तब प्रभात खबर के प्रिंटलाइन में संपादकीय प्रभारी का नाम छपा

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जहां रहते हैं, उसके इर्द-गिर्द हर दिन, हर पल कई ऐसी चीजें घटित होती हैं कि जब कभी किस्सागोई में उन्हें समेटना चाहें तो मन चंचल हो जाता है। एक साथ अनगिनत घटनाक्रम मानस पटल पर आ जाते हैं, जिनमें से किसे चुनें और किसे छोड़ें जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इन घटनाओं में कुछ कड़वे प्रसंग होते हैं तो कुछ मीठी यादें भी होती हैं। कुछ हंसने-हंसाने वाले प्रसंग आते होते हैं। जीवन भी तो इसी को कहते हैं, जिसमें सुख-दुख और हास-परिहास जैसे आयाम समाहित हों। कुछ इसी तरह के प्रसंग पटना प्रभात खबर में रहते मुझे याद आ रहे हैं। इनका जिक्र आप में कौतूहल तो अवश्य पैदा कर देगा। मेरे ही नहीं, अब कई लोगों के मित्र हैं अविनाश। हरिवंश जी के भी प्आरिय पात्र रहे। कई अविनाश को जानते होंगे, इसलिए भ्रम में न रहें कि मैं किस अविनाश की बात कर रहा हूं। प्रभात खबर के दिनों के मेरे पुराने साथी। तब के पाठक तो यकीनन इनसे परिचित होंगे, सशरीर नहीं तो नाम से जरूर। प्रभात खबर में अक्सर लौट कर अविनाश की बाइलाइन छपती थी। बाद में चर्चित फिल्म अनार कली आफ आरा बना कर वह और मशहूर हो गये हैं। मैं उसी अविनाश की बात करता हूं। सांवला रंग और दुबली-पतली काया। गहरा सांवला रंग, चेहरे पर लेखन के वक्त गंभीरता, पर बातचीत में दांतों की सफेदी की सर्वदा चमक, उनके भौतिक सत्यापन के प्रमाण हैं। आज भी वह वैसे ही हैं, बदली है तो सिर्फ काठी। बालों में सफेदी झलकने लगी है और शरीर में थोड़ा भारीपन आ गया है।

शब्दों से खेलना उस आदमी को तब भी आता था। किसी साहित्यिक पुस्तक की कुछ पंक्तियों से खबरों के तथ्यों का तालमेल बिठा कर वह प्रवाहमयी पठनीय लेखन शैली में लिखने के धनी थे। हरिवंश जी के सबसे प्रिय भी। क्या मजाल की उनकी खबरों की एक-दो लाइन भी काट दे कोई डेस्क वाला या कोई उनकी खबर को खांटी उपसंपादक के अंदाज में कोई संपादन कर दे। किसी ने हिमाकत की भी तो तुरंत हरिवंश जी की हितायत कि उनकी खबर हूबहू जाएगी। मेरे मित्र मिथिलेश कुमार सिंह ने बताया था कि शहाबुद्दीन जब सीवान में गिरफ्तार हुए थे तो सीवान से लौट कर अविनाश ने खबर फाइल की। उन्होंने रूपक का प्रयोग करते हुए लिखा कि सीवान में शहाबुद्दीन की गिरफ्तारी के बाद सन्नाटे का आलम यह था कि चिड़ियों ने चहचहाना बंद कर दिया। मिथिलेश जी का इस पर सवाल था कि भाई मानव के भाषा-भाव को चिड़ियाएं कब से समझने लगीं। मिथिलेश जी तो यह भी बताते हैं कि इसी सवाल पर उन्होंने हाथ से लिखी कापी फेंक दी थी। बाद में हरिवंश जी के निर्देश पर वह हूबहू छपी।

