई। हमें यह क्या पता था कि देर से जाने वाली यह फर्जी कपोलकल्पित खबर पहले पेज का एंकर बनेगी।
आज की सुबह खबर करने का आदेश आया था तो अगली सुबह हरिवंश जी की वाहवाही भी मिली। उन्होंने अलग से भी उस संवाददाता को फोन किया और अच्छी खबर के लिए उनकी तारीफ की। फिर श्मशान जाने की सलाह भी उन्हें दे डाली। यह सरासर बौद्धिक बेईमानी और नैतिक क्षरण की बात थी। यह जानते हुए भी मैंने ऐसा किया, अपने संवाददाता से कराया। इसकी एक ही मूल वजह थी कि हरिवंश जी के किसी आदेश को काटने की हिम्मत हमारे अंदर नहीं थी। नैतिक साहस की यह कमी दूसरे तीन अवसरों पर भी मैंने महसूस की।
हरिनारायण सिंह जी ने वर्ष 2000 में चुपके से इस्तीफा दिया था। किसी को भनक तक नहीं लगी। मैंने भी एसएमएस भेज कर इस्तीफे की सूचना दी थी। अजय कुमार ने भी एक मौके पर चुपके से ही इस्तीफा भेज दिया था। हरिवंश जी के सामने उनकी मर्जी के खिलाफ बोलने का नैतिक साहस किसी में नहीं होता था। जब कभी ऐसे प्रसंग याद आते हैं तो हंसी के साथ आत्मग्लानि का बोध होता है। वैसे भी मेरा स्वभाव संकोची ज्यादा रहा है। संकोच इतना अधिक कि प्रभात खबर की नौकरी 2009 में छोड़ने के तकरीबन नौ महीने बाद हरिवंश जी के सामने गया था। वह भी जमशेदपुर में एक शादी समारोह में। उनसे ज्यादा देर तक बतिया पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया तो हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक शशिशेखर के हवाले कर खुद भाग खड़ा हुआ।
इसके बाद दो और मौके आये, जब नवरात्र में हरिवंश जी ने तंत्र साधना पर खबर कराने के लिए कहा। उन दिनों मैं कोलकाता में था। एक स्टोरी के लिए रिपोर्टर को तारापीठ भेजा और सीरीज में स्टोरी करायी। दूसरी स्टोरी के लिए कामाख्या (गुवाहाटी) में एक फ्रीलांसर से कहा, लेकिन उसने मना कर दिया कि नवरात्र में वहां तंत्र साधना नहीं होती। इसके लिए माघ महीने में कोई खास अवसर होता है।
उन दिनों रिपोर्टर्स मीटिंग में जाने के पहले मैं चार-पांच विशेष खबरों की प्लानिंग कर आता था। दफ्तर आने के बाद हरिवंश जी की सूची अलग से अक्सर मिलती रहती। यानी सात से दस खबरें रोज दो स्टार रिपोर्टरों- रजनीश और अजय को रूटीन के अलावा करनी होतीं। तब चूंकि यही दो स्टार रिपोर्टर थे, इसलिए सारा धान कूटना इनके ही जिम्मे होता था। सीधे कहें तो ये ही मेरे दाहिना-बायां हाथ थे। पटना में रहते रिपोर्टिंग से जुड़ी एक और घटना याद आ रही है।
रात में पटना के किसी मुहल्ले में मारपीट की घटना हुई। रजनीश उपाध्याय ने उसे कवर किया। वह घटनास्थल पर गये थे या नहीं, मुझे नहीं मालूम, लेकिन जो खबर लिखी, उसमें किसी विधान पार्षद का नाम आया। उन्होंने विशेषाधिकार का नोटिस दे दिया। तब विधान परिषद के अध्यक्ष जाबिर हुसैन हुआ करते थे। नोटिस को मैंने गंभीरता से लिया और रजनीश से साक्ष्य जुटाने को कहा, ताकि जवाब दे सकूं। दरअसल घटना का ब्योरा जुटाने के दौरान किसी ने उक्त एमएलसी का नाम लिया था, इसलिए सुनी-सुनाई सूचनाओं के आधार पर खबर बना दी थी रजनीश ने।
अगले दिन से जाबिर साहब के बारे में जितने लोगों से जानकारी मिलती, भीतर से मैं उतना ही डर जाता। किसी ने कहा कि आल इंडिया रेडियो के फलां को तीन घंटे बाहर इंतजार कराया तो कोई कहता कि फलां संपादक को तो आधे घंटे तक खड़ा करा दिया था। जितना सुनता, रजनीश पर सबूत के लिए उतना ही दबाव डालता। अंततः रजनीश के पिता जी ने एक लेटर ड्राफ्ट कर उन्हें दिया। वह लेकर आये। मैंने पहले ही कह दिया था कि माफी नहीं मांगूंगा।
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पत्र पढ़ा तो पहले सिर्फ घटनाक्रम का ब्योरा था। कैसे घटना की सूचना मिली, देर रात की खबर होने के कारण टेलीफोन पर मिली सूचना पर भरोसा किया, ताकि खबर छूट न जाये। जिस एमएलसी का नाम आया था, उनसे संपर्क करने की कोशिश का भी जिक्र था। अंत में लिखा गया था कि मेरी मंशा इस खबर के बहाने किसी की भावना या प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने की नहीं थी। फिर भी किसी को ठेस पहुंची है तो हमें खेद है। रजनीश के पिता जी ने उसे अपने स्तर से मैनेज करा दिया था। मुझे जाने की जरूरत भी नहीं पड़ी। विधान परिषद के रिकार्ड में जरूर वह पत्र कहीं दर्ज होगा।
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