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मेरे साथ भी एक बार ऐसा ही हुआ। अमूमन मैं ही उनकी कापी देखता था। आरंभ से ही डेस्क का आदमी रहा। इकोनामी आफ वर्ड्स का ज्ञान मुझे था। कुछ शब्द इधर-उधर किये होंगे और कुछ लाइनें भी कटी होंगी। इसकी शिकायत आलाकमान तक अविनाश ने पहुंचा दी। मुझे सीधे हरिवंश जी ने तो कुछ नहीं कहा, लेकिन तब रांची संस्करण के संपादक हरिनारायण सिंह जी का फोन आया कि अविनाश की कापी सीधे रांची भेज दें, यहीं से संपादित होकर जाएगी। अपरोक्ष तौर पर यही कहा गया कि उनकी कापी के साथ कोई छेड़छाड़ न हो। मैंने आदेश का पालन किया। एक दिन अविनाश ने कोई खबर फाइल की, जिसमें जाबिर हुसैन के बारे में कुछ प्रतिकूल टिप्पणी थी। मैंने पढ़ने के बाद उसे हूबहू हरिनारायण जी को भेज दिया। फिर भी एडिशन इनचार्ज के नाते मुझे यह अच्छा नहीं लग रहा था कि वह टिप्पणी खबर में जाये। मैंने फोन कर हरिनारायण जी को बता दिया कि उसमें जाबिर हुसैन के बारे में प्रतिकूल टिप्पणी है, एक बार हरिवंश जी से बात कर लीजिएगा। तीर निशाने पर लगा। वह कापी लेकर हरिवंश जी के पास गये और तुरंत आदेश आया कि उसे रोक लिया जाये। इस प्रसंग के जिक्र के पीछे मेरा अभिप्राय यह है कि शायद ही कोई गंभीर उपसंपादक किसी रिपोर्टर की कापी से अनावश्यक छेड़छाड़ करता है।

खबरों के प्रसंग में मैं एक खबर का जिक्र करना आवश्यक मानता हूं, इसलिए कि उसी खबर के बाद प्रभात खबर के प्रिंट लाइन में मेरे नाम के छपने की शुरुआत हुई थी। मुजफ्फरपुर जिले में पारू प्रखंड में सेक्स से जुड़ा कोदरिया कांड हुआ था। उसमें राजद के एक बड़े नेता पर गंभीर आरोप लगे थे। जिला संवाददाता के जरिये वह खबर आयी तो मैंने उसकी छानबीन के लिए कई बार टेलीफोन पर बात कर जिला प्रभारी से यह आश्वस्ति चाही कि यह खबर किसी साजिश या स्थानीय राजनीति के तहत तो नहीं है। पुलिस में यह मामला दर्ज है कि नहीं। वह राजद की सत्ता का दौर था और नेता जी भी उसी दल से जुड़े थे। किसी भी संपादक के नाक-कान-आंख रिपोर्टर ही होते हैं। दोनों के संबंध भरोसे पर टिके होते हैं। मैंने अपने प्रखंडस्तरीय संवाददाता की सूचना पर यकीन किया और उस खबर को पहले पन्ने पर लीड छापी। तब तक मुझे यह पता नहीं था कि उनके एक भाई भी एक बड़े अखबार में रिपोर्टर हैं।

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दूसरे दिन से खंडन छापने का दबाव नेता जी ने जितना डाला, उतना ही उनके रिपोर्टर भाई ने आग्रह किया। मैंने अपने संवाददाता को ज्यादा तरजीह दी और खंडन के बजाय उनसे अपना पक्ष देने को कहा, जिसे हूबहू छापने का भरोसा भी दिलाया। हालांकि उसके बाद उनका कोई खंडन नहीं आया। अलबत्ता अपनी ओर से मैंने उसका फालोअप जरूर करया। मामला ठंडे बस्ते में चला गया। अलबत्ता एक बात जरूर हुई। उस खबर के साक्ष्य के बारे में हरिवंश जी ने मुझसे जरूर पूछा और मेरे जवाब से वह संतुष्ट भी हो गये। तब प्रिंट लाइन में संपादक के रूप में हरिवंश ही छपता था। उन्होंने कहा कि आज से ही प्रिंटलाइन में अपना नाम लगाओ। खबरों के चयन के लिए जिम्मेवार का संकेतक (जो अब भी स्टार लगा कर छपता है) भी लगाओ। इस तरह प्रिंटलाइन में मेरा नाम जाने की शुरुआत हुई।  (वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- को धारावाहिक रूप में हम लगातार दे रहे हैं) 

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